सुरेंद्र किशोर। बिहार का विकास और उसकी बदहाली इन दिनों चर्चा में है। विपक्षी खेमे से जुड़े राजद और कांग्रेस जैसे दल राज्य के पिछड़ेपन के लिए सत्तारूढ़ राजग सरकार को जिम्मेदार बता रहे हैं। उनके इस आरोप की पड़ताल की जाए तो बिहार की मौजूदा स्थिति के लिए सबसे अधिक दोषी राजद और कांग्रेस जैसे दल ही दिखेंगे। स्वतंत्रता के बाद से ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकारों ने बिहार के साथ सौतेला व्यवहार किया। याद रहे कि अविभाजित बिहार के दक्षिणी हिस्से में देश के करीब 40 प्रतिशत खनिज संसाधन उपलब्ध थे।

यही कारण है कि टाटा जैसे कारोबारी समूह ने यहां कारखाने लगाए। उत्तर बिहार की जमीन को जापान की भूमि की तरह ही उपजाऊ माना जाता है, पर केंद्र सरकार ने ऐसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर राज्य को प्रगति के पथ पर अग्रसर करना उचित नहीं समझा। न तो उत्तर बिहार में सिंचाई और बांध आदि का पर्याप्त इंतजाम हुआ और न ही खनिज पदार्थों के उपयोग का प्रबंध किया गया। इसके विपरीत आजादी के तत्काल बाद रेल भाड़ा समानीकरण नियम लाकर केंद्र सरकार ने खनिज संपन्न बिहार के लिए लाभ की स्थिति को सीमित कर दिया।

भाड़ा समानीकरण नियम तब समाप्त हुआ, जब लोकसभा में कांग्रेस को बहुमत मिलना बंद हो गया, पर इस बीच बिहार को करीब 10 लाख करोड़ रुपये के लाभ से वंचित रहना पड़ा। समझिए कि 1950 से 1990 तक 10 लाख करोड़ रुपये की राशि से बिहार का कितना विकास हो चुका होता? भाड़ा समानीकरण का यही अर्थ था कि रेलगाड़ी के जरिये धनबाद से खनिज पटना पहुंचाने में जितना भाड़ा लगता था, उतना ही भाड़ा मुंबई या चेन्नई तक पहुंचाने में लगता। पहले यह स्थिति नहीं थी।

कहा गया कि समानीकरण इसलिए किया गया ताकि उद्योगीकरण का लाभ समान रूप से सभी राज्यों तक पहुंचे। सिर्फ उन्हीं राज्यों को नहीं, जहां खनिज पदार्थ अधिक पाए जाते हैं। समानीकरण के बाद टाटा जैसी किसी कंपनी के लिए मुंबई या गुजरात से बिहार आकर पूंजी निवेश करने की मजबूरी नहीं रह गई। केंद्र सरकार को चाहिए था कि रेल भाड़ा समानीकरण के एवज में उत्तर बिहार के खेतों को विकसित करने के काम के लिए साधन मुहैया कराती, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ध्यान उस समय पंजाब पर केंद्रित रहा।

नेहरू सरकार ने 1955 में सिंचाई के मद में पूरे देश के लिए करीब 29,106 लाख रुपये का आवंटन किया था। इस राशि में से सिर्फ पंजाब को 10,952 लाख रुपये मिले। उन्हीं दिनों कोसी बांध निर्माण योजना पर भी काम होना था। पंडित नेहरू ने बिहार से कह दिया कि हमारे पास पैसे नहीं हैं, इसलिए कोसी में निर्माण के काम में स्वयंसेवी संगठनों और आम जनता से मदद ली जाए। कांग्रेस राज में बिहार की उपेक्षा के और भी आंकड़े हैं। रिजर्व बैंक बुलेटिन के अनुसार 1993-94 में जम्मू-कश्मीर के लिए प्रति व्यक्ति केंद्रीय सहायता 2,291 रुपये थी।

उसी अवधि में बिहार को सहायता राशि प्रति व्यक्ति मात्र 192 रुपये मिली। जबकि तमिलनाडु को 233 रुपये, राजस्थान को 304 रुपये तथा उत्तर प्रदेश को 331 रुपये आवंटित किए गए थे। बिहार की ऐसी उपेक्षा प्रथम पंचवर्षीय योजना काल से ही शुरू हो गई थी। नतीजतन, 1971 में ओडिशा को छोड़कर बिहार देश का सर्वाधिक गरीब राज्य था। आज भी लगभग वही स्थिति है। आजादी के बाद से बिहार में कुछ सरकारी उपक्रम जरूर स्थापित हुए, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं रहा कि वे कितने सफल रहे। इसके बजाय खेती में पूंजी लगाई गई होती तो बिहार का कहीं अधिक भला होता।

राजद और कांग्रेस जिस राजग सरकार पर आरोप लगा रहे हैं, उसके शासनकाल में ही प्रदेश का चहुंमुखी विकास हुआ। इस दौरान आंतरिक राजस्व बढ़ना जारी रहा। उसी अनुपात में केंद्र से भी सहायता राशि मिली। 2014 में केंद्र में भी राजग सरकार बनने के बाद विशेष केंद्रीय सहायता सुगम हुई। केंद्र और राज्य सरकारों के साझा प्रयासों से विकास की गति तेज हुई है। बिहार में बिजली घर-घर पहुंच गई है। सड़कों का जाल बिछा दिया गया।

रोजगार के अवसर बढ़े हैं। पलायन में कमी आई है। आंकड़े खुद आर्थिक कायाकल्प की गवाही देते हैं। वित्त वर्ष 2005-06 में बिहार का बजट 26 हजार 328 करोड़ रुपये था जो, 2025-26 में बढ़कर 3 लाख 16 हजार 895 करोड़ रुपये हो गया। विकास की होड़ में पीछे रह गए बिहार ने वापसी तो की है, लेकिन आजादी के बाद उसे जिस उपेक्षा का सामना करना पड़ा, उसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं।

जनता के मन पर नीतीश कुमार के सुशासन की छाप स्पष्ट दिखती है। राज्य में 2005 से ही लगातार उनकी सरकार बनी हुई है। आगामी विधानसभा चुनाव से पहले 2024 के लोकसभा चुनाव में भी बिहार में राजग को भारी बढ़त मिली। गत वर्ष नवंबर में बिहार के चार विधानसभा उपचुनाव में चारों सीटों पर राजग की विजय हुई। उनमें से तीन सीटें पहले राजद-माले के पास थीं। इन दलों से सीटें छीनना कोई मामूली बात नहीं मानी जाती, लेकिन यह भी संभव हो गया।

आगामी विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में बिहार के अधिकांश मतदाता विकास की ही बातें करते हैं। लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के 15 साल के शासनकाल को याद करके ही उन्हें सिहरन होने लगती है। वे उन दिनों की वापसी कतई नहीं चाहते।

राजनीतिक समीकरणों की बात करें तो लालू प्रसाद का जांचा परखा एमवाइ यानी मुस्लिम-यादव का मजबूत वोट बैंक बरकरार है। मुस्लिम वोट तो शायद ही छिटके, लेकिन यादवों का एक छोटा सा वर्ग अब राजद के प्रति पहले जैसा उत्साहित नजर नहीं आता। भाकपा-माले का साथ महागठबंधन की ताकत बढ़ा रहा है।

जबकि कांग्रेस का नेतृत्व निष्क्रिय है तो वह राजद पर बहुत ज्यादा निर्भर है। कुछ छिटपुट क्षेत्रीय दलों और प्रभावशाली निर्दलीय उम्मीदवार राजग या महागठबंधन में से किसे कितना नुकसान पहुचाएंगे, यह तो भविष्य में ही पता चलेगा। हालांकि यह जरूर दिख रहा है कि बिहार के इस चुनाव में धनबल का ऐसा असर दिखने जा रहा है, जैसा पहले कभी नहीं दिखा। यह भी देखना होगा कि प्रवर्तन एजेंसियां इस पर अंकुश लगाने में कितनी सफल होंगी?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)