शंकर शरण। स्वतंत्र भारत की राजनीति की विडंबना संविधान की प्रस्तावना की हालत से समझी जा सकता है। यह विडंबना है: शब्दों, नारों से खेलना। उन शब्दों की गरिमा, भावना और उनसे जुड़े कर्तव्य के प्रति बेपरवाह रहना। लोकतंत्र, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता अथवा सोशलिज्म, सेक्युलरिज्म, सभी शब्दों के साथ भारत में यही होता रहा है। 1950. में बने संविधान की प्रस्तावना ने भारत को ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ कहा था। उस में 26 वर्ष बाद दो शब्द ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ जोड़ दिए गए। अब फिर 50 वर्ष बाद प्रस्तावना को पूर्ववत करने की बात कही जा रही है।

यह भी हमारे नेताओं का एक खेल साबित हो तो आश्चर्य नहीं। मूल 'प्रस्तावना' के संशोधन ने पूरे संविधान को बिगाड़ा। यह परिवर्तन 1975-76 की ‘इमरजेंसी’ के दौरान किया गया, जब केंद्रीय मंत्रिमंडल के निर्णय केंद्रीय मंत्रियों को भी रेडियो से मालूम होते थे। जब विपक्षी नेता जेल में थे और प्रेस पर सेंसरशिप थी। वह संशोधन बिना समुचित विचार-विमर्श के हुआ था। दो-चार व्यक्तियों की चतुराई से, जिन्होंने इंदिरा गांधी को इसके लिए कायल किया। यह संविधान की आमूल विकृति थी। इसके लिए चार तथ्यों पर विचार करें। पहला, देश-विदेश के संविधानविदों ने मूल प्रस्तावना को महत्वपूर्ण माना था।

प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीति-शास्त्री सर अर्नेस्ट बार्कर ने अपने ग्रंथ 'प्रिंसिपल्स आफ सोशल एंड पोलिटिकल थ्योरी' में भूमिका के स्थान पर भारतीय संविधान की पूरी प्रस्तावना उद्धृत की थी, यह कहते हुए कि उसमें सब कुछ समाहित है, जो वे अपनी पुस्तक की भूमिका के लिए कह सकते थे। दूसरे, भारत में भी राजनीति शास्त्र और कानून की कक्षाओं में प्रस्तावना को संविधान की ‘आत्मा’, ‘मूलाधार’, आदि कहा गया। उसमें छेड़छाड़ करना उसकी नींव में हस्तक्षेप करना ही हुआ।

मूलाधार बदलने की वस्तु नहीं होती। तीसरे, 1960 में सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रस्तावना को निर्देशक सूत्र बताया। मूल प्रस्तावना एक मानक स्केल, पैमाना था। स्केल में छेड़छाड़ करना किसने सुना है। चौथे, सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में भी केशवानंद भारती मामले में मूल प्रस्तावना को संविधान का ‘बुनियादी ढांचा’ घोषित किया। उसमें कोई बदलाव करना बुनियाद हिलाना था। साफ है कि प्रस्तावना में परिवर्तन ने संविधान को चौपट किया। संविधान का ‘बुनियादी ढांचा’ 1950 वाली प्रस्तावना था। इसलिए 1976 ई. में किया गया बदलाव उस पर चोट थी। इसलिए भी, क्योंकि वह धारणागत सैद्धांतिक संशोधन था।

‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्युलर’ ऐसी धारणाएं न थीं, जिनसे संविधान निर्माता अनजान थे। ये दोनों शब्द जोड़ने के मुद्दे पर तो संविधान सभा में चर्चा भी हुई थी, लेकिन उनकी जरूरत नहीं समझी गई थी। तब सोशलिज्म पूरे यूरोप का प्रसिद्ध मतवाद था, जहां से हमारे अनेक संविधान-निर्माता पढ़े थे। उनके द्वारा भारतीय गणराज्य को ‘सेक्युलर’, ‘सोशलिस्ट’ नहीं कहना सुवाचारित निर्णय था। आंबेडकर ने संविधान में उक्त दोनों शब्द जोड़ने का प्रस्ताव दो-टूक ठुकराया था।

संविधान सभा में 15 नवंबर 1948 को केटी शाह ने संविधान में 'सेक्युलर, फेडेरल, सोशलिस्ट' जोड़ने का प्रस्ताव पेश किया। इसे खारिज करते हुए आंबेडकर ने कहा था, “लोगों को किसी खास तरह की संरचना से बांधना ठीक नहीं।'' संविधान सभा की सर्वसम्मति वही रही, जो आंबेडकर ने कहा था। उन्होंने कहा था कि संविधान की धाराएं और भावना पहले ही सेक्युलर और आम जनहित भावना से ओत-प्रोत है।

इस स्पष्ट रिकार्ड के बावजूद 1976 में 42वें संशोधन द्वारा संविधान प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’, ‘सेक्युलर’ जोड़ा गया। इसका कारण कुछ और था। यह दुर्भाग्य की और समझने की बात है कि बाद में आई जनता पार्टी की सरकार, जिसमें लोहियावादी, जनसंघ, स्वतंत्र दल, आदि गैर-कांग्रेसी दल शामिल थे, ने भी प्रस्तावना की विकृति को रहने दिया। उस सरकार ने 42वें‌ संशोधन की असंख्य बातें 1978 में संविधान में 44वां संशोधन करके हटा दी थीं। इस प्रकार, संविधान की प्रस्तावना की अनदेखी करने में सभी दलों की भूमिका रही। यह ध्यान रखना चाहिए।

संविधान की प्रस्तावना में अनावश्यक बदलाव के कारण संविधान का चरित्र बदलने का काम आरंभ हुआ। इसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति में एक हिंदू विरोधी मानसिकता पनपी, जो धीरे-धीरे संपूर्ण राजनीतिक-शैक्षिक जीवन को बुरी तरह डसती गई। संविधान की प्रस्तावना में 'सेक्युलर' शब्द जोड़ देने के बाद तमाम भारतीय नेताओं ने जाने और अनजाने उसका अर्थ एवं व्यवहार भारत में हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना कर दिया। उन्होंने 'माइनारिटी' और 'सेक्युलर', इन दोनों ही शब्दों को अपनी वोट राजनीति का औजार बना लिया। इससे संविधान ही नहीं, सहज न्याय और नैतिकता का भी नाश हुआ।

यह सब अघोषित रूप से और क्रमशः धीरे-धीरे होने के कारण देश की जनता के साथ दोहरा विश्वासघात हुआ। देश के लगभग सभी दलों ने सेक्युलरिज्म और माइनारिटिज्म की आड़ में केवल गैर-हिंदुओं के लिए तरह-तरह की विशेष सुविधा, विशेष अधिकार आदि देना मौन रूप से तय कर लिया। इसलिए आम लोगों के पास उस में कोई गड़बड़ी देख सकने और उसका प्रतिकार करने का कोई साधन ही न रहा। अधिकांश नेताओं की असल मंशा समुदाय विशेष के थोक वोट लेना थी। इसके लिए उन्होंने हिंदू समाज को चुपचाप वंचित किया। इसके लिए संविधान को विकृत कर भ्रष्ट किया, ताकि अपने वोट-लोभ का एक बहाना बना रहे।

अब संविधान की प्रस्तावना की उस विकृति के अभी सुधर जाने की आशा व्यर्थ है। भारतीय राजनीति के जमे हुए अल्पसंख्यकवादी कारोबार में सभी राजनीतिक दल आकंठ डूबे रहे हैं। उससे निकलने का साहस शायद ही कोई करे। अधिक संभावना है कि इस पर शोर-गुल के बहाने सब अपनी-अपनी वोट की राजनीति की रोटी सेंकेगे। सामुदायिक भेद-भाव की बातें होंगी, तू-तू-मैं-मैं और तनातनी होगी। विभिन्न राजनीतिक दल इस नाम पर अपने-अपने पाले को मजबूत करेंगे। बस। फिर बात आई-गई हो जाएगी।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं)