विचार: अवैध मतांतरण पर बने केंद्रीय कानून, एसटी के साथ अल्पसंख्यक वर्ग की योजनाओं का लाभ गलत हाथों में न जाए
इस परिप्रेक्ष्य में अन्य पंथ समुदायों के दलित और हिंदू दलितों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है। पिछले 60 वर्षों से दलित ईसाई और दलित मुसलमान हिंदू अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले अधिकारों की मांग करते आ रहे हैं। रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट ने इसकी पैरवी भी की थी।
प्रमोद भार्गव। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय राज्य में मतांतरण की गंभीर होती समस्या से निपटने के लिए एक कड़ा कानून लाने की तैयारी कर रहे हैं। इस कानून के तहत, जो लोग अनुसूचित जनजाति (एसटी) से ईसाई या मुस्लिम मजहब में परिवर्तित हो चुके हैं, उन्हें सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित किया जाएगा।
छत्तीसगढ़ में अवैध मतांतरण एक गंभीर समस्या बन चुकी है। इस नए कानून के लागू होने से अनुसूचित जाति (एससी) के लोगों की तरह अनुसूचित जनजाति के लोग भी सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हो जाएंगे। वर्तमान में, ईसाई या मुस्लिम बने आदिवासी न केवल एसटी वर्ग का लाभ ले रहे हैं, बल्कि वे अल्पसंख्यक वर्ग की योजनाओं का भी लाभ उठा रहे हैं। प्रस्तावित विधेयक में बिना सूचना के मत परिवर्तन करने पर 10 वर्ष तक की सजा का प्रविधान किया गया है। यह कानून छत्तीसगढ़ धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1968 की जगह लेगा।
आदिवासी नेता बाबा कार्तिक उरांव ने हमेशा मतांतरित आदिवासियों को आरक्षण देने का विरोध किया था। उन्होंने 1967 में संसद में अनुसूचित जाति एवं जनजाति आदेश संशोधन विधेयक-1967 पेश किया था। उस विधेयक पर संसद की संयुक्त समिति ने छानबीन की और 17 नवंबर, 1969 को अपनी सिफारिशें दी थीं।
इनमें एक प्रमुख सिफारिश थी कि कोई भी आदिवासी व्यक्ति, जिसने जनजाति आदिवासी मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम पंथ ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा और न ही वह आदिवासियों को मिलने वाली सरकारी सुविधाओं का पात्र रह जाएगा। इसका अर्थ यह है कि मत परिवर्तन के बाद उस व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाली सरकारी सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा।
संयुक्त समिति की सिफारिश के बावजूद एक वर्ष तक उस विधेयक पर संसद में बहस नहीं हुई। कहा गया कि ईसाई मिशनरियों के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने उस विधेयक को ठंडे बस्ते में डाल दिया। तब कांग्रेस में रहते हुए अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाकर बाबा कार्तिक उरांव ने 322 लोकसभा सदस्यों और 26 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षरों का एक पत्र इंदिरा गांधी को दिया था, जिसमें यह जोर देकर कहा गया था कि वे विधेयक की सिफारिशों को स्वीकार करें, क्योंकि यह तीन करोड़ वनवासियों के जीवन-मरण का प्रश्न है। अब आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ की सरकार कार्तिक उरांव की इसी इच्छा को पूरा करने की तैयारी में है।
हाल में भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और ढालसिंह बिसेन ने संसद में कहा था कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों को प्रलोभन देकर मत परिवर्तन का चलन लगातार बढ़ रहा है। दरअसल मतांतरण के संबंध में संविधान के अनुच्छेद-342 में अनुच्छेद-341 जैसे प्रविधान नहीं हैं। अनुच्छेद 341 में स्पष्ट कहा गया है कि अनुसूचित जाति के लोग यदि मत परिवर्तन करेंगे तो उनका आरक्षण समाप्त हो जाएगा। इस कारण यह वर्ग मतांतरण से बचा हुआ है।
जबकि अनुच्छेद-342 में संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जनजातियों के मत और पुरखों की पारंपरिक सांस्कृतिक आस्था को बनाए रखने के लिए व्यवस्था की है कि अनुसूचित जनजातियों को राज्यवार अधिसूचित किया जाएगा। यह आदेश राष्ट्रपति द्वारा राज्य की अनुशंसा पर दिया जाता है। इस आदेश के लागू होने पर उल्लिखित अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधानसम्मत आरक्षण के अधिकार प्राप्त होते हैं।
हालांकि इस आदेश में संशोधन का अधिकार संसद को प्राप्त है। अनुच्छेद-341 के अनुसार अनुसूचित जातियों के वही लोग आरक्षण के दायरे में हैं, जो भारतीय धर्म हिंदू, बौद्ध और सिख अपनाए हुए हैं। इस प्रकार यदि अनुच्छेद-342 में अनुच्छेद-341 जैसे प्रविधान हो जाते हैं, तो अनुसूचित जनजातियों में मतांतरण की समस्या पर अंकुश लग जाएगा।
संविधान के अनुच्छेद-15 के अनुसार पंथ, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर राष्ट्र किसी भी नागरिक के साथ पक्षपात नहीं कर सकता। इस दृष्टि से संविधान में विरोधाभास भी हैं। संविधान के तीसरे अनुच्छेद, अनुसूचित जाति आदेश-1950 के अनुसार केवल हिंदू धर्म का पालन करने वालों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं माना जाएगा, जिसे प्रेसिडेंशियल आर्डर के नाम से भी जाना जाता है।
इस परिप्रेक्ष्य में अन्य पंथ समुदायों के दलित और हिंदू दलितों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है। पिछले 60 वर्षों से दलित ईसाई और दलित मुसलमान हिंदू अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले अधिकारों की मांग करते आ रहे हैं। रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट ने इसकी पैरवी भी की थी। हालांकि 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले में कहा था कि एक बार जब कोई व्यक्ति हिंदू धर्म छोड़कर ईसाई या इस्लाम मतावलंबी बन जाता है, तो हिंदू होने के चलते उसके सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से कमजोर होने की अयोग्यताएं समाप्त हो जाती हैं।
लिहाजा उसे संरक्षण देना जरूरी नहीं है। इस हिसाब से उसे अनुसूचित जाति का व्यक्ति भी नहीं माना जाएगा। हिंदुओं का छल-छद्म से मतांतरण रोकने के लिए इस तरह का कानून अब छत्तीसगढ़ में ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए संसद के माध्यम से लाना अनिवार्य हो गया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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