दरिद्रता का आशय केवल धनाभाव व सुख-सुविधाओं से वंचित होना ही नहीं है। वस्तुत: दरिद्रता मनुष्य के भीतर पनपने वाला एक ऐसा हीनभाव है, जो औरों की तुलना में स्वयं को गुणों, साम‌र्थ्य, सत्ता और योग्यता में कमतर समझता है। यह आवश्यक नहीं कि वही व्यक्ति संसार में दरिद्र है, जिसके पास खाने के लिए भोजन नहीं है; रहने के लिए घर नहीं है; पहनने के लिए वस्त्र नहीं हैं या जीवन निर्वाह के लिए भरपूर संसाधन, आर्थिक मजबूती या ठोस जीवनाधार नहीं है। सच तो यह है कि अतुल संपदा वाला व्यक्ति भी किन्हीं अर्थों में या फिर वैचारिक रूप से दरिद्र हो सकता है। इस संबंध में प्रमुख विचारक एडविन पग का कहना है कि उस मनुष्य से अधिक दरिद्र कोई नहीं है, जिसके पास सिर्फ पैसा है और कोई गुण नहीं स्पष्ट है, संपन्न होने पर भी दरिद्रता साथ नहीं छोड़ती है। असली दरिद्रता तब दृष्टिगत होती है, जब प्रचुर संसाधनों के होते हुए भी व्यक्ति स्वयं को दरिद्र, विपन्न, असमर्थ, असहाय व शक्तिहीन मानने के लिए विवश होता है। गरीब का गरीबी से दुखी होना जितना स्वाभाविक है, अमीर का स्वयं को दरिद्र समझना उतना ही आश्चर्यजनक भी। प्रसिद्ध चिंतक इमर्सन मानते हैं कि दरिद्र वे लोग हैं, जो अपने को दरिद्र मानते हैं, दरिद्रता स्वयं को दरिद्र समझने में ही होती है।

जीवन के किसी क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के प्रति असंतोष का भाव भी दूसरे अर्र्थों में दरिद्रता है। दरिद्रता वह भाव है, जिसे पाने की ललक में आदमी गलत काम करने पर आमादा हो जाता है और कोई भी गलत कार्य कर समाज में वैमनस्यता के बीज बो सकता है। दरिद्रता वस्तुगत हो या भावगत दोनों ही सुख, समृद्धि, खुशहाली और शांति के भवन को तहस-नहस करने वाली होती है। यदि दरिद्रता भावगत व सकारात्मक है, तो वह सृजन, नवोन्मेष या कल्याण का पर्याय बनकर दूसरों के लिए प्रेरणा का विषय बन सकती है, लेकिन यदि वह वस्तुगत या नकारात्मक है तो सब कुछ नष्ट करने में सक्षम होती है। स्वेट मॉर्डेन मानते हैं कि दरिद्रता का भाव रखते ही हम समृद्धि को अपने मानस क्षेत्र की ओर कैसे आकृष्ट कर सकते हैं? सब कुछ होने पर भी कुछ और पाने की अकर्मण्य तमन्ना, आशा, ललक, आकांक्षा या भाव भी एक प्रकार की दरिद्रता है। प्रसिद्ध विचारक बैंजामिन फ्रैंकलिन का मानना है कि 'दरिद्रता मनुष्य को साहस और धर्म से हीन कर देती है।

[डॉ. दिनेश चमोला 'शैलेश']