सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए तीन सदस्यीय पैनल बनाने की जो व्यवस्था दी, उससे वस्तुतः एक तरह का कलेजियम बनेगा, जिसमें प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष अथवा लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के साथ तीसरे सदस्य के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश होंगे। इस फैसले के बाद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति उसी तरह होगी, जैसे सीबीआइ निदेशक की होती है। पिछले कुछ समय से सीबीआइ निदेशक का चयन तीन सदस्यीय पैनल के माध्यम से हो रहा है। क्या यह कहा जा सकता है कि इससे सीबीआइ की कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठने बंद हो गए हैं?

हैरत नहीं कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की नई व्यवस्था बनने के बाद भी उनकी निष्पक्षता को लेकर सवाल उठने का सिलसिला कायम रहे। जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की व्याख्या इस रूप में होना स्वाभाविक है कि उसने कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल देने का काम किया है। इसका कारण संविधान में यह दर्ज होना है कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति की ओर से की जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार उसके द्वारा तय की गई व्यवस्था तब तक लागू रहेगी, जब तक संसद कोई कानून नहीं बनाती। पता नहीं संसद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुरूप ही कानून बनाएगी या फिर उसमें कुछ हेरफेर करेगी, लेकिन यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जैसी व्यवस्था आवश्यक समझी गई, वैसी उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में क्यों नहीं समझी जा रही है?

आखिर जिस तरह का पैनल चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए बनाने का आदेश दिया गया, वैसा ही न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए? यह ठीक नहीं कि जो सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में कार्यपालिका से पारदर्शिता की अपेक्षा करे, वह न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में इस अपेक्षा पर खरा न उतरे। इसका क्या अर्थ कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें? न्याय और नीति यही कहती है कि लोकतंत्र में व्यवस्था का कोई एक अंग जैसी नसीहत दूसरे अंगों को दे, वैसी पर खुद भी अमल करे।

चुनाव आयोग की समस्या यह नहीं है कि उसके आयुक्तों की नियुक्ति किसी पैनल अथवा कलेजियम से नहीं होती। उसकी समस्या यह है कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों के लिए उसे जैसे अधिकार चाहिए, वैसे उसके पास नहीं हैं। चुनाव आयोग जैसे चुनाव सुधार चाह रहा है, वैसे राजनीतिक दलों को रास नहीं आ रहे हैं। इसमें संदेह है कि सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला चुनाव सुधारों को आगे बढ़ाने का काम करेगा। अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट इसकी भी चिंता करता कि चुनाव आयोग आवश्यक अधिकारों से लैस हो, ताकि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों को लेकर कोई संदेह न रहे और राजनीतिक दल उसे बेवजह निशाना बनाने से बाज आएं।