[प्रमोद भार्गव]। COVID-19 Lockdown: गांव से पलायन कर शहर पहुंचे लोग कोरोना महामारी से बचने के लिए वापस गांव पहुंच रहे हैं। अब यदि देश की 130 करोड़ से अधिक जनता को अन्न और फल-सब्जी-दूध चाहिए तो इन ग्रामीणों में से ज्यादातर को गांव में रोककर गांव को समृद्धशाली बनाना होगा। इससे इनको जीने का बेहतर अवसर मिले और देश को भी अनाज मिलता रहे। अगर कोरोना का कहर लंबा चला तो शहर और उद्योगों के हालात बदतर होते चले जाएंगे। देश में करीब 46 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्रों में हैं, जबकि 20 करोड़ से अधिक खेतिहर मजदूरों का बोझ पहले से ही कृषि क्षेत्र उठा रहा है। इसमें लगातार मशीनीकरण को बढ़ावा मिलने के कारण मजदूरों की मांग घट रही है।

इसलिए अंदाजा है कि स्थिति सामान्य होते ही फिर से 80 प्रतिशत से अधिक प्रवासी मजदूर शहरों की ओर लौटेंगे, लेकिन इतने लोगों को काम मिल जाए यह कहना फिलहाल मुश्किल है। कोरोना के चलते बेरोजगार हुई इस आबादी को केंद्र और राज्य सरकारें मुफ्त अनाज बांट पा रही हैं तो इसलिए कि अन्नदाता तमाम जोखिमों का सामना करते हुए अन्न का उत्पादन बढ़ा रहा है। यही अनाज न केवल ग्रामीण, बल्कि शहरी अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाए रखने का प्रमुख आधार बना है। वर्ष 2018-19 में 28 करोड़ टन अनाज का उत्पादन हुआ था, जो 2019-20 में बढ़कर 29 करोड़ टन हो गया है।

हमें यह समझना होगा कि शहरीकरण देश की समस्या का समाधान नहीं है। इसके विकल्प मौजूद हैं। जरूरत इस बात की है कि गांवों और कस्बों में शहरों के समान बुनियादी सुविधाएं हासिल कराई जाएं, क्योंकि शहरीकरण को इसी प्रकार बढ़ावा दिया जाता रहा तो शहरों में पहले से ही अपर्याप्त नागरिक सुविधाओं के चरमरा जाने का खतरा बढ़ जाएगा। गोया इन लौटे ग्रामीणों के शहरों की ओर पलायन को रोकना नीति नियंताओं की प्रथामिकता में होना चाहिए जिससे विपरीत परिस्थिति में एक साथ इतनी बड़ी संख्या में लोगों के लौटने की पुनरावृत्ति न हो।

आज देश को है गांधी के ग्राम स्वराज की जरूरत

वर्तमान व्यवस्था पर गांधी के ग्राम स्वराज की जरूरत पर विचार किया जाए। इस मसले पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गांधी के बीच नीतिगत मतभेद था, क्योंकि उस समय भारत खाद्यान्न के लिए अमेरिका, रूस और ऑस्ट्रेलिया पर निर्भर था। इससे देश के स्वाभिमान को ठेस पहुंचती थी। शायद इसीलिए नेहरू ने रूसी क्रांति से प्रभावित होकर ऐसे बड़े उद्योगों का निर्माण किया जिनमें रोजगार की गुंजाइश तो कम थी, लेकिन आर्थिक निवेश की संभावनाएं अधिक थीं। इसलिए गांधी के कुटीर एवं लघु उद्योगों के विचार को नकारते हुए देश में बड़े उद्योगों की आधारशिलाएं रख दी गईं। रही-सही कसर जुलाई 1991 में पीवी नरसिम्हाराव सरकार ने भूमंडलीकरण की नीति को स्वीकार करके पूरी कर दी। यह समझौता संरचनागत समायोजन के नाम पर हुआ था। ऐसा करके हमने देश की आर्थिक आजादी को लंबे समय तक के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गोद में गिरवी रख दिया।

गांवों से ही निकलेगा खुशहाली का रास्ता

ऋग्वेद की एक ऋचा है- ‘विश्व पुष्टं ग्रामीण आस्मिन अनातुरम’ अर्थात मेरे गांव से ही मुङो विश्व के होने की पुष्टि होती है। मसलन खुशहाली और समृद्धि से परिपूर्ण ऐसे गांव हों, जहां से विश्व के उत्थान और संपन्नता का रास्ता खुलता हो। एक समय हमारे गांव वास्तव में समृद्धि के ऐसे ही स्नेत थे, इसीलिए देश सोने की चिड़िया कहलाता था। मुगलों के पतन और अंग्रेजों के पैर जमाने की शुरुआत के साथ 18वीं सदी के उत्तरार्ध में गांव की परंपरागत कृषि से जुड़ी आर्थिकी बिखरना शुरू हुई। इस बिखराव में फिरंगियों ने कुटिल चतुराई से भू-राजस्व व्यवस्था को गांव से जोड़ना शुरू कर दिया। इस व्यवस्था के घालमेल से पहले तक कृषि-भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं था। भूमि राज्य की हुआ करती थी। किसान को भू-राजस्व कर देने के बाद जमीन पर खेती करने की सुविधा प्राप्त थी। लगान के रूप में यह कर फसल के उत्पादन के बाद लिया जाता था। यह लगान भी उत्पादित फसल के एक निश्चित प्रतिशत के रूप में था, न कि नगदी के रूप में। गोया पश्चिमी रंग के सामंतवाद से देश बचा हुआ था।

प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल्य में प्राकृतिक संपदा, कृषि और गोवंश थे। नदियों के अक्षय और शुद्ध जल स्नोत थे। आर्थिक संसाधनों को समृद्ध बनाने के लिए ऋषियों ने नए-नए प्रयोग किए। परिणामस्वरूप कृषि विविध उत्पादनों से जुड़ी। इससे दलहन और चावल जैसे अनाजों और मसालों की हजारों किस्में पैदा होने लगीं। चावल की ही भारत में लगभग 80,000 किस्में पाई जाती थीं। करीब 167 फसलों, 350 वन प्रजातियों तथा 89,000 जीव-जंतुओं और 47,000 प्रकार की वनस्पतियों की खोज की गई। अब जैव तकनीकों के जरिये इन्हें कंपनियां बीजों के रूप में हथियाने की कोशिश में लगी हैं।

प्राचीन भारत का समृद्ध काल

यदि ‘कथा-सरित्सागर’ और जातक-कथाओं को पढ़ें तो पता चलता है कि समुद्र पार जाकर माल के क्रय-विक्रय में अनेक युवा पीढ़ी लगी रही थीं। ईसवी संवत की दूसरी सदी से लेकर 11वीं-12वीं सदी तक भारतीयों के लिए हालात बेहद अनुकूल थे, लेकिन कालांतर में 11वीं सदी में मंगोल और अरबों के तथा 12वीं सदी में तुर्को के आक्रमण ने भारत में उनकी सत्ता स्थापित कर दी। बाद में मुगल और फिर अंग्रेजों के वर्चस्व के चलते देसी-सत्ताओं का जो क्षरण हुआ, उसके कारण व्यापार का आर्थिक आधार खंडित होने लगा और भारत की समृद्धि लूट-तंत्र का हिस्सा बन गई। इसी समय खेती को बाजार का हिस्सा बना दिया गया। नतीजतन बाजार किसानों को आदेश देने लगा कि उन्हें कौन-सी फसलें खेतों में बोनी हैं। उस दौर में गांव-गांव में हस्तशिल्प का काम होता था, अंग्रेजों ने उसे भी चौपट करने का बीड़ा उठा लिया। नतीजतन कृषि के साथ लघु और कुटीर उद्योगों से जुड़ा उत्पादन गिरता चला गया। किंतु इसके विपरीत जनसंख्या का दबाव जरूर बढ़ा और भुखमरी के हालात भी उत्पन्न होने लगे।

भारत के गांव कितने समृद्ध थे, इस तथ्य की पड़ताल यदि अतीत से करें तो पता चलता है कि ब्रिटेन का औद्योगिक साम्राज्य हमारे गांवों से लूटी गई धन-संपदा की ही नींव पर खड़ा हुआ था। अंग्रेजों की इस लूट की कथा अंग्रेज लेखकों की पुस्तकों में भी है। ब्रूक्स एडम्स ने अपनी पुस्तक ‘द लॉ ऑफ सिविलाइजेशन एंड डीके’ में लिखा है, ‘शायद दुनिया के शुरू होने से अब तक कभी भी, किसी भी पूंजी से इतना लाभ किसी भी व्यवसाय में नहीं हुआ है, जितना भारतवर्ष की लूट से अंग्रेजों को हुआ, क्योंकि यहां करीब पांच दशकों तक अंग्रेजों से मुकाबला करने वाला कोई नहीं था। इस लूटे गए धन का उपयोग 1760 से 1815 के बीच अंग्रेजों ने अपने देश के औद्योगिक विकास में लगाया।’

कृषि और किसानों की दुर्दशा का प्रमुख कारण

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से पहले तो देसी उपकरणों एवं तरीकों से की जाने वाली खेती को समझा और फिर उसे मशीनीकरण में बदलने के षड्यंत्रकारी उपाय किए। भारत की खेती को उन्नत और वैज्ञानिक बताते हुए 1795 में कैप्टन थॉमस हालकॉट ने कंपनी को लिखे एक पत्र में जिक्र किया, ‘अब तक मैं मानता था कि कतारबद्ध जोताई एवं बोआई आधुनिक यूरोप का आविष्कार है, लेकिन मैं दक्षिण भारत के एक खेत से गुजरा तो खेती करने की तकनीक को देखकर हैरान रह गया।’ उसके बाद फिरंगियों ने ब्रिटेन में निर्मित खेती के काम आने वाले यांत्रिक उपकरणों को भारत लाना और उनसे खेती करने का रास्ता प्रशस्त करने की विधि अपनाई। देखा जाए तो देश में आज कृषि और किसानों की भारी दुर्दशा का एक प्रमुख कारण खेती का अंधाधुंध मशीनीकरण होना भी है।

वर्तमान संकट के बीच देश भर में करोड़ों की संख्या में मजदूर किस तरह शहरों से गांव की ओर पलायन कर रहे हैं, आज यह बड़ी चर्चा का विषय है। लेकिन इस बारे में कोई नहीं सोच रहा कि आखिर इन मजदूरों को गांव से शहरों की ओर जाना ही क्यों पड़ा? क्या इन्हें गांव में रोजगार नहीं मुहैया कराया जा सकता है? क्या गांव की अर्थव्यवस्था को विकसित नहीं किया जाना चाहिए, ताकि इन्हें शहर आने की जरूरत ही न हो। हमें यह जानना चाहिए कि हमारे गांव कैसे थे और कैसे हो गए

बड़े उद्यमों से कम हुई गांव की महत्ता

भारत में पिछली सदी के छठे और सातवें दशक में हरित क्रांति आई। फलस्वरूप देश तेजी से खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर होता चला गया। वर्ष 1969 में सरकार ने निजी बैंकों एवं बीमा कंपनियों का एक झटके में राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे किसानों को खेती के लिए कर्ज लेना आसान हो गया। शिल्प उद्योग के लिए भारी छूट दी गई और अनाज, खाद, मिट्टी तेल एवं बिजली पर गरीबों को सब्सिडी के प्रावधान किया गया। इसके बाद के दशक में जवाहर रोजगार योजना से ग्रामीण विकास की नींव रखी गई और इसे स्थानीय ग्रामीणों से जोड़ा गया।

सरकारी आवास योजना के माध्यम से अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को मुफ्त में घर दिए गए। इन कारणों के चलते गांवों में न तो असंतोष पनपा और न ही बड़ी संख्या में पलायन हुआ। इससे कृषि इस समय तक अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी बनी रही। किंतु 1991 में भूमंडलीकरण की नीतियों को मजबूत करने के लिए सरकारी और निजी क्षेत्र के ऐसे अनुत्पादक वर्ग की आमदनी बढ़ाई गई, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भोग-विलास के उपकरण खरीद सके। सरकारी अमले को छठे और सातवें वेतनमान इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए दिए गए। इससे आर्थिक विसंगति तेजी से बढ़ी।

इस बीच राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2013 की रिपोर्ट के अनुसार नौ करोड़ किसान परिवारों में से 75 प्रतिशत के पास 1.5 एकड़ से कम खेती योग्य भूमि है। वर्ष 2011 में किए गए सामाजिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि गांवों में रहने वाले करीब 67 करोड़ लोग 33 रुपये प्रति दिन पर गुजारा करते हैं और एक किसान परिवार की औसत आय 60 रुपये प्रति दिन रह गई है।

साफ है कि भूमंडलीकरण ने ऐसी नीतियों को बढ़ावा दिया जिससे अनुत्पादक वर्ग की मुट्ठी में धन समाता चला गया और फसल उत्पादक किसान खाली हाथ होता गया। बावजूद इसके देश की अर्थव्यवस्था को इस संकट की घड़ी में किसान ने ही थामा हुआ है। औद्योगिक निर्यात से ज्यादा कृषि निर्यात होता है। जबकि उन बड़े उद्योगों के पसीने छूट रहे हैं, जिन्हें बाजार और अर्थव्यवस्था की रीढ़ बताया जाता रहा था। अब ये कंपनियां सरकार से करों में छूट और आर्थिक पैकेज की मांग कर रही हैं।

[वरिष्ठ पत्रकार]