विचार: शिक्षा में भी बढ़े स्वदेशी का भाव, शिक्षा में क्रांतिकारी सुधार जरूरी
वर्तमान केंद्र सरकार ने भारतीय भाषाओं के पक्ष में अच्छा काम किया है लेकिन शोध और अन्य नवीन वैज्ञानिक पहलुओं पर अपेक्षित परिणाम आने बाकी हैं। यह देश का सौभाग्य है कि हमारे पास दुनिया की सबसे युवा आबादी है और उनकी मेहनत का लोहा पूरी दुनिया मानती है। ये युवा बदलाव तभी लाएंगे जब उन्हें सही दिशा मिले।
प्रेमपाल शर्मा। इन दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अन्य वरिष्ठजन देशवासियों से स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने का आग्रह कर रहे हैं। इसके लिए जीएसटी में सुधार और कुछ नीतियों में बदलाव किए गए हैं, ताकि भारतीय नागरिक अपने देश की वस्तुओं को प्राथमिकता दें, लेकिन इस ‘स्वदेशी राग’ में शिक्षा के क्षेत्र में स्वदेशी का महत्व, जैसे कि मेडिकल, इंजीनियरिंग या अन्य विषयों की पढ़ाई के लिए अपने देश के विश्वविद्यालयों को ही चुनने की बात कहीं नहीं उठाई जा रही है। यह सच है कि आजादी के बाद भी बच्चे विदेश पढ़ने जाते थे, लेकिन तब हमारे पास विश्वविद्यालयों की संख्या इतनी नहीं थी। वर्तमान में जब हमारे पास लगभग 1000 विश्वविद्यालय और हजारों निजी एवं सरकारी कालेज हैं, तब विदेश पढ़ने जाने के कारण क्या हैं?
इसका एक बड़ा कारण यह है कि आज अधिकांश राजनेता, नौकरशाह और विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक, जो थोड़े बहुत अमीर हैं, उन्होंने अपने बच्चों को विदेश भेजने का आसान विकल्प चुन लिया है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच वर्षों में विदेश में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या दोगुनी से भी अधिक हो गई है। एक अनुमान के अनुसार, लगभग 15 लाख छात्र विदेश में पढ़ाई कर रहे हैं, जिनमें सबसे अधिक अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में हैं। भारतीय छात्रों की विदेश में पढ़ाई की चाहत को देखते हुए यूरोप, सिंगापुर और अन्य देशों ने भी विभिन्न प्रलोभन नीतियां अपनाई हैं।
एक ओर देश में युवा मेडिकल की पढ़ाई के लिए भटक रहे हैं, दूसरी ओर लाखों गांव-कस्बे अच्छे डाक्टरों की तलाश में हैं। भारतीय छात्र लगभग 90 से अधिक देशों में डाक्टरी की पढ़ाई कर रहे हैं। इस बीच आइआइटी की संख्या बढ़कर 23 हो गई है, लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इनमें लगभग 50 प्रतिशत फैकल्टी की सीटें खाली हैं और शिक्षकों की कमी के कारण ये संस्थान अस्थायी शिक्षकों पर निर्भर हैं। इसके चलते शिक्षा, पाठ्यक्रम और शोध में गिरावट आई है, जिससे मेधावी छात्र विदेश जाने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
छात्रों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इन सभी देशों ने वीजा और विश्वविद्यालय की फीस भी लगभग दोगुनी कर दी है। प्रति विद्यार्थी एक से दो करोड़ रुपये से कम खर्च नहीं आता। क्या विदेश में पढ़ाई करना इतना आसान है? जिस देश की 80 प्रतिशत जनता को राशन के गेहूं-चावल पर गुजारा करना पड़ता हो, क्या उनके लिए विदेश जाना संभव है? हां, उन नौकरशाहों और उच्च पदों पर रहने वालों के लिए, जिनकी अच्छी खासी तनख्वाह होती है, यह संभव है। वे अपने बच्चों को विदेश में पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जबकि देश के शिक्षा संस्थानों में सुधार की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाते।
हाल के समय में दिल्ली विश्वविद्यालय भी गिरावट की चपेट में आ गया है। इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए पिछले पांच वर्षों से कामन टेस्ट शुरू किया गया है, और नई शिक्षा नीति को भी लागू हुए पांच साल हो गए हैं, लेकिन अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहे हैं। यह आवश्यक है कि कोई उच्च स्तरीय समिति तुरंत इसका पुनरावलोकन करे। शिक्षकों की भर्ती के लिए भी यूपीएससी जैसा कोई भर्ती बोर्ड बनाया जाए। जहां छात्रों के दाखिले के लिए कई स्तर की परीक्षाएं होती हैं, वहीं शिक्षक-प्रोफेसर की भर्ती और पदोन्नति के लिए कोई ठोस प्रक्रिया नहीं है।
जब भी शिक्षकों और शिक्षा-शोध की बेहतरी के प्रयास किए जाते हैं, तो सबसे अधिक विरोध शिक्षकों की कुछ जमातें करती हैं, जो न तो कक्षाएं लेना चाहती हैं, न बच्चों की फीडबैक पर भरोसा करती हैं और न ही प्राचार्य के वार्षिक मूल्यांकन पर। इन्हीं सब कारणों से हमारे विश्वविद्यालय दुनिया की रैंकिंग में गिरते जा रहे हैं। पिछले वर्षों में इन्हीं चुनौतियों से जूझते-हारते बच्चे आत्महत्या की ओर बढ़ रहे हैं। आइआइटी, आइआइएम जैसे संस्थानों में आत्महत्या की घटनाएं दिल दहला देती हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंच गया है। इसके लिए एक समिति भी बनाई गई है, लेकिन क्या केवल समिति बनाने से समस्या का समाधान होगा? क्या सरकार ऐसी नीति नहीं बना सकती जिससे विश्व स्तर पर शिक्षा में हो रहे परिवर्तन भारत में भी लागू किए जा सकें?
वर्तमान केंद्र सरकार ने भारतीय भाषाओं के पक्ष में अच्छा काम किया है, लेकिन शोध और अन्य नवीन वैज्ञानिक पहलुओं पर अपेक्षित परिणाम आने बाकी हैं। यह देश का सौभाग्य है कि हमारे पास दुनिया की सबसे युवा आबादी है, और उनकी मेहनत का लोहा पूरी दुनिया मानती है। ये युवा बदलाव तभी लाएंगे जब उन्हें सही दिशा मिले। इसके लिए हमें शिक्षा में भी स्वदेशी का प्रण लेना होगा। शिक्षा दुनिया और समाज में परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार है। हमें ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता है कि जहां धर्म, जाति, गोत्र और क्षेत्र को भूलकर मेरिट और योग्यता को प्राथमिकता मिले।
2009 के नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकट रामकृष्ण का कथन याद आता है कि अमेरिकी विश्वविद्यालय शोध और शिक्षा के मामले में न जाति देखते हैं, न धर्म, और न ही आप कहां से आए हैं। वे बस यही देखते हैं कि आपका लक्ष्य क्या है। इसी कारण वे पिछले 200 वर्षों से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में अव्वल बने हुए हैं। यदि हम शिक्षा में क्रांतिकारी सुधार की दिशा में कदम बढ़ाते हैं, तो हर क्षेत्र में स्वदेशी का महत्व बढ़ेगा।
(शिक्षाविद् लेखक भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे हैं)
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