परमात्मा ने हमें विचार करने के लिए मस्तिष्क दिया है। यह मस्तिष्क अमूल्य है। जब कभी हम अपने विचारों को मस्तिष्क के उचित-अनुचित की तराजू पर तौलकर उसकी उपयोगिता का मूल्यांकन करते हैं, तभी हमारे भावों की सार्थक अभिव्यक्ति होती है। बोलने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अनर्गल प्रलाप करना, दिनभर अकारण बड़बड़ाना बुरी बात है। ऐसे लोग ही परमात्मा की शक्ति का दुरुपयोग करते हैं। सच कहें तो वाणी हमारे विचारों, संस्कारों और चरित्र का अभिलेख है। किसी व्यक्ति की वाणी सुनकर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि इस व्यक्ति का चरित्र कैसा है।

जब तक आपका मुंह बंद रहता है, तब तक किसी को पता नहीं चलता कि आप क्या हो, लेकिन ज्यों ही आपका मुंह खुलता है आपके इतिहास, भूगोल की जानकारी प्रत्येक व्यक्ति को हो जाती है। बोलने से ही दूसरा व्यक्ति आपके बारे में सब कुछ जान लेता है। मैंने एक कहानी सुनी है कि किसी गांव में एक बहुत ही फूहड़ किस्म का आदमी रहता था। गांव में उसकी कोई इज्जत नहीं करता था। वह हमेशा दुखी रहा करता था। एक दिन एक संत उस गांव में आए। उस फूहड़ व्यक्ति ने संत से प्रार्थना की कि महाराज इस गांव में मेरी कोई इज्जत नहीं करता। संत ने विचार करके कहा कि आज से तुम चुप रहना सीखो और आवश्यकता पडऩे पर ही कुछ बोलो। उसने संत की बात मान ली और उस दिन से चुप रहने लगा। केवल चुप रहने से ही गांव के लोग उसे समझदार व्यक्ति मानने लगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह अकारण बक-बक नहीं करता था। लोगों को समझ में आ गया कि वह समझदार व्यक्ति हो गया है। अब कभी भी वह बकवास नहीं करता। इसलिए संत हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि अकारण बोलकर दुख आमंत्रित मत करो, क्योंकि आपको कुछ पता नहीं है कि आपकी किस बात का क्या प्रभाव पड़ सकता है और आपकी किस बात से व्यक्ति को चोट लग सकती है। एक बार जब किसी व्यक्ति को आपकी बातों से चोट लग जाए, तो उसकी मरम्मत आप नहीं कर सकते। कहते हैं शरीर की चोट तो मनुष्य भुला देता है, लेकिन बात की चोट वह कभी नहीं भूल पाता। बात की चोट से जो शत्रुता उत्पन्न होती है, उसे मित्रता में बदलना बहुत कठिन है। बहुत गहरा मित्र भी आपकी बात से घायल होकर आपका शत्रु बन सकता है। इसलिए संत वाणी के संयम और उसके सदुपयोग का उपदेश देते हैं।

[आचार्य सुदर्शन महाराज]