बिल गेट्स: करीब दो दशक पहले मैंने निर्णय किया कि अपने संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा समाज को वापस करूंगा। आरंभ से ही मेरा यही लक्ष्य था कि जो विषमता मैंने विश्व भर में देखी, उसे दूर करने की दिशा में मदद कर सकूं। अपने अभियान की शुरुआत में मैंने सबसे ज्यादा वैश्विक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया, क्योंकि यह न केवल सबसे विकट विषमता, बल्कि ऐसी समस्या है, जिसका समाधान संभव है। आज भी वही स्थिति है। हालांकि समय के साथ बढ़ते वैश्विक तापमान के विध्वंसक परिणाम प्रत्यक्ष हुए हैं, जिनसे स्पष्ट हुआ है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती का तोड़ निकाले बिना आप गरीबों के जीवन की गुणवत्ता नहीं सुधार सकते। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक स्वास्थ्य का मुद्दा असल में एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।

बढ़ता हुआ तापमान गरीबी दूर करने की कवायद को कठिन बनाएगा। इससे खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी। संक्रामक बीमारियों में वृद्धि होगी और संसाधनों की दिशा जरूरतमंद लोगों से भटक जाएगी। यह एक दुष्चक्र है। जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से गरीबों की स्थिति सबसे नाजुक है। असल में जिस समुदाय पर जलवायु परिवर्तन की जितनी ज्यादा मार पड़ती है, वह उतना ही अधिक गरीबी के दलदल में धंसता जाता है। इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए हमें दोनों समस्याओं का एक साथ समाधान निकालने की आवश्यकता है।

जब मैं इस विषय में बात करता हूं तो अक्सर यही सुनता हूं कि, ‘एक ही समय पर दोनों समस्याओं का समाधान करने के लिए न तो पर्याप्त समय है और न ही संसाधन।’ एक समय में केवल एक ही चुनौती के समाधान का विचार चिंताजनक है। मैं इसे लेकर आग्रही हूं कि यदि हम सही राह का चयन करें तो एक साथ कई बड़ी समस्याओं को सुलझाने में सक्षम हो सकते हैं। उस स्थिति में भी जब विश्व कई संकट झेल रहा हो। इस मामले में भारत से बेहतर कोई और प्रमाण नहीं, जिसने उल्लेखनीय प्रगति की है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान यानी आइएआरआइ-पूसा में उगाए जा रहे नई पीढ़ी के चने के पौधों को ही देख लीजिए। चना भारत का एक प्रमुख भोज्य पदार्थ है। यह तमाम छोटे किसानों की आय का महत्वपूर्ण साधन है। पोषण के लिए भी इस पर भारी निर्भरता है, लेकिन बढ़ता तापमान चने की फसल के लिए खतरा है। बढ़ते तापमान से चने की उपज में 70 प्रतिशत तक गिरावट का अंदेशा है। इससे जीवन और आजीविका पर जोखिम मंडरा रहा है।

इस चुनौती को देखते हुए गेट्स फाउंडेशन ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र और कृषि अनुसंधान पर गठित अंतरराष्ट्रीय समूह (सीजीआइएआर) के साथ मिलकर आइएआरआइ के शोधार्थियों को सहयोग दिया है। उन्होंने चने की ऐसी किस्में विकसित की हैं, जो 10 प्रतिशत तक उपज बढ़ाने के साथ ही सूखे की स्थिति का सामना करने में भी कहीं अधिक सक्षम हैं। इनमें एक किस्म तो किसानों के लिए उपलब्ध है, जबकि अन्य विकास के चरण में हैं। इस प्रकार भारत वैश्विक तापवृद्धि के दौर में अपने किसानों का साथ देने के साथ ही लोगों के खानपान-पोषण की चुनौती का सामना करने के लिहाज से भी बेहतर रूप से तैयार है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भारत में खेती का भविष्य पूसा के एक खेत में आकार ले रहा है। जलवायु, भूख और स्वास्थ्य जैसी चुनौतियों के दुर्जेय समझे जाने का एक कारण यह भी है कि हमारे पास उन्हें सुलझाने के सभी विकल्प अभी उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन मैं आश्वस्त हूं कि आइएआरआइ के शोधार्थियों जैसे नवप्रवर्तकों के माध्यम से जल्द ही हमारे पास वे सभी उपाय होंगे।

भारत मुझे भविष्य के लिए आशा बंधाता है। भारत जल्द ही विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बनने के करीब है। यहां आप व्यापक स्तर पर समस्याएं सुलझाए बिना अधिकांश समस्याओं को नहीं सुलझा सकते। भारत ने यह सिद्ध किया है कि वह बड़ी चुनौतियों का सामना कर सकता है। देश ने पोलियो को जड़ से मिटा दिया है। एचआइवी संक्रमण घटा है। गरीबी में कमी आई है। बाल मृत्यु दर घटी है। स्वच्छता और वित्तीय सेवाओं का दायरा बढ़ा है। यह कैसे संभव हुआ?

भारत ने विश्व को राह दिखाने वाला ऐसा नवाचार वाला तरीका अपनाया है, जिसमें सुनिश्चित किया गया कि समाधान उन लोगों तक पहुंचें, जिन्हें उनकी आवश्यकता है। डायरिया को रोकने वाली रोटावायरस वैक्सीन जब सभी बच्चों तक पहुंचानी मुश्किल थी तो भारत ने उसे स्वयं बनाने का फैसला किया। उसने विशेषज्ञों के साथ ही वित्तीय संसाधन प्रदाताओं (गेट्स फाउंडेशन सहित) के साथ कड़ियां जोड़ीं और फैक्टरी लगाने से लेकर वैक्सीन के प्रभावी वितरण का तंत्र बनाया। परिणामस्वरूप 2021 तक एक वर्ष तक के 83 प्रतिशत शिशुओं को रोटावायरस से कवच प्रदान किया गया। यह किफायती वैक्सीन अब विश्व के दूसरे हिस्सों में लगाई जा रही है। भारत भी जलवायु परिवर्तन के मुहाने पर है, मगर स्वास्थ्य के मोर्चे पर उसकी प्रगति जनता को अनुकूल बनाने के साथ ही अन्य चुनौतियों से निपटने में राह भी दिखाएगी।

नवप्रवर्तकों और उद्यमियों के कार्यों का प्रत्यक्ष अनुभव लेने के लिए मैं अगले सप्ताह भारत आ रहा हूं। उनमें से कुछ जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को दूर करने के उपाय तलाशने में लगे हैं। जैसे ब्रेकथ्रू एनर्जी के फेलो विद्युत मोहन और उनकी टीम दूरदराज के कृषि समुदायों के लिए कचरे को जैव ईंधन एवं उर्वरक में परिवर्तित करने में जुटी है। वहीं कुछ अन्य तापवृद्धि से ताल मिलाने और सूखे के प्रति अपेक्षाकृत अनुकूल कृषि समाधान तैयार कर रहे हैं। गेट्स फाउंडेशन और ब्रेकथ्रू एनर्जी के उम्दा साझेदारों के प्रयासों से हो रही ऐसी प्रगति को देखने की मुझे भारी उत्सुकता है।

स्मरण रहे कि दुनिया के अन्य देशों की भांति भारत के पास भी सीमित संसाधन ही हैं, लेकिन उसने दिखाया है कि इसके बावजूद कैसे प्रगति की जा सकती है। सार्वजनिक-निजी और परोपकारी क्षेत्र मिलकर सीमित संसाधनों को विपुल वित्तीय संसाधनों एवं ज्ञान के व्यापक भंडार में रूपांतरित कर सकते हैं, जिससे हम उन्नति की ओर उन्मुख होंगे। यदि हम साथ मिलकर काम करें तो एक ही साथ जलवायु परिवर्तन की चुनौती से जूझते हुए वैश्विक स्वास्थ्य की दशा भी सुधार सकते हैं।

(लेखक माइक्रोसाफ्ट और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सह-संस्थापक और ब्रेकथ्रू एनर्जी के संस्थापक हैं)