भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की चुनौतियां, लक्ष्य कठिन है लेकिन असंभव नहीं
स्वतंत्रता के बाद से आर्थिक मोर्चे पर भारत ने लंबी यात्रा तय की है। वह नामिनल जीडीपी के लिहाज से दुनिया की पांचवीं क्रय शक्ति समानता यानी पीपीपी के आधार पर तीसरी और दुनिया की सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है।
जीएन वाजपेयी : इस बार स्वतंत्रता दिवस का अवसर विशेष था। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संबोधन भी विशिष्टता लिए हुए था। परंपराओं से हटकर प्रधानमंत्री का भाषण तात्कालिक न होकर भविष्योन्मुखी था। उन्होंने अगले 25 वर्षों में अमृत काल के दौरान भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का आह्वान कर लोगों से योगदान की अपील की। इसके लिए उन्होंने पांच प्रण लेने को कहा। भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के साथ मिली थी, जबकि ऐतिहासिक रूप से देखें तो अतीत में भारत लंबे समय तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रहा। उसे सोने की चिड़िया कहा जाता था। ब्रिटेन समेत तमाम यूरोपीय देशों ने भारत से व्यापार की पींगें बढ़ाकर अपनी आर्थिकी को समृद्ध किया। यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि ये व्यापारी ही उसके नीति-नियंता बन गए, जो उसे लूट-खसोटकर धन-संपदा साथ ले गए और अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया।
स्वतंत्रता के बाद से आर्थिक मोर्चे पर भारत ने लंबी यात्रा तय की है। वह नामिनल जीडीपी के लिहाज से दुनिया की पांचवीं, क्रय शक्ति समानता यानी पीपीपी के आधार पर तीसरी और दुनिया की सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। अब यह एक मध्यम आय बाजार अर्थव्यवस्था है। इसके बावजूद अभी भी करोड़ों भारतीय अपने आर्थिक उत्थान की प्रतीक्षा में हैं।
प्रधानमंत्री मोदी का पहला प्रण ही प्रत्येक भारतीय की आंखों से आर्थिक दुश्वारियों के आंसू पोंछने पर केंद्रित है। नेताओं का सोच और गतिविधियां दो धुरियों पर केंद्रित होती हैं। एक धुरी अतीत और भविष्य के बीच में होती है और दूसरी नेतृत्वकर्ताओं के मूल्यों और आकांक्षाओं से जुड़ी हुई। आकांक्षी भारत बेचैन है। मोदी को ऐसे भारत की राजनीतिक समझ है। राष्ट्र के नेता के रूप में उन्होंने पहले मूल्यों और सिद्धांतों का उल्लेख किया और फिर वह कहा जिसे सुनने के लिए भारत प्रतीक्षारत है। देश को प्रेरित करने की रणनीति के तहत नेताओं को संवाद के माध्यम से दुविधाओं को दूर करना होगा। उद्देश्यों को समझाना होगा।
नीतियों को बनाने और उन्हें सिरे चढ़ाने की दिशा में मोदी की टीम आठ वर्षों से अनथक रूप से सक्रिय है। उन्होंने जीएसटी, आइबीसी, रेरा और एमपीसी जैसे बड़े ढांचागत सुधारों को मूर्त रूप देने के लिए भारी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगाई। इसके साथ ही गतिशक्ति, डिजिटलीकरण, जैम और ई-गवर्नेंस के माध्यम से मोबिलिटी, लागत घटाव, सुविधा और वितरण पर ध्यान केंद्रित किया। हालांकि अगले 25 वर्षों में भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए और प्रयास करने होंगे। इसमें संस्थागत ढांचे, संसाधन आवंटन और वितरण तंत्र पर व्यापक रूप में नए सिरे से ध्यान देना होगा।
अमूमन 12,000 से 15,000 डालर की प्रति व्यक्ति जीडीपी के आधार पर अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं को विकसित राष्ट्र की श्रेणी में जगह मिल जाती है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 2047 तक भारत की जनसंख्या 164 करोड़ तक पहुंच सकती है। इसलिए यदि भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्रों की पांत में शामिल होना है तो उस समय भारत की आर्थिकी करीब 20 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर होनी चाहिए, जो फिलहाल 3.2 ट्रिलियन डालर है। यानी 25 वर्षों में जीडीपी को छह गुना अधिक बढ़ना पड़ेगा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है? मेरा जवाब होगा कि यह मुश्किल अवश्य है, लेकिन असंभव बिल्कुल नहीं।
भारत की पहचान एक उद्यमी समाज के रूप में बन रही है। फिलहाल वह नवउद्यमों और यूनिकार्न्स का दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा ठिकाना बन गया है। यूनिकार्न एक अरब डालर मूल्यांकन वाले उपक्रम होते हैं। यह संतुष्टि का विषय है कि हमारे स्टार्टअप तंत्र को नया रूप-स्वरूप दिया गया है। भारत के लाखों युवा नौकरी पाने की जगह नौकरी देने वाले बनने के इच्छुक और इस दिशा में प्रयासरत हैं। ऐसे में अगले 25 वर्षों के दौरान 10,000 यूनिकार्न के सृजन की व्यापक योजना बनाना उचित होगा। वहीं कुछ सौ डेकाकोर्न की योजना भी बनाई जानी चाहिए। डेकाकोर्न 10 अरब डालर मूल्यांकन वाले उपक्रम होते हैं। ये अकेले जीडीपी में 12 ट्रिलियन डालर जोड़ सकते हैं। नास्काम के अनुसार भारत के करीब 66 यूनिकार्न ने 33 लाख लोगों को रोजगार दिया है। यानी एक यूनिकार्न औसतन 5000 नई नौकरियां सृजित करती है। ऐसे में 10,000 यूनिकार्न में अगले 25 वर्षों में पांच करोड़ रोजगार सृजन करने की संभावनाएं होंगीं।
देश में कई एक्सप्रेसवे पहले ही बनकर तैयार हो गए हैं। कुछ तैयार होने के पड़ाव हैं और तमाम की योजना बनाई जा रही हैं। राज्यों को इन एक्सप्रेसवे के इर्दगिर्द दो से दस लाख की आबादी के लिए अत्याधुनिक टाउनशिप विकसित करनी चाहिए। प्रत्येक टाउनशिप कुछ क्षेत्रों के लिए विशेष केंद्र (हब) बननी चाहिए। इन टाउनशिप में बिजली और ब्राडबैंड कनेक्टिविटी जैसी सुविधाओं के अतिरिक्त चयनित क्षेत्रों के लिए आधुनिक औद्योगिक केंद्र भी बनाने होंगे। प्रत्येक उद्यमी को पर्याप्त गुंजाइश एवं कारगर ढांचा प्रदान करना होगा। कुल मिलाकर राष्ट्र को सब्सिडी, अनुदान या रियायती दरों पर कर्ज उपलब्ध कराने के बजाय जोखिम लेने वाले साझेदार की भूमिका में आना होगा।
सिलिकन वैली उद्यमिता की व्यापक सफलता गाथा की जीवंत प्रतीक है। भारत में राज्यों के वित्तीय संसाधनों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) भी एक पूरक हो सकता है। यहां तक कि टाउनशिप विकसित करने में भी। सावरिन वेल्थ फंड्स और पेंशन फंड्स प्रतिफल की चाह में प्राइवेट इक्विटी नेटवर्क्स के माध्यम से पैसा जमा कर रहे हैं। उन्हें इस कवायद में लंबी दूरी का साझेदार बनाया जा सकता है।
किसी नेता के उद्देश्यों की सफलता राज्य की अनिवार्य शक्ति पर नहीं, बल्कि उस प्रण को धरातल पर उतारने में तात्कालिक प्रेरक प्रोत्साहन पर निर्भर करती है। वस्तुत:, प्रेरणा उन योजनाओं और कार्यक्रमों पर टिकी होती है, जो उनके फलीभूत होने की राह में उभरती हैं। मोदी अपने स्तर पर बखूबी कमान संभाले हुए हैं, लेकिन उनकी बातों को प्रेरणा में भी रूपांतरित होना होगा। विकसित भारत ही परम लक्ष्य होना चाहिए।
(लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)














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