विचार: जन आकांक्षाओं की उपेक्षा का असर, नेपाल हिंसा के मुख्य कारण क्या हैं?
राजनीतिक अस्थिरता का नीतियों पर भी व्यापक असर पड़ा जिससे विदेश नीति भी अछूती नहीं रही। किसी सरकार ने ‘इंडिया-कार्ड’ का इस्तेमाल किया तो दूसरे ने ‘चाइना-कार्ड’ का। देश में रोजगार के अवसरों की कमी से लेकर अच्छे शिक्षण संस्थानों का अभाव भी लोगों को अखर रहा था। ऊपर से उपलब्ध ढांचे का राजनीतिकरण दुरुपयोग और भ्रष्टाचार देखकर उनका धैर्य जवाब देता गया।
ऋषि गुप्ता। नेपाल में युवाओं के आंदोलन ने देश में सरकार का तख्तापलट कर दिया। जेन जी कहे जाने वाले इन युवाओं के अभियान ने नेपाल सरकार द्वारा इंटरनेट मीडिया से जुड़े कुछ एप्स और वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाने के साथ जोर पकड़ा। सरकार द्वारा प्रदर्शनकारियों पर सख्ती के साथ युवाओं की मुहिम इतनी हिंसक हो गई कि प्रधानमंत्री सहित कई मंत्रियों के इस्तीफे से भी बात नहीं बनी और उन्हें जान बचाकर वहां से भागना पड़ा। सवाल उठ रहा है कि क्या इंटरनेट मीडिया कंपनियों पर प्रतिबंध को लेकर ओली सरकार का फैसला सही था?
सरकार के नजरिये से देखें तो चूंकि इंटरनेट मीडिया कंपनियों ने देश के स्वायत्त ढांचे को नकारा, इसलिए देश के कानून और संप्रभुता को देखते हुए सरकार को सख्त कदम उठाना पड़ा। ऐसे में सवाल यह भी है कि नेपाल ने अब तक क्यों इन प्लेटफार्म को संचालित होने दिया और क्यों सरकारी दफ्तरों, विभागों, मंत्रालयों और मंत्रियों को इन इंटरनेट मीडिया अकाउंट बनाने और संचालित करने दिया गया? सीधा जवाब है कि सरकार की मंशा इंटरनेट मीडिया को नियंत्रण में रखने की थी, ताकि उस पर चल रहे आंदोलन को कमजोर किया जा सके।
ऐसी स्थितियां बनीं कैसे? इसके लिए पिछले महीने इंटरनेट मीडिया पर चली ‘नेपो किड्स’ यानी राजनीति और व्यापार में भाई-भतीजावाद के खिलाफ आंदोलन का जिक्र जरूरी है। नेपाल की जेन जी पीढ़ी ने एक खुला आंदोलन छेड़ रखा था, जिसमें राजनेताओं, पूर्व प्रधानमंत्रियों और मत्रियों के बच्चों की आलीशान जीवनशैली को निशाना बनाया जा रहा था। आमदनी से अधिक आय जैसे मुद्दों पर भी वे आक्रामक रहे। ऐसे में सरकार पर दबाव था कि वह इंटरनेट मीडिया को नियंत्रित करे।
इसी दौरान इंटरनेट मीडिया कंपनियों ने पंजीकरण नहीं किया और उन पर प्रतिबंध लगाने का अवसर मिल गया। इस एकाएक कार्रवाई के चलते स्कूल-कालेज जाने वाली पीढ़ी आक्रोशित हो गई। एक ऐसे दौर में जब इंटरनेट मीडिया आम जरूरतों के साथ ही आमदनी का जरिये भी बन गया है तो युवाओं की ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी। एक विरोध-प्रदर्शन जो शांतिपूर्वक होना था वह इस कारण उग्र हो गया, क्योंकि सुरक्षा बलों ने उसे कुचलने के लिए पूरी ताकत लगाई और उसके बाद हिंसा की ऐसी आग लगी जो अभी तक शांत होती नहीं दिख रही।
यदि प्रधानमंत्री ओली ने बातचीत का रास्ता अपनाया होता तो मामला शांत हो सकता था। केपी ओली पर ‘तानाशाह’ तरीके से सरकार चलाने के आरोप लगते रहे थे, ऐसे में इंटरनेट का बंद किया जाना अभिव्यक्ति और विचारों की आजादी पर एक बड़ा प्रहार सा लगा। इस तरह दो दिनों से कम समय में नेपाल एक विचित्र स्थिति में पहुंच गया। फिलहाल सेना ने देश की सुरक्षा का जिम्मा लिया है, पर सरकार चलाने के लिए कोई तंत्र मौजूद नहीं है।
अनुमान है कि यहां भी बांग्लादेश की तर्ज पर एक अंतरिम सरकार बनाई जाएगी और उसमें युवाओं को भी प्रतिनिधित्व मिलेगा। ऐसी संभावित सरकार की कमान संभालने के लिए कुछ नामों की चर्चा भी चल रही है। नेपाल के राजनीतिक इतिहास में यह पहला अवसर है जब 14 से 25 आयुवर्ग वालों के नेतृत्व में ऐसा आंदोलन हुआ। नेपाल में आंदोलन वैसे तो सामान्य बात रही है। फिर चाहे 1990 का आंदोलन हो, जब राजनीतिक दलों ने राजशाही से उन पर लगे प्रतिबंध को हटाने की मांग की हो या 2006 का जनांदोलन, जिसके चलते नेपाल में राजशाही हटी और पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना हुई।
इस सबके बीच यह मान लेना सही नहीं होगा कि इंटरनेट मीडिया पर प्रतिबंध ही इस आक्रोश का एकमात्र कारण बना। वहां लोग भ्रष्टाचार से भी त्रस्त हो गए थे। नेपाल में सदियों पुरानी राजशाही व्यवस्था के खिलाफ चले दस वर्षों के लंबे आंदोलन के बाद 2006 में लोकतंत्र का बिगुल बजा और 2008 में पहला लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, लेकिन जिस भरोसे के साथ माओवादी सरकार को पूर्ण समर्थन मिला, वह उस पर खरी न उतर सकी।
पहले प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड को साल भर के भीतर ही इस्तीफा देना पड़ा था। तब से लेकर आज तक नेपाल में एक दर्जन से भी अधिक प्रधानमंत्री बन चुके हैं और कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। साथ ही जिस तरह से एमाले पार्टी के केपी शर्मा ओली, माओवादी नेता प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा ने गठजोड़ के जरिये किसी भी स्थिति में सत्ता से चिपके रहने को तरजीह दी, उसने भी राजनीतिक अस्थिरता बढ़ाई।
राजनीतिक अस्थिरता का नीतियों पर भी व्यापक असर पड़ा, जिससे विदेश नीति भी अछूती नहीं रही। किसी सरकार ने ‘इंडिया-कार्ड’ का इस्तेमाल किया तो दूसरे ने ‘चाइना-कार्ड’ का। देश में रोजगार के अवसरों की कमी से लेकर अच्छे शिक्षण संस्थानों का अभाव भी लोगों को अखर रहा था। ऊपर से उपलब्ध ढांचे का राजनीतिकरण, दुरुपयोग और भ्रष्टाचार देखकर उनका धैर्य जवाब देता गया। इसके चलते ही बेहतर अवसरों की तलाश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा देश छोड़कर पलायन कर गया।
प्राकृतिक संपदा से संपन्न और पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाओं वाला देश अपने समक्ष उपलब्ध अवसरों का लाभ नहीं उठा पाया। राजनीतिक दलों और सरकारों के विरुद्ध भावनाएं उबाल लेने लगीं और अब उसका ही प्रकटीकरण हो रहा है। जैसी तस्वीरें इस समय नेपाल से आ रही हैं, उन्हें देखकर यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि विरोध-प्रदर्शन में कुछ अराजक तत्व भी शामिल हो गए हैं। देश भर में आगजनी, सार्वजनिक-निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और लूटपाट की खबरें आ रही हैं।
इस समय नेपाल एक दोराहे पर खड़ा है। एक राह नए लोकतांत्रिक ढांचे का अवसर तैयार करने वाली है और यदि इस अवसर को गंवाया जाता है तो राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती जाएगी। यह घटनाक्रम अन्य देशों के लिए भी सबक है कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर खरा उतरना और जनता के मुद्दों से जुड़े रहना कितना महत्वपूर्ण होता है। इनकी अनदेखी के परिणाम नेपाल से पहले श्रीलंका और बांग्लादेश में भी देखने को मिल चुके हैं।
(लेखक एशिया सोसाइटी पालिसी इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में सहायक निदेशक हैं)
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