[ कृपाशंकर चौबे ]: हिंदी की महत्ता तभी स्थापित हो गई थी जब वह स्वाधीनता संग्राम के समय समूचे देश को आपस में जोड़ने वाली सबसे सशक्त संपर्क भाषा बन गई थी। उस दौर के सभी नेताओं का मानना था कि अगर कोई भारतीय भाषा देशवासियों को एकजुट करने में सहायक बन सकती है तो वह हिंदी ही है। हिंदी की सामर्थ्य को गांधी ने भी समझा और नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने भी। आचार्य बिनोवा भावे ने कहा था कि यदि मैंर्ने हिंदी का सहारा न लिया होता तो कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से केरल तक के गांव-गांव में जाकर मैं भूदान, ग्राम-दान का संदेश जनता तक न पहुंचा पाता।

हिंदी ने राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त किया

हिंदी ने राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त किया। उसे यह भी बोध रहा कि भारत का विकास और राष्ट्रीय एकता की रक्षा प्रादेशिक भाषाओं के पूर्ण विकास से ही संभव है। हिंदी में वह शक्ति है कि वह अपने माध्यम से भारत को जोड़ सके। हिंदी को अपना स्थान अभी भी हासिल करना है। उसे इस मिथ्या धारणा को भी तोड़ना है कि विकास की भाषा तो अंग्रेजी ही है। अगर अंग्रेजी सचमुच विकास की भाषा होती तो पहले जापान और फिर जर्मनी और चीन ने अपनी भाषा में चमत्कारिक प्रगति न हासिल की होती।

हिंदी देश की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा

हाल के समय में हिंदी ने उल्लेखनीय प्रगति और पहुंच स्थापित की है, लेकिन केवल इतने से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि वह देश की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा बन गई है। दी ज्ञान अर्जन की, विज्ञान एवं तकनीक की और सरकारी एवं गैर सरकारी कामकाज यानी रोजगार की सक्षम भाषा भी बननी चाहिए। जब ऐसा होगा तभी उसे अपना मुकाम हासिल होगा। इस मुकाम को हासिल करने में हिंदी को गैर हिंदी भाषियों का सहयोग और समर्थन चाहिए होगा। यह तभी हासिल हो सकता है जब हिंदी के प्रति अन्य भाषा-भाषियों की आशंकाओं को दूर करने में सफलता मिलेगी।

हिंदी प्रेमियों को सतर्क रहना होगा

गैर-हिंदी भाषियों में हिंदी को लेकर किसी तरह की आशंका उपजने न पाए, इसके लिए हिंदी प्रेमियों को सतर्क रहना होगा और इस क्रम में उन हिंदीतरभाषियों का स्मरण करना होगा जिन्होंने विभिन्न कालखंडों में हिंदी के विस्तार में योगदान किया। इसे गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों के उन लोगों को भी स्मरण रखना चाहिए जो रह-रहकर किसी न किसी बहाने हिंदी का विरोध करने के लिए आगे आ जाते हैैं। ऐसा करके वे हिंदी के साथ ही अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी अहित करते हैैं, क्योंकि देश में जब भी हिंदी के विरोध में कहीं से कोई आवज उठती है तो जाने-अनजाने उसका लाभ अंग्रेजी के हिस्से में जाता है।

अंग्रेजियत की संस्कृति हिंदी के लिए खतरा

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सिविल सेवा परीक्षा में अंग्रेजी के वर्चस्व से तभी लड़ा जा सका जब हिंदी भाषी छात्रों के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के छात्र एकजुट हुए। इस एकजुटता को और बढ़ाने की जरूरत है, क्योंकि अंग्रेजी से उपजी अंग्रेजियत की संस्कृति यानी खुद को विशिष्ट समझने की मानसिकता हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के लिए एक खतरा बनी हुई है।

हिंदी गद्य का जन्म फोर्ट विलियम कॉलेज में हुआ था

बहुत कम लोग इससे परिचित होंगे कि आधुनिक हिंदी गद्य का जन्म हिंदीतर क्षेत्र कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज में तब हुआ जब वहां हिंदुस्तानी भाषा विभाग के प्रमुख बांग्लाभाषी तारिणी चरण मित्र थे। हिंदी का पहला साप्ताहिक समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ हिंदीतरभाषी क्षेत्र कलकत्ता से ही 30 मई, 1826 को निकला। हिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्र ‘समाचार सुधावर्षण’ भी कलकत्ता से ही 1854 में निकला। इसे बांग्लाभाषी श्यामसुंदर सेन ने निकाला था। बांग्लाभाषी जस्टिस शारदाचरण मित्र ने देवनागरी लिपि के विस्तार के उद्देश्य से ‘देवनागर’ नामक पत्रिका 1907 में निकाली।

हिंदी में पहला एमए होने का गौरव बांग्लाभाषी को जाता है

हिंदी में पहला एमए होने का गौरव नलिनी मोहन सान्याल नामक एक बांग्लाभाषी ने पाया। ऐसा इसलिए हो सका, क्योंकि देश में पहली बार 1919 में हिंदी में एमए की पढ़ाई कलकत्ता विश्वविद्यालय में तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने शुरू कराई। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के हिंदी प्रेम को देखते हुए ही 20 दिसंबर, 1928 को कलकत्ता में आयोजित राष्ट्रभाषा सम्मेलन की स्वागत समिति का अध्यक्ष उन्हें बनाया गया। वहां उन्होंने हिंदी के पक्ष में ऐतिहासिक भाषण हिंदी में ही दिया। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को 1930 में हिंदी शिक्षक नियुक्त किया और 1940 में हिंदी भवन की स्थापना की। इसी तरह पूर्वी भारत, मध्य भारत, उत्तर भारत, दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत के हिंदीतरभाषियों ने विभिन्न कालखंडों में हिंदी को सींचने का महत्वपूर्ण काम किया।

हिंदी को राष्ट्रीय स्वरूप देने में योगदान महात्मा गांधी का है

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देवनागरी लिपि के लिए एक हिंदीतरभाषी लेखक ने अपनी शहादत तक दी। ये थे बिनेश्वर ब्रह्म। वह असम में ‘देवनागरी के नवदेवता के तौर पर जाने जाते हैैं। हिंदी को राष्ट्रीय स्वरूप देने में सबसे अधिक योगदान महात्मा गांधी का है। 1934 में पूर्वोत्तर भारत में हिंदी प्रचार महात्मा गांधी की प्रेरणा से ही प्रारंभ हुआ। 1936 में उन्होंने वर्धा में राष्ट्र्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की और दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के लिए अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को मद्रास भेजा था। देवदास गांधी के साथ स्वामी सत्यदेव परिव्राजक 1918 में मद्रास गए और दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार-कार्य शुरू किया। वे दोनों दक्षिण भारत के सर्वप्रथम हिंदी प्रचारक माने जाते हैं। इसके पहले 1927 में दक्षिण भारत के हिंदी प्रचार कार्य को हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के नियंत्रण से अलग करके दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा नामक संस्था बनाई गई। यह संस्था आज भी आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में हिंदी का प्रचार-प्रसार कर रही है।

दक्षिण भारत के स्कूलों में हिंदी में पठन-पाठन

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कार्यों के कारण दक्षिण भारत के हर राज्य में स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर पर हिंदी में पठन-पाठन प्रारंभ हुआ। अक्टूबर 1941 में मलयालम की प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ‘मातृभूमि’ में एक हिंदी खंड दिया जाने लगा। उसे केरल की पत्रकारिता की ऐतिहासिक घटना माना जाता है। लगभग एक वर्ष तक ‘मातृभूमि’ में हिंदी स्तंभ के तहत हिंदी कविता, कहानी, लेख, यात्रा वृतांत छपते रहे।

हिंदी राजभाषा के दर्जे तक सीमित है

वास्तव में भारतीय भाषाओं के बीच पारस्परिक साझेदारी और आपसी संवेदना की ऐसी समझ का विकास होने पर ही अखिल भारतीय बोध का विस्तार होगा और तभी हिंदी दिवस सही अर्थों में अखिल भारतीय स्तर पर मनाया आएगा। आज अगर हिंदी राजभाषा के दर्जे तक सीमित है तो शायद इसीलिए कि सभी भारतीय भाषाओं के लोग इस पर सहमत नहीं हो पा रहे हैैं कि वह राष्ट्रभाषा बने। यह समझने की जरूरत है कि हिंदी का विस्तार और विकास ही अन्य भारतीय भाषाओं के हित में है।


( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा में प्रोफेसर हैं )