जीवन में सामंजस्य का अत्यंत महत्व है। दो या अनेक के मध्य बेहतर तालमेल ही सामंजस्य है। हम सभी प्रसन्न रहें और परस्पर प्रसन्नतापूर्वक व्यवहार करने के लिए तत्पर रहें, यही सामंजस्य का सूत्र है। ये सूत्र हमारे जीवन को सुख से ओत-प्रोत करते हैं, संबंधों में समरसता पैदा करते हैं और हमारे व्यक्तिगत व आंतरिक जीवन में उमंग का वातावरण उत्पन्न करते हैं। सामंजस्य के अभाव में पारिवारिक विघटन, कलह, ईष्र्या आदि दुर्भाव प्रभावी होने लगते हैं। सामंजस्य एक कला है, इस कला से व्यावहारिक जगत और आंतरिक जीवन, दोनों में सफलता हासिल की जा सकती है। जीवन में नदी की मर्यादित धारा के समान बहना ही उत्तम है। इसे तोड़ना-मरोड़ना असामान्य है, जो सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन भी है।

ध्यान रखना है कि हमें जीवन के साथ चलना है। अपनी शर्तो के अनुसार जीवन की धारा मोड़ने से ही असामंजस्य उत्पन्न होता है और ऐसा होने का कारण है-हमारा अहंकार और अत्यधिक स्वार्थपरता। ये दोनों कारण सामंजस्य की कोमल व उर्वर भूमि को बंजर बना देते हैं। इस कारण मानवीय संबंधों के सभी संवेदनशील पहलू जराजीर्ण अवस्था में पहुंच जाते हैं। व्यवहार में उत्तेजना, निरर्थक वार्ता, कटु उक्ति, क्षमा न कर पाने का हठ, सामंजस्य को ठेस पहुंचाता है। सामंजस्य दो प्रकार होता है। प्रथम प्रकार के अंतर्गत व्यक्ति, संबंधों व परिस्थितियों के साथ समायोजन स्थापित करता है। इसके लिए जरूरी है कि रिश्तों की सौदेबाजी न की जाए, व्यक्ति को वस्तु की तरह न समझा जाए, अपने ही दायरों में सीमित रहकर दूसरे की संवेदनाओं व मनोभावनाओं की उपेक्षा न की जाए। परिस्थितियों की चुनौतियों को स्वीकारते हुए और इसके अनुसार परिस्थिति व परिवेश का सूक्ष्मावलोकन कर उसके अनुरूप योजना बनाकर सामंजस्य स्थापित करना दूसरे प्रकार का सामंजस्य है। बौद्धिक व भावनात्मक शक्तियों का समुचित प्रयोग सामंजस्य के लिए अति उत्तम है। अपने अस्तित्व के साथ दूसरे के अस्तित्व की स्वीकार्यता आदर भाव उत्पन्न करती है। इसलिए मानसिक व व्यावहारिक जीवन के विकास के लिए सामंजस्य स्थापित करना महत्वपूर्ण है।

[डॉ. सुरचना त्रिवेदी]

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