जागरण संपादकीय: हिंदी विरोध की सस्ती राजनीति, नेताओं के पास जनकल्याण के मुद्दे खत्म
हिंदी का चाहे जितना विरोध कीजिए लेकिन यह हिंदी की ताकत है कि वह बढ़ती ही जाती है। आज दुनिया के डेढ़ सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। अधिकांश विदेशी एयरलाइंस अंग्रेजी के साथ-साथ अपने एनाउंसमेंट हिंदी में भी करती हैं। वर्ष 2024 में 5235 प्रकाशकों ने 38943 लेखकों की नब्बे हजार से अधिक पुस्तकें हिंदी में प्रकाशित की थीं।
क्षमा शर्मा। एक बार फिर हिंदी की पिटाई हो रही है। पहले तमिलनाडु में हुई। फिर महाराष्ट्र में। कारण बताया गया कि नई शिक्षा नीति के जरिये तमिलनाडु और महाराष्ट्र में हिंदी थोपने की साजिश की जा रही है। हिंदी को साम्राज्यवादी भाषा भी बताया जा रहा। कुछ लोग तो कहने लगे हैं कि हिंदी सांप्रदायिक भी है।
एक भाषा जिसके बोलने वाले साठ करोड़ लोग हैं, उसे जब–तब धर लिया जाता है। दरअसल जब नेताओं के पास जनकल्याण के मुद्दे खत्म हो जाते हैं, तो वे इसी तरह सस्ती राजनीति के सहारे लोगों की भावनाओं को भड़काकर वोट जुटाते हैं। जनतंत्र की यह ताकत भी है और कमजोरी भी कि कोई किसी को कभी भी निशाने पर ले सकता है। लतिया सकता है, चाहे वह भाषा ही क्यों न हो।
यह हिंदी के लोगों की उदारता ही कही जाएगी कि वे अपनी भाषा के अपमान को एक कड़वा घूंट समझकर झेल लेते हैं। पिछले दिनों हिंदी के बहुत से ऐसे लोगों की पोस्ट भी देखी, जो हिंदी से खाते-कमाते हैं, लेकिन हिंदी थोपने के फर्जी नैरेटिव को आगे बढ़ाते हैं। हिंदी लेखक तो प्राय: इस मसले पर कुछ बोलते ही नहीं, जबकि सच यह है कि जब तक हिंदी पढ़ने-बोलने वाले हैं, तभी तक उनकी पुस्तकें पढ़ी जा रही हैं। हिंदी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है तो इसीलिए कि वह रोजगार की भाषा भी है।
हिंदी बोलने वालों की बड़ी आबादी को देखते हुए बड़े-बड़े कॉरपोरेट लोगों की जेब तक पहुंचने के लिए अपने-अपने उत्पादों का विज्ञापन हिंदी में करवाते हैं। वे हिंदी के जरिये भारी मुनाफा तो कमाते हैं, लेकिन हिंदी और हिंदी भाषियों के लिए करते क्या हैं, ये वही बता सकते हैं। पूरा हिंदी फिल्म उद्योग महाराष्ट्र में है, जो वहां की सरकार की आर्थिकी को चलाने में मदद करता है, रोजगार देता है, लेकिन हिंदी जब पिटती है, तो बड़े-बड़े कलाकार खामोश हो जाते हैं।
कौन आफत मोल ले, क्योंकि उनकी फिल्मों की भाषा हिंदी जरूर है, लेकिन जीवन की भाषा अंग्रेजी है। बहुत कम कलाकार हैं, जो हिंदी में बात करना पसंद करते हैं। आखिर हिंदी क्षेत्र से आने वाले कितने नेता हैं, जो हिंदी के पक्ष में बोलते हैं। हां, उन्हें हिंदी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के वोट जरूर चाहिए।
लोकसभा की 50 प्रतिशत से अधिक सीटें हिंदी भाषी इलाकों से आती हैं। बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय फिल्में हिंदी में डब की जाती हैं और वे खूब पैसा कमाती हैं। तब भी वहां के नेता-अभिनेता हिंदी को गरियाने में पीछे नहीं रहते। हिंदी फिर पिट रही है और सब खामोशी से देख रहे हैं।
शायद इसी कारण महाराष्ट्र सरकार को पांचवीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य किए जाने के फैसले से पीछे हटना पड़ा। जब से अस्मिताओं की राजनीति शुरू हुई है, हर एक को लगने लगा है कि वही महान है और उसकी भाषा महान है। अगर ऐसा है तो हिंदी वालों को कौन रोकता है कि वे भी अपनी भाषा को महान मानें, लेकिन देखा तो यह गया है कि जब कोई हिंदी क्षेत्र का व्यक्ति किसी बड़े पद पर पहुंच जाता है तो अक्सर गर्व से कहता है कि मेरा हिंदी में हाथ तंग है।
अन्य भाषा-भाषियों की इसके लिए तारीफ करनी चाहिए कि वे अपनी भाषा को लेकर किसी हीनता ग्रंथि से जकड़े हुए नहीं हैं। जिस केरल में मार्क्सवादी पार्टी के बड़े नेता ईएमएस नंबूदरीपाद ने हिंदी को शिक्षा के क्षेत्र की दूसरी भाषा बनाया, वहां से भी पिछले दिनों हिंदी विरोध के सुर सुनाई दिए। कर्नाटक के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता सिद्दरमैया भी हिंदी विरोध की लहर पर सवार होते रहे हैं।
एक बार मैसूर के कलेक्टर ने यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कों पर कन्नड़ और अंग्रेजी के अलावा हिंदी में नाम लिखवाए, तो इतना विरोध हुआ कि हिंदी नाम हटवाने पड़े। इससे बड़ी विडंबना कोई नहीं कि अब कुछ कांग्रेस नेता भी हिंदी विरोध की राजनीति करते हैं, जबकि आजादी के संघर्ष के दौरान कांग्रेस के बड़े नेता भी हिंदी को जरूरी संपर्क भाषा मानते थे। अफसोस है कि हिंदी विरोधी लोगों को अंग्रेजी से कोई समस्या नहीं है।
आखिर भाषा के नाम पर हिंदी क्षेत्र में कब कोई झगड़ा-फसाद हुआ है? किसे सिर्फ भाषा के नाम पर खदेड़ा गया? लोगों को चाहे जितना भड़का दो, वे अपनी दैनंदिन जरूरतों के हिसाब से निर्णय लेते हैं। कुछ साल पहले तमिलनाडु की मेरी घरेलू सहायिका की बेटी की शादी तमिलनाडु के एक गांव में हुई। लड़की 12वीं तक पढ़ी थी। गांव में एक स्कूल में हिंदी शिक्षक की जरूरत थी।
वह वहां जाकर हिंदी पढ़ाने लगी और अच्छा पैसा कमाने लगी। वहां लोग कहते हैं कि उन्हें रोजगार के लिए अगर हिंदी भाषी क्षेत्रों में जाना है तो हिंदी आनी चाहिए। एक बार डीएमके अपने प्रचार के लिए हिंदी में पर्चे छपवा चुकी है। कई बार उनके लोग टीवी चैनलों पर आकर हिंदी में भी बोलते हैं, लेकिन विरोध के लिए कोई मुद्दा तो चाहिए।
हिंदी का चाहे जितना विरोध कीजिए, लेकिन यह हिंदी की ताकत है कि वह बढ़ती ही जाती है। आज दुनिया के डेढ़ सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। अधिकांश विदेशी एयरलाइंस अंग्रेजी के साथ-साथ अपने एनाउंसमेंट हिंदी में भी करती हैं। वर्ष 2024 में 5,235 प्रकाशकों ने 38,943 लेखकों की नब्बे हजार से अधिक पुस्तकें हिंदी में प्रकाशित की थीं। यूट्यूब पर हिंदी चौथी सबसे बड़ी भाषा है। विश्व में बोली जाने वाली भाषाओं में भी हिंदी का चौथा स्थान है। करते रहिए विलाप। हिंदी रुकने वाली नहीं है।
(लेखिका साहित्यकार हैं)














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