बलबीर पुंज। भारत को विभाजित करने की औपनिवेशिक टूलकिट आज भी कई रूपों में सक्रिय है। इसकी झलक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारो के हालिया विषवमन में मिलती है। यूक्रेन-रूस सैन्य संघर्ष को ‘मोदी का युद्ध’ बताने वाले नवारो ने भारत द्वारा सस्ती दरों पर रूस से की जा रही तेल खरीद पर कहा कि इससे ब्राह्मणों को ही लाभ मिल रहा है।

यह कोई आकस्मिक प्रतिक्रिया या अमेरिकी संदर्भ में दिया वक्तव्य नहीं है। यह उसी विषबेल की ही कोपल है, जिसकी जड़ें देश के भीतर पहले से ही रोपी जा चुकी हैं, जहां एक राजनीतिक समूह विकृत नैरेटिव गढ़कर दलितों-वंचितों को शेष हिंदू समाज के विरुद्ध खड़ा करने और मुसलमानों को मजहब के नाम पर एकजुट रखने का प्रपंच दशकों से रच रहा है।

सच तो यह है कि भारत को कई टुकड़ों में विभाजित करने की विकृत आकांक्षा विदेशी शक्तियों की चिरस्थायी कुंठा रही है। उनके निशाने पर केवल ब्राह्मण नहीं, अपितु संपूर्ण हिंदू समाज है। ब्राह्मणों का दानवीकरण कोई संयोग नहीं, बल्कि सुनियोजित षड्यंत्र है। ब्राह्मणों के प्रति घृणा की जड़ें हमें सीधे 16वीं शताब्दी और उसके उपरांत गढ़े गए कुटिल प्रपंचों में दिखाई देती हैं। जब 16वीं शताब्दी में भारत के दक्षिणी हिस्से में जेसुइट मिशनरी फ्रांसिस जेवियर का आगमन हुआ, तब उसने ब्राह्मणों को ईसाई मतांतरण के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोधक माना।

जेवियर ने 31 दिसंबर 1543 को ‘टू द सोसायटी एट रोम’ को पत्र लिखकर कहा, “यदि ब्राह्मण विरोध न करें, तो हम यहां सबको मसीह के चरणों में ले आएं... इतने वर्षों में मैंने केवल एक ब्राह्मण का ही मतांतरण किया है।” इसके बाद जेवियर ने ‘गोवा इंक्विजीशन’ का रक्तरंजित अभियान चलाया। इसमें केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि वे सीरियाई ईसाई भी शिकार बने, जो कैथोलिक रोमन चर्च के बजाय अपनी प्राचीन उपासना-पद्धति का पालन कर रहे थे। चर्च की दृष्टि में यह इतना बड़ा ‘अपराध’ था कि ऐसे लोगों की जीभ काट दी गई, तो जीवित रहते उनकी चमड़ी तक उधेड़ ली गई।

जेवियर के बाद 17वीं शताब्दी में राबर्ट डी नोबिली नामक अन्य जेसुइट मिशनरी भारत आया। ब्राह्मणों की जनसम्मानित प्रतिष्ठा देखकर उन्होंने साधु-संन्यासी का वेश धारण किया और स्वयं को ‘व्हाइट ब्राह्मण’ बताने लगा। मतांतरण की इस युक्ति को लेकर रोम में काफी विवाद भी हुआ। जब वर्ष 1757 में राबर्ट क्लाइव ने प्लासी युद्ध में निर्णायक जीत के साथ भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी, तब कालांतर में इस मजहबी षड्यंत्र को गति मिली।

1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में अंग्रेजों ने विवादास्पद अनुच्छेद जोड़कर न केवल अपने पादरियों और मिशनरियों के लिए भारतीयों के मतांतरण का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि उन्हें हर प्रकार के आधिकारिक सहयोग का भी आश्वासन दिया। उस समय गवर्नर-जनरल रहे लार्ड मिंटो ने अपने एक ज्ञापन में कुछ मिशनरियों की प्रचार सामग्री पर टिप्पणी की थी, ‘इस ग्रंथ का अधिकांश भाग वस्तुतः ब्राह्मणों के सामूहिक संहार को लक्षित करता दिखता है।’

इस प्रकार चर्च-मिशनरी ने अंग्रेजों के साथ गठजोड़ कर निहित स्वार्थ साधने हेतु ब्राह्मणों को कलंकित करने की विधिवत पटकथा लिखनी प्रारंभ की। इस उपक्रम में पहले मद्रास (चेन्नई) के ब्राह्मणों और अन्य सवर्ण-शिक्षित हिंदू वर्ग के मतांतरण का प्रयास किया गया, किंतु इसमें पूर्णत: असफल रहे। तब ब्रिटिश इतिहासकार और नेता थामस बैबिंगटन मैकाले ने अपनी कुख्यात ‘मिनट आन इंडियन एजुकेशन’ के माध्यम से भारतीय शिक्षा पद्धति को विकृत करने का अभियान चलाया।

मैकाले का मूल उद्देश्य अक्टूबर, 1836 में अपने पिता को लिखे पत्र से उजागर होता है, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा नीति सफल हो जाती है, तो 30 वर्षों के भीतर बंगाल के उच्च घरानों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं बचेगा।’ इसी विषाक्त गठजोड़ की कोख से अन्य औपनिवेशिक विकृतियों के साथ 1916 में ब्राह्मण-विरोधी ‘जस्टिस पार्टी’ का जन्म हुआ, जो आगे चलकर अलगाववादी ‘द्रविड़ आंदोलन’ के रूप में अवतरित हुई। इसके अंतर्गत हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों का अपमान करते हुए जुलूस भी निकाले जाने लगे। इसी नफरत की प्रतिध्वनि स्वतंत्र भारत में दशकों से सुनाई दे रही है। हालिया वर्षों में द्रमुक नेताओं द्वारा ‘सनातन धर्म’ को मिटाने का आह्वान इसका ज्वलंत उदाहरण है।

अक्सर ‘मनुस्मृति’ के बहाने अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों का ठीकरा तथाकथित ‘ब्राह्मणवाद’ के सिर फोड़ा जाता है, लेकिन यह ग्रंथ शाश्वत नहीं और फिर कालातीत हिंदू समाज ने समय के अनुरूप स्वयं को ढाला है और निरंतर अधिकाधिक बहुलतावाद, लोकतंत्र तथा पंथनिरपेक्षता के आदर्शों को आत्मसात किया है। वैसे गांधीजी ने 4 मई, 1928 को लिखा था, ‘मनुस्मृति में काफी कुछ प्रशंसनीय है... उसमें कुछ बुरा भी है... सुधारक को अच्छी चीजें ग्रहण करनी चाहिए और बुरी छोड़ देनी चाहिए।’

जहां तक अस्पृश्यता के उन्मूलन का प्रश्न है तो सिख गुरुओं से लेकर स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, गांधीजी, वीर सावरकर, डा. आंबेडकर और डा. हेडगेवार आदि ने अस्पृश्यता जैसी सामाजिक व्याधि के विरुद्ध सफलतापूर्वक आंदोलन चलाया। कोई भी सजग भारतीय अस्पृश्यता का समर्थन कर ही नहीं सकता।

वामपंथी और स्वघोषित सेकुलरवादी वर्षों से ‘सामाजिक अन्याय’ का राग अलापते रहे हैं, किंतु उनका ध्येय विषमताओं को मिटाना नहीं, बल्कि जातीय दरारों को स्थायी बनाए रखना है। इसलिए जब पीटर नवारो का ब्राह्मण-विरोधी विषाक्त वक्तव्य चर्चा में आया, तब भारत का एक राजनीतिक वर्ग उसकी ढाल बनकर सामने आ गया।

नवारो के आशय को ‘बोस्टन ब्राह्मण’ से जोड़कर मुद्दे को भटकाया भी जाने लगा। इससे दो बातें स्पष्ट है। पहली, नवारो की टिप्पणी विशुद्ध भारतीय संदर्भ में थी। दूसरी, जब विश्व पटल पर भारत का गौरव और प्रभाव निरंतर बढ़ रहा है, तब औपनिवेशिक शक्तियों को देश के भीतर अपनी इसी विचारधारा के मानस बंधुओं का साथ मिल रहा है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)