जागरण संपादकीय: संकट के दौर से गुजरती भाजपा, अब विपक्ष के झूठे-सच्चे विमर्श पर सत्तापक्ष देता है प्रतिक्रिया और सफाई
राजनीति में नैरेटिव का बहुत महत्व होता है। पहले सत्तापक्ष कोई विमर्श खड़ा करता था और विपक्ष प्रतिक्रिया एवं सफाई देता था। अब विपक्ष एक के बाद एक विषयों पर झूठे-सच्चे विमर्श खड़ा करता है और सत्तापक्ष प्रतिक्रिया और सफाई देने की मुद्रा में दिखता है। आखिर इसे भाजपा और मोदी सरकार का संकटकाल न कहा जाए तो क्या कहा जाए?
राजीव सचान। मोदी सरकार को अपना तीसरा कार्यकाल पूरा किए हुए अभी सौ दिन भी नहीं हुए हैं, लेकिन इतनी अल्पावधि में ही उसे कई फैसलों पर अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं। इसके कारण उसे यू-टर्न सरकार कहा जा रहा है। सरकार के साथ भाजपा को भी यू-टर्न लेने पड़ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के लिए 44 प्रत्याशियों की सूची को पार्टी ने जिस तरह वापस लिया, वह यू-टर्न ही है।
इससे पार्टी की अनुशासित छवि को तो धक्का लगा ही, उसकी फजीहत भी हुई। भाजपा को यह सूची इसलिए वापस लेनी पड़ी, क्योंकि एक तो कई पुराने नेताओं को टिकट नहीं दिए गए और दूसरे, अन्य दलों से आए नेताओं को प्रत्याशी बना दिया गया। इसका विरोध इतना अधिक हुआ कि भाजपा को दो घंटे के अंदर ही सूची वापस लेनी पड़ी और नई सूची में 44 के स्थान पर 16 नाम ही घोषित किए गए।
हो सकता है कि शेष 28 नाम घोषित कर भाजपा असंतोष को दूर करने में समर्थ हो जाए, लेकिन इससे इतना तो पता चल ही गया कि पार्टी ने इससे कोई सबक नहीं सीखा कि उसे लोकसभा चुनावों में दूसरे दलों के नेताओं को प्रत्याशी बनाने के कैसे बुरे नतीजे भुगतने पड़े थे?
जिस दिन भाजपा ने जम्मू-कश्मीर के अपने प्रत्याशियों की सूची वापस ली, उसी दिन उसने कृषि कानून विरोधी आंदोलन को लेकर दिए गए कंगना रनौत के बयान से न केवल किनारा किया, बल्कि उन्हें चुप रहने की हिदायत भी दी।
कंगना ने कहा था, ‘उक्त आंदोलन में लाशें लटक रही थीं, दुष्कर्म हो रहे थे। कृषि कानूनों को वापस ले लिया गया, अन्यथा उपद्रवियों की कुछ वैसी हो योजना थी, जैसा उन्होंने बांग्लादेश में किया।’ हरियाणा विधानसभा चुनाव के चलते कंगना का बयान मौके की नजाकत को देखते हुए भाजपा के लिए उपयुक्त नहीं था, लेकिन उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा।
उक्त आंदोलन के दौरान पंजाब के दलित युवक लखबीर सिंह की हथेली काटकर सचमुच उसका शव बैरिकेड पर टांग दिया गया था। यह भी तथ्य है कि आंदोलन में शामिल होने आई एक युवती को दुष्कर्म का शिकार बनाया गया था। इसी आंदोलन में हरियाणा के एक युवक मुकेश को जलाकर मार दिया गया था और इससे तो सभी अवगत हैं कि 26 जनवरी, 2021 को ट्रैक्टर परेड के बहाने लाल किले पर धावा बोलकर किस तरह हिंसा का नंगा नाच किया गया था।
इस परेड के पहले राकेश टिकैत ने धमकी दी थी कि ट्रैक्टर रोके गए तो ‘बक्कल उतार दिए जाएंगे।’ इन्हीं टिकैत ने हाल में कहा कि ट्रैक्टर परेड वाले दिन लाल किले के बजाय संसद की ओर कूच कर जाते तो उसी दिन देश का हाल बांग्लादेश जैसा हो गया होता। एक तरह से राकेश टिकैत ने कंगना की बात पर मुहर लगाई। यह भी किसी से छिपा नहीं कि कृषि कानून विरोधी आंदोलन में किसानों के बीच पेशेवेर आंदोलनकारी भी सक्रिय थे। इसी कारण खुद प्रधानमंत्री ने उन्हें आंदोलनजीवी कहा था।
कंगना के बयान पर कांग्रेस ने कहा कि भाजपा उन्हें पार्टी से निकाले। पता नहीं भाजपा कांग्रेस से यह क्यों नहीं पूछ सकी कि क्या उसने सलमान खुर्शीद को निकाला, जो कह रहे थे कि जैसा बांग्लादेश में हो रहा है, वैसा ही भारत में हो सकता है। भाजपा चाहती तो आसानी से कंगना के बयान को उनका निजी बयान बताकर पल्ला झाड़ लेती, जैसा दूसरे दल करते रहते हैं, लेकिन उसने यह भी कहा कि कंगना नीतिगत विषयों पर बोलने को न तो अधिकृत हैं और न ही उन्हें इसकी अनुमति है।
भाजपा को जम्मू-कश्मीर के प्रत्याशियों की सूची वापस लेने और कंगना को हिदायत देने का काम ऐसे समय करना पड़ा, जब मोदी सरकार एकीकृत पेंशन योजना यानी यूपीएस लाकर विपक्ष के हाथों से एक मुद्दा छीनने में सफल ही हुई थी।
कहना कठिन है कि कंगना को चुप कराने से भाजपा को हरियाणा में कितना लाभ होगा, लेकिन जो आसानी से कहा जा सकता है, वह यह कि भाजपा राजनीतिक रूप से कमजोर और किंकर्तव्यविमूढ़ सी दिखने लगी है। जो स्थिति पार्टी की है, वही मोदी सरकार की भी। यह सरकार केवल वक्फ अधिनियम में संशोधन विधेयक को संसद की संयुक्त संसदीय समिति को भेजने के लिए ही राजी नहीं हुई, बल्कि उसे ब्राडकास्ट विधेयक भी वापस लेना पड़ा। लेटरल एंट्री के मामले में तो उसे सहयोगी दलों और साथ ही विपक्षी दलों के भी दबाव के आगे झुकना पड़ा।
इसके लिए भी वह अन्य किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती। उसे यह सामान्य सी जानकारी होनी ही चाहिए थी कि जब विपक्ष पहले से ही संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने का दुष्प्रचार करने में लगा हुआ है और उसे नुकसान भी पहुंचा चुका है, तब लेटरल एंटी को लेकर तो वह पक्का शोर मचाएगा। आखिर उसे यह समझ क्यों नहीं आया कि कम से कम लेटरल एंट्री पर सहयोगी दलों को तो भरोसे में लेकर ही आगे बढ़ना बेहतर होता?
समस्या केवल यह नहीं कि 240 लोकसभा सीटों पर सिमट जाने के कारण भाजपा और मोदी सरकार पहले जितनी सक्षम नहीं। समस्या यह भी है कि वह नैरेटिव के मोर्चे पर लगातार पिट रही है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि जाति जनगणना या फिर एससी-एसटी आरक्षण के उपवर्गीकरण पर क्या कहना चाहिए?
राजनीति में नैरेटिव का बहुत महत्व होता है। पहले सत्तापक्ष कोई विमर्श खड़ा करता था और विपक्ष प्रतिक्रिया एवं सफाई देता था। अब विपक्ष एक के बाद एक विषयों पर झूठे-सच्चे विमर्श खड़ा करता है और सत्तापक्ष प्रतिक्रिया और सफाई देने की मुद्रा में दिखता है। आखिर इसे भाजपा और मोदी सरकार का संकटकाल न कहा जाए तो क्या कहा जाए?
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।