तिराहे पर भारतीय मुसलमान: कुफ्र और काफिर वाली धारणा न केवल बचकानी, अवैज्ञानिक और अनैतिक भी
गुलाम नबी आजाद ने कुछ समय पहले कहा था कि भारत में हर व्यक्ति हिंदू है। तमाम मुसलमानों की नजर में ऐसे बयान इस्लामी उसूलों के विरुद्ध हैं क्योंकि अधिकांश इस्लामी विद्वान अल्लाह के सिवा किसी भगवान की धारणा को सिरे से नकारते हैं और यह कहते हैं कि इस्लाम के सिवा हर धर्म-विश्वास को मानने वाले काफिर हैं। यही इस्लामी शासकों का इतिहास भी रहा है।
शंकर शरण। अबूधाबी में भव्य हिंदू मंदिर के उद्घाटन के बाद भारतीय उपमहाद्वीप के साथ ही शेष दुनिया के अनेक मुसलमानों को समझ नहीं आ रहा कि वे क्या और कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करें, क्योंकि उन्हें तो यही बताया गया है कि इस्लाम में बुतपरस्ती निषेध है। इससे पहले फारूक अब्दुल्ला ने राम भजन गाकर कहा था कि ‘राम के आदर्श ही देश को बचा सकते हैं।’ उन्होंने पहले यह भी कहा था कि भारत के मुसलमान भी राम और कृष्ण के ही वंशज हैं। उनके शब्दों में, ‘भगवान राम मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य सब के भी भगवान हैं।’
गुलाम नबी आजाद ने कुछ समय पहले कहा था कि भारत में हर व्यक्ति हिंदू है। तमाम मुसलमानों की नजर में ऐसे बयान इस्लामी उसूलों के विरुद्ध हैं, क्योंकि अधिकांश इस्लामी विद्वान अल्लाह के सिवा किसी भगवान की धारणा को सिरे से नकारते हैं और यह कहते हैं कि इस्लाम के सिवा हर धर्म-विश्वास को मानने वाले काफिर हैं। यही इस्लामी शासकों का इतिहास भी रहा है।
आज भी इस्लामिक जगत में यही रवैया हावी है। यूरोप और अमेरिका में भी उनकी इस्लामिक तौर-तरीके थोपने की जिद रहती है। वे वहां की संस्कृति और कानूनों की परवाह नहीं करते। मुस्लिम देशों में तो इस्लामी कानून हैं ही। बाहर से आए गैर-मुस्लिम अतिथियों तक को उसी अनुसार चलना पड़ता है। कई जगह मुस्लिम प्रजा को भी इस्लामी उसूलों से चलाने के लिए प्रताड़ित किया जाता है। आखिर अब्दुल्ला या आजाद जैसे नेता फिर ऐसी बातें क्यों कहते हैं?
वे अपनी बातों के अनुरूप मुसलमानों को चलाने के लिए कोई प्रयत्न क्यों नहीं करते? इसके दो ही कारण प्रतीत होते हैं। या तो वे जान गए कि इस्लामी उसूलों से समाज नहीं चल सकता और उनसे मुसलमान पिछड़े ही बने रहेंगे। उल्लेखनीय है कि सऊदी अरब जैसे महत्वपूर्ण इस्लामी देश में धीरे-धीरे अनेक इस्लामी उसूल किनारे किए जा रहे हैं। यह वही देश है जिसने दशकों पहले पूरी दुनिया में इस्लाम फैलाने के लिए भारी संसाधन लगाए थे। जिहादी आतंक में बढ़ोतरी जैसे उसके कई दुष्परिणाम भी सामने आए। हालांकि अब वहां हवा बदल रही है। संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई भी उसी राह पर है।
इस्लाम में कोई मध्यमार्ग नहीं है। मध्यमार्ग को वहां शिर्क कहकर घृणित माना जाता है। ऐसे में सऊदी की नीतियों में बदलाव के गहरे निहितार्थ हैं। इस हिसाब से देखें तो इस्लामी दुनिया में बदलाव के चलते आज भारतीय मुसलमान तिराहे पर खड़े हैं। एक रास्ता, भारतीय ज्ञान-संस्कृति की महान विरासत से जुड़ना है। दूसरा, हर चीज में इस्लाम लागू करने के लिए संघर्ष करना है। तीसरा, अग्रणी इस्लामी देशों में परिवर्तन के अनुसार स्वयं को ढालते हुए इंतजार करना है। भारत की बात करें तो यहां कबीर, रसखान, शाह हुसैन, मीर, गालिब और नजीर आदि अनेक महान कवि भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से गहराई से जुड़े रहे।
आज भी उन्हीं के नाम गौरवान्वित हैं, जबकि इस संस्कृति से दुराव रखने वालों के नामलेवा शायद ही मिलें। दूसरी राह पर चलने वाले मुस्लिम विध्वंस में लगे हैं, जिसकी भेंट मुसलमान भी चढ़ रहे हैं। यहां यह भी विचारणीय है भारतीय मुसलमान अपने महान ज्ञानियों की उपेक्षा कर अरबों, तुर्कों का मुंह ताकते रहेंगे या अपने विवेक से निर्णय करेंगे? उनके नेताओं के बयानों से कुछ अर्थ निकालना व्यर्थ है। असल बात आचरण है, जो दिखाता है कि वे भगवान राम की मर्यादा पर चलने के लिए मुिस्लमों को प्रेरित नहीं करते। न हिंदू ज्ञान-संस्कृति के महान तत्वों को अपनाने के लिए कुछ करते हैं। ऐसी दुविधाजनक स्थिति पर मुसलमानों को विचार करना चाहिए।
चूंकि मानवता का इतिहास इस्लाम से भी पुराना है तो कुफ्र और काफिर वाली पूरी धारणा बचकानी, अवैज्ञानिक और अनैतिक लगती है। यह व्यवहार में असंभव भी है, जो मुस्लिम जगत के आम व्यवहार से भी प्रकट होती है। फिर, इतिहास यह भी दिखाता है कि दुनिया में अनेक मत बनते-बिगड़ते रहे हैं। मानवता ने सबको देखा, झेला, परखा, रखा, छोड़ा या उनमें परिवर्तन किया। इस्लामी मत भी उनमें से एक है। उसके इमाम, अयातुल्ला उसी तरह हैं जैसे पैस्टर, बिशप, लामा या प्रचारक। वे किसी से ऊपर नहीं हैं। उनमें वे सब कमियां-खूबियां हैं जो अन्य मनुष्यों में भी होती हैं। इसलिए उनकी बातें भी वैसे ही गलत हो सकती हैं जितनी किसी और की।
वस्तुत:, खुद मुसलमान भी इस्लामी सिद्धांत एवं इतिहास पूरी तरह जानने पर सोच में पड़ जाते हैं। बढ़ती एक्स-मुस्लिमों की संख्या भी इसका संकेत है। उनके सामने तमाम इमाम और आलिम चुप हैं। कुछ दशक पहले तक उनका दबाव और धमकी काफी कारगर होती थी, लेकिन अब वह उतनी प्रभावी नहीं। अगर इस्लामी मतवाद के दावे गलत साबित हुए हैं तो इसे अब ज्यादा दिन नकारा नहीं जा सकता। इस्लामी संगठनों-सत्ताओं का घमंड जाता रहेगा। वह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ईरान से लेकर मोरक्को तक से इसके संकेत दिखने लगे हैं।
मुसलमानों को इतिहास की सच्ची समीक्षा करनी ही होगी। ढाका, लाहौर, बगदाद या तेहरान में उनके द्वारा अतीत के अस्तित्व को मिटाकर क्या कुछ नया और क्या कुछ शुभ बना? यह सर्वविदित है कि जिन देशों में सदियों से केवल इस्लामी व्यवस्था रही, वहां भी शासन और जीवन मुख्यतः दमन, संदेह और भय से ही संचालित है। इसकी तुलना गैर-मुस्लिम देशों के समाज से करें तो उलट स्थिति दिखेगी। इस्लामी मतवाद मुसलमानों को ‘श्रेष्ठतम’ समुदाय कहता है और अन्य को ‘घृणित’ मानता है, जबकि वास्तविक तुलना कुछ और ही दिखाती है। ऐसे में मुसलमानों को इन सवालों का विवेकसम्मत जवाब ढूंढ़ना होगा।
भारतीय मुसलमान भी अभी तक ऐसा नहीं कर सके तो इसमें कुछ दोष हिंदुओं का भी है। बहुलांश भारतीय मुस्लिम मूल रूप से हिंदू ही हैं, जिन्हें जबरन मुसलमान बनाया गया। तब इन पीड़ितों को उनकी मूल संस्कृति से परिचित कराने का काम हिंदू समाज ने नहीं किया। इसमें मुस्लिम नेताओं की भूमिका भी थी, जो खुद को ऊंचा एवं शासक और हिंदुओं को नीचा एवं शासित दिखाने की प्रवृत्ति पाले रहे। हिंदुओं की भूल यह रही कि उत्पीड़न से मुसलमान बने अपने बंधुओं के प्रति वे उचित नीति बनाने में विफल रहे। आज यह आवश्यक हो गया है कि मुसलमानों को सही मार्ग तय करना चाहिए।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)














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