विजय क्रांति। इस साल नोबेल शांति पुरस्कार के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नाम की काफी चर्चा रही। यह बात अलग है कि यह चर्चा किसी और ने नहीं, बल्कि स्वयं ट्रंप ही छेड़ते रहे। पुरस्कार पाने के लिए ट्रंप ने शेखी बघारने से भी संकोच नहीं किया। वे रह-रहकर दावे करते रहे कि उन्होंने कितने युद्ध रुकवा दिए और वही इस सम्मान के सबसे बड़े सुपात्र हैं। ऐसा दुर्लभ ही देखने को मिलता है कि किसी पुरस्कार के लिए किसी बड़े देश का नेता सार्वजनिक रूप से ऐसी बयानबाजी करे।

नोबेल कमेटी पर अमेरिकी दबदबे को देखते हुए यह लगा भी कि ट्रंप यह पुरस्कार प्राप्त करने में सफल हो जाएंगे, लेकिन अंतत: ऐसा नहीं हुआ और वेनेजुएला में विपक्ष की नेता मारिया कोरिना मचाडो को यह पुरस्कार मिला। स्वाभाविक है कि इस घटनाक्रम से ट्रंप खेमा बुरी तरह तमतमाया। राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से आधिकारिक टिप्पणियां करने वाले व्हाइट हाउस में संचार निदेशक स्टीवन चुंग ने कहा, ‘नोबेल कमेटी ने सिद्ध कर दिया कि उसके लिए शांति के मुकाबले राजनीति ज्यादा महत्वपूर्ण है।’ मानो इतना ही पर्याप्त नहीं था। ट्रंप द्वारा वेनेजुएला में नियुक्त अमेरिकी राजदूत ने तो अपने गुस्से और हताशा को व्यक्त करते यह घोषणा तक कर डाली कि नोबेल पुरस्कार को मरे हुए तो कई साल हो चुके हैं।

इस मामले में दिलचस्प पहलू यही है कि मचाडो पिछले कई वर्षों से वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो के खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद किए हुए हैं। मादुरो के शासन को नेस्तनाबूद करने की घोषणा खुद ट्रंप ने की हुई है। मचाडो वेनेजुएला में विपक्ष की सबसे प्रमुख नेता हैं। मादुरो ने न केवल उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया है, बल्कि उन्हें देश से निकाल भी दिया है। मचाडो इन दिनों मादुरो से छिपते-छिपाते ही उनके खिलाफ अपना अभियान चला रही हैं। यह मात्र संयोग नहीं था कि जिस समय नोबेल कमेटी ने शांति पुरस्कार की घोषणा की, लगभग उसी समय राष्ट्रपति ट्रंप के आदेश पर उनकी नौसेना के बेड़े और वायुसेना वेनेजुएला पर किसी भी क्षण हमले के लिए उसकी सीमा तक पहुंच चुके थे। इस पूरे प्रकरण में ट्रंप के लिए तसल्ली की केवल यही बात हुई कि मचाडो ने नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उसे ट्रंप को समर्पित कर दिया। उन्होंने कहा, ‘मैं अपना यह पुरस्कार वेनेजुएला की सताई हुई जनता और हमारे इस संघर्ष को निर्णायक समर्थन देने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को समर्पित करती हूं।’

उनकी इस घोषणा ने यकीनन राष्ट्रपति ट्रंप के गुस्से और अहं दोनों को संतुष्ट करने का काम किया। मचाडो के इस वक्तव्य के बाद ट्रंप ने व्हाइट हाउस में पत्रकारों को बताया कि पुरस्कार पाने के बाद मचाडो ने मुझे फोन करके कहा कि मैंने यह पुरस्कार आपके सम्मान में स्वीकार किया है, क्योंकि आप ही इसके वास्तविक हकदार हैं। ट्रंप ने कहा, ‘मैं उनकी (मचाडो) की लगातार सहायता करता आया हूं। उन्हें वेनेजुएला को वहां चल रहे विनाश से बचाने के लिए ऐसी सहायता की बहुत जरूरत है। मुझे खुशी है कि लाखों जिंदगियों को बचाने में मैंने उनकी मदद की है।’

ट्रंप भले ही उतावलेपन में अमेरिका के बजाय अपनी निजी आकांक्षाओं को महत्व दे रहे हों, लेकिन नोबेल कमेटी की नकेल को घुमाने वाली अमेरिकी ‘डीप स्टेट’ ताकतों ने नोबेल शांति पुरस्कार को अपने एजेंडे के हथियार की तरह इस्तेमाल करने के लक्ष्य को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दिया। मचाडो को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित करके उसने निकोलस मादुरो की सरकार को पलटने वाले उस हथियार को नई ताकत दे दी है, जो अमेरिकी राष्ट्रपति के नौसैनिक बेड़े और बी-2 बमवर्षकों के स्क्वाड्रनों से कहीं ज्यादा ताकत रखता है। वाशिंगटन की आंखों में खटकने वाली दुनिया की तमाम सरकारों के खिलाफ आंदोलनों को हवा देने और येन-केन-प्रकारेण उन सरकारों को पलटने का अभियान चलाने के लिए कुख्यात अमेरिकी ‘डीप स्टेट’ को वेनेजुएला में अमेरिकी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए नोबेल कमेटी ने ठीक वैसा ही हथियार दे दिया है, जैसा उसने बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के लिए मोहम्मद यूनुस जैसे कठपुतली नेता के रूप में दिया था। अगर नोबेल शांति पुरस्कार को सौदेबाजी समझा जाए तो यही देखने वाली बात होगी कि मादुरो को सत्ता से बेदखल करने के अमेरिकी प्रयासों में मचाडो किस हद तक अमेरिकी मोहरा बनेंगी।

दुर्भाग्य से केवल नोबेल कमेटी ही एक ऐसा संगठन नहीं है, जिस पर अमेरिका की आसुरी शक्ति ‘डीप स्टेट’ ने कब्जा जमाया हुआ है। पिछले कई दशकों से ‘डीप स्टेट’ ने अपने अकूत धनबल और खुफिया एजेंसियों के बूते दुनिया भर में ऐसे कई संगठन खड़े कर लिए हैं या पहले से काम कर रहे ऐसे अधिकांश संगठनों पर अपना नियंत्रण जमा लिया है, जो अपने काम से दुनिया में अपना एक विशेष स्थान बना चुके थे। इनमें रेमन मैग्सेसे अवार्ड, एमनेस्टी इंटरनेशनल, फ्रीडम हाउस और ह्यूमन राइट्स वाच जैसे दर्जनों संगठन और बीबीसी, वाशिंगटन पोस्ट, द गार्डियन और सीएनएन जैसे समाचार माध्यम भी शामिल हैं। इन पर अमेरिकी ‘डीप स्टेट’ का शिकंजा पूरी तरह कसा हुआ है। इन संगठनों और प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल निशाने पर रहने वाली सरकारों के विरोधियों को बड़े-बड़े पुरस्कार, वजीफे और प्रचार देकर उनके देशों में उनके प्रभाव को बढ़ाना और वक्त आने पर वहां सत्ता परिवर्तन के लिए उन्हें औजार की तरह इस्तेमाल करना है।

ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि वैश्विक अस्थिरता के इस दौर में स्थिरता एवं स्थायित्वपूर्ण स्थिति वाले भारत के लिए पश्चिम के कुछ संस्थान रह-रहकर कोई न कोई उकसावे वाली बात कहते रहते हैं। कुछ मीडिया संस्थानों को तो इसी बात से कोफ्त हो रही है कि दुनिया भर में असंतोष और आक्रोश जता रही नई पीढ़ी के तेवर भारत में क्यों शांत बने हुए हैं? स्पष्ट है कि इसके जरिये उनका निशाना कहां है। यह किसी से छिपा नहीं कि पश्चिम खासतौर से अमेरिकी दादागीरी के आगे भारत का अपने हितों की नीति पर टिके रहना किसे रास नहीं आ रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)