विकास सारस्वत। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रस्तावित आयात शुल्क यानी टैरिफ की घोषणा हो गई। ट्रंप की समझ से उनका यह कदम अंतरराष्ट्रीय व्यापार में चली आ रही असमानता को ठीक करने का प्रयास है। ट्रंप प्रशासन यह मानता है कि अमेरिका में तो आयातित उत्पादों पर टैरिफ की दरें बहुत कम थीं, परंतु बाकी देशों में अमेरिकी उत्पादों को भारी टैरिफ चुकाना पड़ता है।

टैरिफ ढांचे में बदलाव को ट्रंप ने अपना अहम चुनावी मुद्दा बनाया था। बढ़े हुए आयात शुल्क दो श्रेणियां में आए हैं। पहला आधार शुल्क यानी बेस टैरिफ जो अब तक ढाई प्रतिशत था। इसे बढ़ाकर दस प्रतिशत किया गया है। दूसरी श्रेणी में विभिन्न देशों को चिह्नित कर उन पर अलग-अलग दर से पारस्परिक यानी रेसिप्रोकल टैरिफ लगाया गया है।

इसकी गणना करने के लिए अमेरिका ने विभिन्न देशों के साथ अपने व्यापार घाटे को आधार बनाया है। बढ़े हुए शुल्क की सबसे ज्यादा मार चीन, वियतनाम, थाइलैंड, ताइवान आदि पर पड़ने वाली है। यूरोपियन यूनियन, दक्षिण कोरिया और जापान उन देशों में शामिल हैं, जिन पर अपेक्षाकृत कम टैरिफ लगाया गया है, परंतु अमेरिका को होने वाले भारी निर्यात की वजह से यह कम टैरिफ दर भी इन देशों की अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालेगी।

बाकी देशों के मुकाबले भारत पर लगाया 26 प्रतिशत टैरिफ फिर भी काफी हल्का है। अपने चुनाव अभियान के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को विशेष रुप से इंगित कर टैरिफ किंग बताया था और इस कारण उम्मीद लगाई जा रही थी कि भारत पर भी चीन और वियतनाम जितना भारी शुल्क लगाया जाएगा। भारत का इस तरह सस्ते में छूट जाना राहत भरा है।

चूंकि भारत का अमेरिका को होने वाला निर्यात सकल घरेलू उत्पाद का मात्र दो प्रतिशत है, इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था पर एकदम कोई बहुत बड़ा प्रभाव नहीं पड़ेगा। गौर करने वाली बात यह भी है कि दवाईयों, धातुओं, सेमीकंडक्टर आदि को जवाबी टैरिफ से मुक्त रखा गया है। अमेरिका को निर्यात होने वाली भारतीय वस्तुओं का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं श्रेणियां में आता है।

यूएसएड की समाप्ति, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति, पेरिस जलवायु समझौते और डब्ल्यूएचओ जैसे संगठनों से निकलना और अप्रवासन नीति में कड़ाई दिखलाती है कि ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने अपने शताब्दी पुराने बहुपक्षवाद और अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप नीति को विदाई दे दी है। जवाबी टैरिफ लगाने की घोषणा से उसने एक तरह से विश्व व्यापार संगठन समझौते से हाथ खींच कर आर्थिक क्षेत्र में भी एकला चलो की नीति अपना ली है।

इन नीतियों का अमेरिका और समूचे विश्व पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, यह तो समय बताएगा, परंतु यह स्पष्ट है कि अमेरिका उद्योग के महत्व को समझ फिर से उत्पादन क्षेत्र पर बल दे रहा है। जर्मनी जैसे यूरोपीय देश पहले से ही स्वचालित निर्माण प्रौद्योगिकी की मदद से उत्पादन प्रक्रियाओं को विस्तार देने में लगे हुए हैं।

पूरा विश्व इस पर एकमत है कि उत्पादन और व्यापारिक स्पर्धा ही इस युग का युद्धक्षेत्र है। यह आभास प्रबल हो रहा है कि सेवा क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी और डिजिटल प्लेटफार्म आधारित अर्थव्यवस्था का विस्तार न सिर्फ अपनी क्षमताओं को पा चुका है, बल्कि इसने धन और आय वितरण में एक गहरी खाई खड़ी कर दी है, जिससे मध्यवर्ग पर प्रभाव पड़ रहा है।

बदली परिस्थितियों में भारत के पास दो विकल्प हैं। पहला यह कि हम घरेलू उत्पादन को संरक्षण और बढ़ा दें या फिर अमेरिकी चिंताओं को संबोधित कर टैरिफ कम करें। यदि भारत वैश्विक बाजार में अपनी जगह बनाना चाहता है तो उसे संरक्षणवाद से मुक्ति पानी होगी। घरेलू उत्पादन को मिले संरक्षण ने भारतीय उत्पादों की गुणवत्ता को कभी निखरने नहीं दिया।

अमूल के अलावा शायद ही कोई ऐसा उत्पाद हो, जिसने भारत से निकलकर अपनी वैश्विक पहचान बनाई हो। उत्पादन के क्षेत्र में आज यह और भी आवश्यक हो गया है कि बाजार में अपनी जगह बनाने के लिए विशिष्टता, नवीनता, गुणवत्ता और डिजाइन पर निरंतर बल दिया जाए। संरक्षणवादी नीतियों के चलते ऐसा हो पाना कठिन है। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि चुनिंदा व्यापारिक घरानों को संरक्षण देते हुए कुछ ऐसे उत्पादों की उप्लब्धता और मूल्य को नियंत्रित किया गया है, जो सहायक उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।

वस्त्र और फुटवियर उत्पादन इसका उदाहरण हैं। बांग्लादेश के वस्त्र निर्यात में आए उछाल का एक बड़ा कारण वहां कच्चे माल की उपलब्धता में विविधता है। दूसरी तरफ भारत में कई तरह के कपड़ों पर लागू एंटी डंपिंग ड्यूटी ने गार्मेंट निर्माण की संभावनाओं को सीमित किया है। ऐसे में यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं कि वियतनाम और थाइलैंड जैसे देशों का निर्यात उनकी अर्थव्यवस्था का क्रमशः 87 और 65 प्रतिशत हो गया है। इन देशों में औसत आयात शुल्क 9.6 और 11.5 प्रतिशत है। इसके मुकाबले भारत का औसत आयात शुल्क 18 प्रतिशत है।

भारतीय परिदृश्य में वर्तमान परिस्थितियों की तुलना 1991 से की जा सकती है, जब भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना पड़ा था। उस समय भी शुरुआती विरोध और संदेह के बाद अंततोगत्वा परिणाम सुखद हुए। ट्रंप द्वारा लगाए गए टैरिफ इस मायने में भारत को एक सुनहरा अवसर प्रदान करते हैं कि दक्षिण पूर्व एशिया में मलेशिया को छोड़कर बाकी सभी देशों की तुलना में भारत पर लगा टैरिफ सबसे कम है।

इससे भारत के कपड़ा, वस्त्र, जूता, सेमीकंडक्टर, इलेक्ट्रानिक्स, केमिकल और खिलौना निर्माण को तुलनात्मक लाभ मिलना चाहिए, परंतु यथार्थ के धरातल पर भारत के लिए उत्पादन क्षेत्र का विस्तार उतना ही चुनौतीपूर्ण है, जितना ट्रंप द्वारा महज टैरिफ बढाने से घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन की उम्मीद।

अपने उत्पादन क्षेत्र के विकास के लिए भारत को कौशल विकास, पूंजी की लागत, श्रम कानूनों में सुधार, लालफीताशाही, सरकारी भ्रष्टाचार और सामान्य व्यवहार में व्यावसायिक दृष्टिकोण पर ध्यान देना होगा। ट्रंप द्वारा लगाए गए टैरिफ भारत के लिए आपदा में अवसर बन सकते हैं, बशर्ते हम "ईज आफ डूइंग बिज़नेस" की संकल्पना को नारेबाजी से आगे बढ़कर व्यवहार में ले आएं।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)