प्रदीप सिंह

दशहरे के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रावण पर निशाना साधने के लिए धनुष की प्रत्यंचा खींची तो धनुष ही टूट गया। उन्होंने दूसरे धनुष की मांग या इंतजार करने की बजाय तीर को हाथ से ही फेंक दिया। यह इत्तफाकन हुई घटना इस समय की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति की ओर संकेत करती है। सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम में प्रधानमंत्री ने प्रत्यंचा इतनी ज्यादा खींच दी है कि धनुष टूट गया है? उनके विरोधी ऐसा ही मानते हैं। उनका दावा है कि पहले नोटबंदी और उसके बाद वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी लागू करके उन्होंने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर में सबसे बड़ी गिरावट के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष को आरोप की तरह पेश किया जा रहा है। अर्थव्यवस्था में समस्या है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। ये दोनों कदम उठाते समय सरकार को भी पता था कि समस्या होगी।


नरेंद्र मोदी को लेकर देश में इस समय दो तरह की भावानाएं नजर आती हैं। एक मोदी समर्थकों की, जिन्हें कहीं कोई कमी नजर नहीं आती और दूसरे मोदी से नफरत करने वालों की जिन्हें कुछ अच्छा दिखाई ही नहीं देता। कम से कम सोशल मीडिया पर तो ऐसा ही है। यदि आप मोदी के प्रशंसक (भक्त नहीं) या आलोचक (नफरत करने वाले नहीं) हैैं तो दोनों तरफ से दुत्कारे जाने के लिए हमेशा तैयार रहिए। भक्त ऐसे हैं जो मोदी का मंदिर तक बनाने को उतावले हैैं और नफरत करने वाले ऐसे हैं जिन्हें इसका दुख है कि मोदी लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए हैं। यह बात किसी पार्टी कार्यकर्ता या नेता ने नहीं कही। यह अवार्ड वापसी वाले कवि, लेखक और पूर्व नौकरशाह अशोक वाजपेयी का कथन है। हाल में सुधीश पचौरी से बातचीत में अशोक वाजपेयी ने मोदी के लोकतांत्रिक ढंग से चुने जाने पर अफसोस जताने के बाद कहा, ‘लेकिन यह भी है कि भारत में अभी लोकतंत्र बचा हुआ है, अभी संविधान बचा हुआ है, अभी भी सर्वोच्च न्यायालय बचा हुआ है। इसलिए मुझे अभी भी यह छूट है कि मेरी प्रधानमंत्री के बारे में जो राय है उसे प्रमुखता से कह सकता हूं।.. ये भी लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए हैं, पर लोकतंत्र की जो रोज अवमानना होती है। उसे अलक्षित नहीं किया जा सकता।’
यह केवल अशोक वाजपेयी की राय नहीं, पूरे लेफ्ट लिबरल समुदाय की आवाज है कि तुम भले ही लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए हो और संविधान, अदालत के साथ-साथ विरोध के हमारे अधिकार को भी तुमने बनाए रखा हो, पर हम तुम्हें स्वीकार नहीं करते। मूल समस्या यही है। फिर चाहे अर्थव्यवस्था की आलोचना हो या राजनीतिक शैली की अथवा सरकारी नीतियों की-सब पर इसी सोच की छाया है। इसलिए यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा अथवा अरुण शौरी सरकार या मोदी के खिलाफ बोलते ही खुदा के नेक बंदे हो जाते हैं। अरुण शौरी नोटबंदी का मजाक उड़ाते हुए यहां तक कह रहे हैं कि आत्महत्या भी तो साहसिक कदम है। ध्यान रहे कि इन्हीं सबके रहते 1998 से 2004 में भारत इतना ‘चमका’ कि भाजपा सत्ता से बाहर हो गई थी।
मोदी ने नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के राजनीतिक और आर्थिक खतरे को जानते हुए भी ऐसा क्यों किया, इसे समझने के लिए 2014 के जनादेश को समझना जरूरी है। मोदी को देश के मतदाताओं ने तीस साल बाद जो पूर्ण बहुमत दिया वह भ्रष्टाचार के बिना विकास का था। भ्रष्टाचार के साथ विकास तो संप्रग सरकार के समय भी हो रहा था। संप्रग के दस साल का उदाहरण मोदी के सामने था। तेज विकास और उससे ज्यादा तेजी से भ्रष्टाचार। मोदी को जनादेश अर्थव्यवस्था से भ्रष्टाचार की सफाई के लिए है। भ्रष्टाचार के खिलाफ तमाम कदमों के साथ सबसे बड़ा कदम नोटबंदी का था। यह ऐसा कदम था जो मोदी को राजनीतिक रूप से खत्म भी कर सकता था, लेकिन मोदी ने जोखिम मोल लिया। उनके विरोधी जब तलवार लहरा रहे थे तो देश का गरीब समझ रहा था कि मोदी क्या और किसके लिए कर रहे हैं? यही वजह है कि नोटबंदी के समय लाइन में खड़े होकर हर तरह की तकलीफ उठाने वालों ने राजनीतिक दृष्टि से सबसे अधिक अहमियत रखने वाले उत्तर प्रदेश में लाइन लगाकर मोदी के नाम पर वोट दिया।
नोटबंदी के झटके से अर्थव्यवस्था उबर भी नहीं पाई थी कि मोदी ने जीएसटी लागू करने का फैसला करके एक और झटका दिया। नरेंद्र मोदी की आप चाहे जितनी आलोचना करें, लेकिन उन्हें राजनीतिक नासमझ नहीं कह सकते। उन्हें भी पता था कि इन दोनों कदमों से अर्थव्यव्स्था की रफ्तार न केवल थम जाएगी, बल्कि कुछ समय के लिए नीचे भी चली जाएगी। सवाल है कि फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? इसकी दो वजहें नजर आती हैं: एक अपनी नीति पर भरोसा और दूसरे यह विश्वास कि देश के आम लोगों को उनकी नीयत पर भरोसा है। उनके सामने दो विकल्प थे। एक, भ्रष्टाचार होने दें और विकास की दर गिरने न दें। दूसरा, भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएं भले ही विकास दर गिर जाए। मोदी ने दूसरा रास्ता चुना। एक लाख मुखौटा कंपनियों का पंजीकरण रद कर दिया गया है और दो लाख संदिग्ध कंपनियों के बैंक खाते फ्रीज कर दिए गए हैैं। बैंकों से राजनीतिक रसूख और बैंक अधिकारियों से दोस्ती के आधार पर कर्ज मिलना और मुखौटा कंपनियों के जरिये उनको बाहर भेजने का धंधा बंद हो गया है। नोटबंदी ने देश के गरीब के मन में यह विश्वास जगाया है कि अवैध कमाई करने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है। सब पैसे बैंक में आ गए, इसका मतलब सब स्याह से श्वेत हो गए, ऐसा निष्कर्ष अरुण शौरी जैसे लोग निजी खुन्नस में ही निकाल सकते हैैं। यह पैसा अपने साथ पुराने काले पैसे की ट्रेल भी लेकर आया है। नोटबंदी और जीएसटी ने कांग्रेस राज में संस्थागत हो गए भ्रष्टाचार पर प्रहार किया है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को ज्यादा नैतिक, पारदर्शी और कानून का पालन करने वाले को प्रोत्साहित करने वाला कदम है। इन सुधारों के बिना तेज विकास भ्रष्टाचार की नींव पर ही खड़ा होता। मनमोहन सरकार के दस साल इसका उदाहरण हैं।
सवाल यह नहीं है कि यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी क्या बोल रहे हैैं? जब भी उन्हें लगेगा कि मोदी कमजोर हो रहे हैं वे हमला करेंगे और कांग्रेस और उसके साथी दल ताली बजाएंगे। बिहार विधानसभा चुनाव के बाद लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा के बयानों की किसी को याद है? मोदी के लिए चिंता का कारण मीडिया में उन्हें मिलने वाली तवज्जो होनी चाहिए, क्योंकि इसका एक बड़ा कारण सरकार के कई मंत्रियों का अहंकारी रवैया है जो तटस्थ लोगों को भी कट्टर विरोधी बना रहा है। मोदी को विरोधियों के हमलों से विचलित हुए बिना अपने विश्वास पर कायम रहना चाहिए, लेकिन साथ ही सत्ता के नशे में गाफिल मंत्रियों, नेताओं की नकेल कसने की भी जरूरत है और साथ ही दुष्प्रचार की सख्ती से काट करने की भी।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]