बाजार के शिकंजे में सिविल सेवा परीक्षा, कोचिंग संस्थानों के मायाजाल के सामने विवेक ने हथियार डाल दिए हैं
देश में सिविल सेवा परीक्षा के एक ऐसे सम्मोहक मायाजाल की रचना कर दी गई है जिसके सामने विवेक ने हथियार डाल दिए हैं। पात्रता और योग्यता का अंतर मिट गया है। इसके लिए सालों-साल कोशिश करने के बावजूद सफलता से कोसों दूर रहने के बाद भी वे युवा निर्णय पर तर्कपूर्ण तरीके से पुनर्विचार करने को तैयार नहीं होते।
डा. विजय अग्रवाल। पिछले दिनों एक फिल्म आई ‘12वीं फेल’। यह चंबल क्षेत्र के गांव में रह रहे एक ऐसे निम्न-मध्य वर्ग के युवक के आइपीएस अधिकारी बनने की कहानी है, जो नकल न कर पाने के कारण 12वीं में फेल हो गया था। ध्यान देने की बात यह है कि यह फिल्म उसके जीवन पर आधारित है। इसके आधार पर फिल्मकार को फिल्म में वह सब कुछ मसाला डालने का मौका मिल जाता है, जो दर्शकों की आंखों में आंसू लाने और उन्हें तालियां बजाने को मजबूर कर दे। ऐसी स्थिति में किसी भी रचना का सामाजिक सरोकार संदिग्ध हो जाता है।
पिछले कुछ वर्षों से संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी द्वारा देश की सबसे प्रतिष्ठित मानी जाने वाली प्रशासनिक सेवाओं के लिए आयोजित सिविल सेवा परीक्षा काफी चर्चा में है। यह चर्चा कमजोर पृष्ठभूमि के युवाओं द्वारा प्राप्त की गई सफलताओं से लेकर यूपीएससी द्वारा सिविल सेवा परीक्षा को एक वर्ग विशेष के लिए लाभदायक बना देने तक फैली हुई है। अच्छी बात यह है कि डेढ़-दो दशक पूर्व तक लोगों के लिए लगभग अनजान-सी रही यह परीक्षा अब गांव-गांव तक के लोगों तक पहुंच गई है।
वर्ष 1979 में पहली बार अंग्रेजी के आधिपत्य को तोड़कर सिविल सेवा परीक्षा के द्वार अन्य भारतीय भाषाओं के लिए खोल दिए गए थे। इससे ठीक पहले हर वर्ष लगभग 600-700 पदों के लिए तीस हजार के करीब युवा आवेदन करते थे। इनमें बैठने वालों की संख्या करीब 16-17 हजार होती थी। अब पदों की संख्या अधिकतम एक हजार के आसपास है। इसके लिए लगभग 12 लाख युवा आवेदन करते हैं, जिनमें से करीब साढ़े पांच लाख परीक्षा में बैठते हैं। यह सिविल सेवा परीक्षा के लोकतंत्रीकरण का एक प्रमाण है।
यह अर्थशास्त्र का सिद्धांत है कि जैसे ही किसी को कहीं संभावना नजर आती है, वह अपने लिए बाजार तैयार करने में लग जाता है। चूंकि बाजार के अस्तित्व के लिए उपभोक्ताओं की संख्या का पर्याप्त होना प्राथमिक शर्त होती है, इसलिए उसका एक काम यह भी होता है कि वह अपने लिए नए-नए उपभोक्ता तैयार करे। ऐसा करने में आज यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म भी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। सिविल सेवक को ऐसे ग्लैमरस तरीके से पेश किया जा रहा है, जो सत्य से परे है।
उदाहरण के तौर पर किसी सर्किट हाउस को कलेक्टर के निवास के रूप में दिखाना। यहां तक कि सेलेब्रिटी बनने के मोह में कुछ आइएएस अफसर बालीवुड के सदस्यों की तरह अपनी गतिविधियों को इंटरनेट मीडिया पर पेश कर रहे हैं। इन सबसे बाजार ने युवाओं की आंखों में आइएएस बनने के सपनों की फसल बोने में सफलता प्राप्त कर ली है।
चूंकि इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाओं की कोचिंग का माडल पहले से ही मौजूद था, इसलिए आइएएस की परीक्षा की तैयारी कराने के लिए किसी स्वरूप पर विचार करने की कोई बहुत अधिक आवश्यकता नहीं पड़ी। धीरे-धीरे जगह-जगह कोचिंग सेंटर खड़े होने लगे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के स्वरूप से लेकर छोटे-छोटे ट्यूशन टाइप के संस्थान तक। इन सबके मिले-जुले प्रयासों ने युवाओं के मन में यह बात बैठाने में सफलता प्राप्त कर ली कि कोचिंग के बिना इस कठिन परीक्षा की वैतरणी को पार करना उनके लिए लगभग असंभव है।
बाजार तरह-तरह से यह बताकर कि ‘तुमसे यह न हो सकेगा’, उपभोक्ताओं के आत्मविश्वास को कमजोर करता है। स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए वह सरल-सी प्रक्रिया को भी पहले अत्यंत जटिल बनाता है। फिर उसका समाधान प्रस्तुत करता है। वर्तमान में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के स्वरूप का इतना मशीनीकरण कर दिया गया है कि परीक्षा की तैयारी करने वाला युवा कोचिंग के अभाव में स्वयं को अत्यंत असहाय पाने लगा है। इससे न केवल युवाओं के बीच सफल होने की गला-काट प्रतियोगिता बढ़ गई है, बल्कि ऐसी प्रतियोगिता कोचिंग संस्थानों के बीच भी होने लगी है।
येन-केन-प्रकारेण किसी भी हालत में युवाओं को अपने यहां दाखिला लेने के लिए आकर्षित करने की होड़ शुरू है। परीक्षा के परिणाम घोषित होते ही सफल उम्मीदवारों को अपने यहां का विद्यार्थी बताकर उनकी सफलता का श्रेय लेने की प्रवृत्ति ने विज्ञापन को काफी कुछ हास्यास्पद बना दिया है। इसके फलस्वरूप कुछ दिनों पहले ही केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण ने कुछ कोचिंग संस्थानों पर आइएएस बनाने का हवा-हवाई दावा करने के आरोप में आर्थिक जुर्माना लगाया तो कई को नोटिस भेजा।
यहां एक सीधा-सा प्रश्न यह उठता है कि जब कोचिंग संस्थान सफल उम्मीदवारों के नाम और उनकी बड़ी-बड़ी तस्वीरें अखबारों और पत्रिकाओं में छापकर उन्हें अपने यहां का छात्र बता रहे होते हैं तो ताजे-ताजे सिविल सेवक बने हमारे युवा इस पर आपत्ति क्यों नहीं करते? उनकी चुप्पी मन में संदेह पैदा करती है। जहां तक मेरी जानकारी है, वर्ष 2018 बैच के टापर कनिष्क कटारिया एकमात्र ऐसे युवा थे, जिन्होंने सीधे-सीधे इस तरह के विज्ञापन को नकारते हुए उस पर आपत्ति जताई थी।
देश में सिविल सेवा परीक्षा के एक ऐसे सम्मोहक मायाजाल की रचना कर दी गई है, जिसके सामने विवेक ने हथियार डाल दिए हैं। पात्रता और योग्यता का अंतर मिट गया है। सालों-साल कोशिश करने के बावजूद सफलता से कोसों दूर रहने के बाद भी वे अपने निर्णय पर तर्कपूर्ण तरीके से पुनर्विचार करने को तैयार नहीं होते। ‘12वीं फेल’ फिल्म की ‘हार नहीं मानूंगा’ जैसी पंक्तियां उन्हें उकसाती रहती हैं, लेकिन वह थोड़े समय तक ही टिकती है। इसके बावजूद बाजार अपने पूरे जोर पर है। साथ ही युवाओं का जोश भी। अब प्रतीक्षा एक ऐसी फिल्म की है, जो नौजवानों के विवेक को जागृत करके सही निर्णय लेने में उनकी सहायता कर सके।
(लेखक सिविल सेवक रहे हैं)














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