[ डॉ. एके वर्मा ]: प्राचीन काल से ही मान्यता रही है कि प्रत्येक बुराई के पीछे कुछ अच्छाई भी होती है और हर एक संकट से समाज और सशक्त होकर निकलता है। कोरोना संकट ने दुनिया में त्राहि-त्राहि मचा रखी है। सभी देशों की सरकारें उससे लड़ने की कोशिश कर रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लॉकडाउन और शारीरिक दूरी के सुझावों को लोगों ने जिस तरह स्वेच्छा से स्वीकार किया वह न केवल प्रधानमंत्री की जन स्वीकार्यता और विश्वसनीयता दर्शाता है, वरन जनता की विवेकशीलता को भी इंगित करता है।

कोरोना से लड़ने में मोदी की प्रो-एक्टिव रणनीति की सफलता में लोक उपक्रमों ने अग्रणी भूमिका निभाई

कोरोना आपदा से लड़ने में प्रधानमंत्री मोदी की प्रो-एक्टिव रणनीति की प्रशंसा भी हो रही है, लेकिन इस रणनीति की सफलता में उन लोक उपक्रमों और सरकारी संस्थाओं ने अग्रणी भूमिका निभाई जिनकी छवि जनमानस में बहुत अच्छी नहीं थी। पुलिसकर्मी, प्रशासनिक तबका, सफाईकर्मी, स्वास्थ्यकर्मी के व्यवहार और कर्तव्यपरायणता पर बहुत प्रश्नचिन्ह थे जो स्वतंत्रता के बाद से ही लगे हुए थे।

उदारीकरण, निजीकरण से लोक उपक्रमों और सरकारी संस्थाओं का हुआ पतन शुरू

1990 के दशक में जब प्रधानमंत्री नरसिंह राव और वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की बयार से देश को लाइसेंस, परमिट, कोटा राज से बाहर निकालने की पहल की और भारत को विश्व के बाजार के रूप में खोल दिया तो देश में लोक उपक्रमों और सरकारी संस्थाओं के पतन का युग भी तेजी से शुरू हुआ। यह पतन सबसे पहले सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों में दिखा।

अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण से सरकारी संस्थाओं में अयोग्यता को बढ़ावा मिला

चूंकि उसी समय अन्य पिछड़े वर्ग का आरक्षण भी लागू किया गया अत: अनेक लोगों में यह भाव भी आया कि आरक्षण की आड़ में सरकारी संस्थाओं में सरकार अयोग्यता को बढ़ावा दे रही है। इसका प्रमाण भी देखने को मिला जब जिलों के सरकारी अस्पताल और राजकीय विद्यालय जनता की अंतिम पसंद होने लगे। इसका एक कारण यह भी था कि निजी क्षेत्र में सुविधा संपन्न महंगे स्कूल और अस्पताल खुल गए और अपनी आर्थिक स्थिति में आई बेहतरी से मध्यम वर्ग उनकी ओर आकृष्ट हो चला, लेकिन लोक उपक्रमों और सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और प्रदूषित कार्य संस्कृति के कारण जनता में उनकी छवि गिरती गई। इसी परिप्रेक्ष्य में निजीकरण के चलते अनेक महत्वपूर्ण लोक उपक्रमों में विनिवेश की प्रक्रिया शुरू हो गई।

रसूख वालों ने बैंकों से खूब ऋण लिए और उसे न लौटाकर बैंकों का एनपीए बढ़ाया

जुलाई 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जिस समतामूलक समाज की स्थापना का स्वप्न देखा उसे कांग्रेस की ही सरकार ने 1990 के दशक में समाप्त कर दिया। 1991-92 में लगभग 32 लोक उपक्रमों में विनिवेश से सरकार ने 3032 करोड़ रुपये अर्जित किए और बैंकों को आदेश दिया कि गरीबों को सस्ते कर्ज उपलब्ध कराएं। रसूख वालों ने बैंकों से खूब ऋण लिए और उसे न लौटाकर बैंकों का एनपीए बढ़ाया। आज यह प्रवृत्ति संक्रामक रोग की तरह फैल चुकी है।

कर्ज लो और उसे चुकाओ मत, घाटे का बजट एक फैशन हो गया जिससे मुद्रास्फीति बढ़ी

चूंकि राजनीतिक दलों में स्पर्धा रहती है कि कौन कितना कर्जा माफ करवाता है इसलिए लाभार्थियों में यह गलत संदेश जाता है कि कर्ज लो और उसे चुकाओ मत, क्योंकि बाद में सरकारें उसे माफ करा ही देंगी। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा घाटे का बजट एक फैशन हो गया जिससे मुद्रास्फीति बढ़ी और मुट्ठी भर टैक्स देने वालों पर टैक्स का पहाड़ टूट पड़ा। जाहिर है लोगों में टैक्स-चोरी की प्रवृत्ति बढ़ी।

आर्थिक संकट के चलते विश्व बैंक,आईएमएफ ने भी उदारीकरण और निजीकरण का दबाव बनाया

आर्थिक संकट के चलते विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी उदारीकरण और निजीकरण का दबाव बनाया। परिणाम सामने है। 1990 के बाद प्रत्येक सरकार ने सरकारी तंत्र को छोटा करने, लोक उपक्रमों का विनिवेश करने और ‘न्यूनतम सरकार-अधिकतम शासन’ के फॉर्मूले पर चलना शुरू किया। उनका मानना था कि इससे सरकारी तंत्र छोटा होगा, पुराने कानून खत्म होंगे, तकनीक के प्रयोग से कम लोगों से अधिकतम काम लिया जाएगा, काम त्वरित गति से, पारदर्शिता से होगा और उसका लाभ जनता को मिलेगा।

कोई भी सरकार अपने अभिकरणों पर ही पूरी तरह भरोसा कर सकती है

यह सोच भी उभरी कि सरकार व्यापारिक और वाणिज्यिक क्षेत्रों में हाथ समेटेगी और केवल शुद्ध शासकीय कार्यों-कानून और नीतियां बनाने, उन्हें लागू कराने और न्याय दिलाने पर ही केंद्रित करेगी। इससे धीरे-धीरे सरकारी तंत्र और लोक उपक्रमों का स्थान देसी और विदेशी निजी प्रतिष्ठान लेंगे, लेकिन कोरोना जनित संकट से यह स्पष्ट हो गया कि कोई भी सरकार अपने अभिकरणों पर ही पूरी तरह भरोसा कर सकती है।

निजी संस्थाएं सरकार के उत्तरदायित्व का वहन नहीं कर सकतीं

निजी संस्थाएं सरकार के उत्तरदायित्व का वहन नहीं कर सकतीं। वे सीमित सहयोग ही दे सकती हैं। संकट के समय जनता को केवल सरकार ही दिखाई देती है। कोरोना आपदा से निपटने में प्रत्येक राज्य में ‘कोरोना वीरों’ ने जिस प्रकार लोगों की मदद और सेवा की उसका आभार शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद ऐसे संकट में सबसे ज्यादा मार गरीबों पर पड़ती है। विभिन्न गैर-सरकारी एवं स्वैच्छिक संस्थाओं की प्रशंसनीय भूमिका के बावजूद जिम्मेदारी तो सरकार के ही हिस्से में आती है और उसके लिए सरकार को अपने लोग, अपने कर्मचारी चाहिए।

कोरोना के बाद विचार करना होगा कि आखिर ‘न्यूनतम सरकार’ की लक्ष्मण रेखा क्या हो

यदि सरकारी अमला ही सिमट जाएगा तो स्थानीय स्तर पर प्रशासन आपदा से लड़ेगा कैसे? वैसे तो लोक प्रशासन के कार्यों में सदैव निजी क्षेत्र की भागीदारी रही है, लेकिन कोरोना के बाद इस पर नए सिरे से विचार करना होगा कि आखिर ‘न्यूनतम सरकार’ की लक्ष्मण रेखा क्या हो?

कोरोना सरीखी आपदा से निपटने में हम चीन जैसे अधिनायकवादी तरीके नहीं अपना सकते

कोरोना सरीखी आपदा से निपटने में हम चीन जैसे अधिनायकवादी तरीके नहीं अपना सकते, लेकिन अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस आदि से सबक ले सकते हैं जहां सरकारी तंत्र अपने न्यून स्वरूप में है। क्या दुर्दशा हुई वहां जनता की? क्या लोक-प्रशासन और लोक उपक्रमों का विदेशी मॉडल भारत के हित में होगा?

कोरोना प्रबंधन से उपजी जन सहानुभूति का लाभ ले सकते हैं

आज सरकारी कर्मचारियों के लिए अवसर है कि कोरोना प्रबंधन से उपजी जन सहानुभूति में वे अपनी जन-विरोधी, भ्रष्ट और औपनिवेशिक प्रतिछाया वाली छवि से निजात पाकर दक्ष, प्रभावशाली, श्रेष्ठ कार्यसंस्कृति और जनमित्र की छवि अर्जित कर सकें। यह सरकारों के लिए भी अवसर है कि वे नौकरशाही में परिवर्तन कर उसे जनमित्रशाही का स्वरूप प्रदान करे। आज कोरोना आपदा को अवसर में बदलने और गुणवत्तापूर्ण एवं बेहतर शासन हेतु लोक प्रशासन, लोक उपक्रमों और सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को नई संजीवनी देने की जरुरत है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं )