अश्विनी कुमार

2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में आया विशेष अदालत का फैसला कई पैमानों पर बेहद अहम है। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि साक्ष्यों के अभाव में यह मामला कहीं नहीं ठहरता और इसमें किसी भी तरह के ‘उच्चस्तरीय राजनीतिक भ्रष्टाचार’ के सुराग नहीं मिलते। उसने राजनीतिक पूर्वाग्र्रह से लगाए गए आरोपों और विधिक अभियोजन में भी कानूनी रूप से स्वीकार्य तथ्यों के आधार पर भी अंतर स्पष्ट किया। न्यायाधीश ओपी सैनी ने निष्कर्ष निकाला कि ‘हर कोई आम धारणा से प्रभावित हो रहा था जो अफवाह, कल्पना और अटकलबाजियों पर आधारित था’ लेकिन ‘विधिक कार्यवाही में उनके लिए कोई स्थान नहीं था।’ इस तरह देखा जाए तो यह फैसला बेवजह के आरोपों के मुकाबले मुकदमे की उचित एवं पारदर्शी सुनवाई के सिद्धांत की अनूठी मिसाल है। अदालत ने अपने आदेश में उसी रुझान को पुष्ट किया जो हमारे विधिक शब्दकोश का अभिन्न हिस्सा सा बनता जा रहा है कि मीडिया ट्रायल (किसी मामले को मीडिया द्वारा मनमाने आक्रामक तरीके से पेश करना) कैसे विधि के सिद्धांतों के खिलाफ है। यह संविधान के आधारभूत ढांचे का मखौल उड़ाता है। न्यायाधीश सैनी का यह कथन ही अपने आप में बहुत कुछ कहता है कि वह पिछले सात वर्षों से साक्ष्यों की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कानूनी आधार पर कुछ ठोस पेश किया जाएगा जिससे अभियोजन को कुछ ताकत मिले। न्यायाधीश ने अपेक्षा के अनुरूप कथ्य पर तथ्य को ही तरजीह दी। उन्होंने प्रक्रियागत व्यवस्था और न्यायिक स्वतंत्रता के उसी भाव को प्रदर्शित किया जो विधि के शासन द्वारा पुष्ट होता है। प्रसिद्ध अंग्र्रेज विद्वान विलियम हैजलेट की कही गई एक बात भी अक्सर इस संदर्भ में पेश की जाती है कि ‘मिथ्या आरोपों को किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होती।’


विशेष अदालत का फैसला अपने आप में कई तरह से खास है। मसलन यह अपनी स्पष्टता और बेबाकी के लिए याद किया जाएगा, जहां अभियोजक किसी भी आरोपी को अपराधी साबित करने में बुरी तरह नाकाम रहे। मामले के व्यापक राजनीतिक निहितार्थ हैैं और ऐसे मामलों की निगरानी स्वयं शीर्ष अदालत की निगरानी में होने जैसे तथ्यों को देखते हुए ऐसी स्पष्टवादिता बुलंद न्यायिक तंत्र को ही दर्शाती है। हालांकि इस बात की पूरी संभावना है कि इस आदेश के खिलाफ अपील की जाएगी, फिर भी प्रक्रियागत न्याय की पवित्रता और न्यायिक प्रक्रिया की ईमानदारी में इसकी महत्ता की अनदेखी नहीं की जा सकती। इस फैसले से कुपित लोगों ने प्रतिक्रिया में इस निर्णय की सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2जी मामले में आए फैसले से तुलना करने की जो कोशिश की है वे शायद इस परिप्रेक्ष्य में शीर्ष अदालत के क्षेत्राधिकार को लेकर संशय की स्थिति में हैं। इस मामले में शीर्ष अदालत का विशिष्ट रिट क्षेत्राधिकार दूरसंचार विभाग यानी डीओटी द्वारा अपनाई गई ‘पहले आओ, पहले पाओ’ वाली नीति के संदर्भ में था जिसे विभाग ने यूएएस लाइसेंस जारी करने के लिए आधार बनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य रूप से इसी आधार पर लाइसेंस रद किए थे कि उनके आवंटन में तार्किक और निष्पक्ष मानदंडों की अनदेखी की गई जो संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदान किए गए और समानता के अधिकार का अभिन्न अंग हैं।
यह नहीं भूलना चाहिए कि शीर्ष अदालत को अपराध सिद्ध करने के लिए नहीं कहा गया या कहा जा सकता है, क्योंकि वह ‘कोर्ट ऑफ फैक्ट’ है। यहां यह स्मरण कराना भी उपयोगी होगा कि इसी तरह के मामले में अनुच्छेद 14 के आधार पर कोयला खदानों का आवंटन रद करते हुए भी तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश लोढ़ा ने इसके निहितार्थों के संभावित गलत अर्थ निकालने से बचने के लिए फैसले में यह जाहिर नहीं किया था कि मामले में कथित आपराधिक संलिप्तता पर अदालत की कोई राय है। सीधे शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ने इसी आधार पर कोयला खदानों का आवंटन तो रद किया, लेकिन कथित आपराधिक लिप्तता पर कुछ नहीं कहा। इसी तरह 2जी मामले में संविधान पीठ ने भी उसमें खंडपीठ के फैसले को स्पष्ट किया था। उसमें राज्य के प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी के जरिये आवंटन पर संविधान पीठ के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीके जैन ने कहा था, ‘प्राकृतिक संसाधनों के मामले में अपनाई गई कोई भी प्रक्रिया स्पष्ट रूप से आर्थिक नीति के तहत आती है। इसमें निश्चित रूप से आर्थिक विकल्प शामिल होते हैं और इन मामलों में अदालत के पास आवश्यक विशेषज्ञता का अभाव है।’ उसका सार था, ‘जैसा कि बार-बार दोहराया गया है कि यह इस अदालत का काम नहीं हो सकता और न ही होगा कि वह प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के लिए नीलामी और दूसरे अन्य विकल्पों का आकलन करे। अदालत किसी एक विकल्प को नजीर के तौर पर पेश नहीं कर सकती कि किसी भी सूरते हाल में उसका ही पालन किया जाए।’
इस प्रकार 2जी मामले में सुप्रीम कोर्ट के पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार को देखते हुए इस मामले में देश की सर्वोच्च अदालत और निचली अदालत के निर्णय में असंगति देखना पूरी तरह निरर्थक है। शीर्ष अदालत ने जहां सरकार के नीतिगत निर्णय में पारदर्शिता, तार्किकता और सभी को समान अवसर देने जैसी संवैधानिक बाध्यताओं को कसौटी पर कसा तो भ्रष्टाचार और अपराध सिद्ध करने का अधिकार विशेष रूप से निचली अदालत के दायरे में आता है। विशेष अदालत के फैसले से मुश्किल में फंसने वालों की राजनीतिक मजबूरियों को किनारे भी कर दें तो यह फैसला बुनियादी संवैधानिक सवाल खड़े करता है। यह सवाल यही है कि हम संवैधानिक विधिशास्त्र के अनुरूप आधारभूत नियमों को कैसे लागू करेंगे, क्योंकि अफवाहों के इस दौर में तो आरोप लगते ही किसी को अपराधी मान लिया जाता है। क्या सूचना के अधिकार और अभिव्यक्ति के अधिकार को इतना खींच दिया जाए जिससे मानवीय गरिमा के साथ बार-बार समझौता करना पड़े जबकि संवैधानिक अधिकारों में उसे खासी अहमियत दी गई है? इसी तरह क्या मीडिया ट्रायल द्वारा शुरू की गई ‘न्याय की परिपाटी’ को मात दी जा सकती है?
अगर इसकी वजह से किसी को अंतहीन दर्द के दौर से गुजरना पड़े, उसकी प्रतिष्ठा तार-तार हो जाए और उसकी सामाजिक हैसियत घट जाए तो उसके लिए क्या सहारा हो सकता है, खासकर तब जब महज आरोपों के चलते ही उसे अपराधी की तरह देखा जाने लगे। विशेषकर समाज में संदिग्ध माने जाने वाले मामलों में तो स्थिति और खराब हो जाती है। हमें स्वयं से भी निश्चित रूप से सवाल करने चाहिए कि अगर निराधार आरोपों से हमारी संस्थागत निष्ठा और लोकतांत्रिक संस्थानों पर इसी तरह से हमले होते रहे तो क्या देश में राजनीतिक लोकतंत्र अपना अस्तित्व बचाए रख सकता है? इन परेशान करने वाले, लेकिन आवश्यक प्रश्नों का उत्तर ही हमारे भविष्य और संवैधानिक लोकतंत्र के साथ ही विधि के उस शासन के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को भी तय करेगा जिसका गुणगान करते हम थकते नहीं हैं।
[ लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री हैैं ]