दिव्य कुमार सोती। कुछ दिनों के भीषण युद्ध के बाद इजरायल और ईरान के बीच संघर्ष विराम हो गया। कहना मुश्किल है कि यह संघर्ष विराम कितने समय तक टिकेगा? ईरान पर हमला बोलते समय इजरायल ने यह कहा था कि उसका उद्देश्य ईरानी परमाणु कार्यक्रम को समाप्त करना है। उसे कुछ आरंभिक सफलता भी हासिल हुई। उसके अचानक हमले में ईरान के कई शीर्ष सैन्य कमांडर और परमाणु विज्ञानी मारे गए। शुरुआती सफलता के बीच इजरायल ने कहना शुरू कर दिया कि हमले के पीछे उसके उद्देश्य बड़े हैं और एक उद्देश्य ईरान में सत्ता परिवर्तन का भी है। 

ईरान की सत्ता उन कट्टर मजहबी नेताओं के कब्जे में है, जो हमास-हिजबुल्ला का साथ देते हैं। इजरायल के समर्थन में अमेरिका के कई ताकतवर नवरूढ़िवादी सांसदों की आवाज भी उठने लगी। शुरुआत में अमेरिका इस लड़ाई में कूदने से हिचक रहा था, पर ईरान की जवाबी कार्रवाई से घिरे इजरायल की मदद के लिए आखिरकार राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी वायु सेना को ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले के आदेश देने ही पड़े। इसके बावजूद ईरानी परमाणु कार्यक्रम के पूरी तरह ध्वस्त होने को लेकर संदेह है। 

वैसे भी ईरान की मिसाइल क्षमता आशा से कहीं अधिक निकली। युद्ध लंबा खिंचने पर इजराइल में कहीं अधिक बर्बादी हो सकती थी। इसी कारण ट्रंप ने आनन-फानन युद्ध विराम का एलान भी कर दिया और वह भी अपने व्यापक लक्ष्यों की पूर्ति के बिना, क्योंकि न तो ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह नष्ट हो पाया और न ही वहां सत्ता परिवर्तन के कोई आसार दिख रहे। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं कि इजरायल और ट्रंप के मागा (मेक अमेरिकी ग्रेट अगेन) खेमे ने यह योजना सदा के लिए छोड़ दी है। सही मौका देखकर इसे फिर से क्रियान्वित करने का प्रयास होगा।

वैसे तो अमेरिका को ‘फिर से महान बनाने के अभियान’ में लगा ट्रंप प्रशासन ईरान में सत्ता परिवर्तन के लिए किसी जमीनी युद्ध में नहीं उलझना चाहता, परंतु उसके इरादों को देखते हुए भारत को सतर्क होना होगा। भारत को सामरिक दृष्टिकोण से भी इस युद्ध के निहितार्थ समझने की आवश्यकता है। इजरायल-ईरान युद्ध के दौरान व्हाइट हाउस में ट्रंप की ओर पाकिस्तानी सेना प्रमुख आसिम मुनीर की आवभगत का एक गहरा अर्थ है। जब मुनीर व्हाइट हाउस में थे, लगभग उसी समय अमेरिकी मदद से सत्तासीन बांग्लादेश की भारत विरोधी मोहम्मद यूनुस सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी वाशिंगटन में अमेरिकी अधिकारियों से मिल रहे थे। 

दरअसल ट्रंप की मागा योजना के अंतर्गत अमेरिका का नए सिरे से जो उद्योगीकरण प्रस्तावित है, वह बिना चीन और रूस के पर कतरे और भारत को तंग किए बिना संभव नहीं है। इस योजना को सिरे चढ़ाना उतना आसान नहीं है, क्योंकि भूमंडलीकरण के नाम पर अमेरिका ने ही अधिक मुनाफा कमाने के फेर में अपनी कंपनियों को चीन, वियतनाम जैसे देशों में स्थापित कराया। अब जब तक इन देशों में अमेरिकी कंपनियों के लिए उत्पादन के मोर्चे पर चुनौतियां नहीं दिखतीं, तब तक उनकी स्वदेश वापसी मुश्किल है। फिर भी अपनी योजना को लेकर अमेरिकी नवरूढ़िवादियों और ट्रंप के कथित युद्धविरोधी मागा खेमे में एक राय है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए दो तरीके चुने गए हैं।

पहला तरीका है ट्रेड और टैरिफ नीति के जरिये रूस, चीन के साथ-साथ भारत का भी आर्थिक संकट बढ़ाना। दूसरा तरीका है कट्टरपंथी इस्लामिक शक्तियों का अपने हित में इस्तेमाल करना। ट्रंप के चीनी वस्तुओं पर लगाए गए भारी टैरिफ के चलते चीन का अमेरिका को निर्यात काफी घटा है। यदि यह सिलसिला लंबे समय तक चला और चीन ने अपने निर्यात के लिए नए बाजार नहीं तलाशे तो वहां बड़ा औद्योगिक और सामाजिक संकट खड़ा हो सकता है।

भारत चीन के विरुद्ध एक तरह से अमेरिका का सामरिक साझेदार है, लेकिन ट्रंप मात्र इतने से संतुष्ट नहीं। उन्हें भारत के रूप में एक लोकतांत्रिक मित्र राष्ट्र नहीं, बल्कि उनके हिसाब से चलने वाला देश चाहिए। भारत के अमेरिका के बताए रास्ते पर चलने से साफ इन्कार करने के बाद अब यह अमेरिका के एजेंडे में नहीं दिखता कि उसकी मदद से भारत चीन जैसी आर्थिक शक्ति बनकर खड़ा हो। यह अच्छा हुआ कि भारत ने साफ कर दिया कि उसे अमेरिका से व्यापार समझौते की जल्दी नहीं।

ट्रंप ने हाल में यह भी कहा था कि भारत एक बड़ा देश है और वह अपने मसले खुद देख लेगा। ध्यान रहे एक अमेरिकी सीनटेर रूसी तेल खरीदने के चलते भारत पर 500 प्रतिशत तक टैरिफ लगाने की वकालत कर चुके हैं। पाकिस्तान को शह देते ट्रंप भी भारत-पाकिस्तान सीजफायर के मुद्दे को भी जब तब व्यापार से जोड़ते रहते हैं। इसके पीछे उनका भारत के लिए यही संदेश है कि अगर टैरिफ जैसे मुद्दों पर भारत ने अमेरिका की बात नहीं मानी तो उसे पाकिस्तान के मोर्चे पर और दिक्कतें झेलनी पड़ेंगी। यदि बांग्लादेश में भी अमेरिका लगातार इस्लामिक कट्टरपंथियों को बढ़ावा दे रहा है तो भारत को परेशान करने के लिए ही। 

इन परिस्थितियों में रूसी विदेश मंत्री द्वारा प्रस्तावित रूस, चीन और भारत का त्रिकोण अब प्रासंगिक लगता है। चीन भी अब इसे लेकर सजग हो रहा है। भारत और चीन के रिश्तों में बर्फ पिघलती देखी जा सकती है। हाल में शंघाई सहयोग संगठन के मंच पर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीनी विदेश मंत्री वांग यी की मुलाकात के बाद आए चीनी विदेश मंत्रालय के बयान में उल्लेख हुआ कि दोनों देश एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी न होकर साझेदार हैं।

जहां अमेरिकी टैरिफ के चलते चीन को एक बड़े बाजार की आवश्यकता है, वहीं भारत को त्वरित औद्योगिक विकास के लिए सस्ते कलपुर्जों की। दोनों देश एक दूसरे के पूरक बन सकते हैं। इसके बावजूद भारत को अपने सुरक्षा हितों के मामले में चीन को लेकर निरंतर सजग रहते हुए आगे बढ़ना होगा, क्योंकि सीमा विवाद जैसे मुद्दों पर पूर्व में चीन से बार-बार धोखा मिल चुका है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि चीन के साथ आर्थिक साझेदारी भारत के औद्योगिक विकास में सहायक हो और वह चीन पर निर्भरता का कारण न बने।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)