विचार: भटका हुआ स्मार्ट सिटी अभियान, तैयार की गई योजनाओं पर देना होगा ध्यान
भारत के शहरी विकास को सुंदरीकरण से हटकर नए ग्रीनफील्ड निर्माण की ओर बढ़ना होगा। जिस तरह चीन ने शेंजेन को एक मछली पकड़ने वाले गांव से प्रौद्योगिकी और वित्त के वैश्विक केंद्र में बदल दिया उसी तरह भारत को भी नए शहरी केंद्र बनाने की इच्छाशक्ति दिखानी होगी जो लोगों और निवेश दोनों को आकर्षित कर सकें।
अनुरोध ललित जैन। वर्ष 2015 में मोदी सरकार ने स्मार्ट सिटी अभियान (एससीए) की शुरुआत की थी, जिसमें भारत के शहरी भविष्य को बदलने का वादा किया गया था। यह उद्देश्य प्रौद्योगिकी, नवाचार और बेहतर नियोजन का उपयोग करके सौ ऐसे शहर बनाना था, जो स्थिरता और दक्षता के माडल बन सकें। आज लगभग एक दशक बाद 1.5 लाख करोड़ रुपये निवेश के बावजूद भारतीय शहर एक अलग कहानी कहते हैं। जब गुरुग्राम, बेंगलुरु और मुंबई में भारी बारिश ने सड़कों को जलमग्न कर दिया, तो पानी भरे मार्गों पर फंसे यात्रियों को वह ‘स्मार्टनेस’ कहीं नजर नहीं आई, जिसका वादा किया गया था। भविष्य का खाका बनने वाला यह अभियान चुनिंदा सुंदरीकरण और भटकी हुई प्राथमिकताओं का प्रदर्शन बनकर रह गया है।
विश्व बैंक के अनुसार भारत की शहरी आबादी 2050 तक करीब 95.1 करोड़ हो जाएगी। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे महानगरों का विस्तार जारी है, वहीं भुवनेश्वर, कोयंबटूर, इंदौर, जयपुर सरीखे शहर विकास के नए केंद्र बन रहे हैं। परिवर्तन की यह गति शहरी ढांचों पर भारी दबाव पैदा कर रही है। अनियोजित निर्माण से जल निकासी व्यवस्था चरमरा रही है, आवास की कमी लोगों को अनौपचारिक बस्तियों में धकेल रही है और परिवहन नेटवर्क बढ़ते यातायात के दबाव में ढह रहे हैं।
इसे ध्यान में रखते हुए स्मार्ट सिटी अभियान इन शहरों के पास नए ग्रीनफील्ड उपनगरीय शहरों के निर्माण पर ध्यान दे सकता था। बजाय इसके इसने मौजूदा शहरों के छोटे-छोटे हिस्सों के सुंदरीकरण, ओवरब्रिज नवीनीकरण, स्ट्रीट लाइटों के डिजिटलीकरण और नियंत्रण केंद्र स्थापित करने पर ही अधिक ध्यान केंद्रित किया। जल निकासी और आवास जैसी गहरी समस्याओं का समाधान नहीं किया गया। इसके दुष्परिणाम मानसून में देखने को मिले।
अटल मिशन फार रेजुवेनेशन एंड अर्बन ट्रांसफार्मेशन यानी अमृत भारत सरकार की एक और महत्वाकांक्षी योजना है। इसका उद्देश्य 500 शहरों में बुनियादी सुविधाओं का विकास करना है। इस अभियान में पेयजल, मल जल प्रणाली, वर्षा जल निकासी और हरे-भरे स्थान जैसी बुनियादी सुविधाओं को ठीक करने का वादा किया गया।
इसके पहले चरण में पांच साल के लिए 50,000 करोड़ रुपये बजट था। दूसरे चरण में लगभग 2.9 लाख करोड़ रुपये। इसका लक्ष्य शहरी भारत में पानी और मल जल प्रणाली को बेहतर करना था, लेकिन इस बरसात में देश ने देखा कि शहरों की कैसी दुर्दशा हुई। हमारे छोटे-बड़े शहर हर बारिश के दौरान टापुओं में तब्दील हो जाते हैं, जिससे जनजीवन प्रभावित होता है।
लगता है कि भारत के शहरी विकास के कार्यक्रम अभी भी अलग-अलग खांचों में डिजाइन किए जाते हैं। नई दिल्ली में तैयार की गई योजनाएं शायद भारतीय शहरों की विविधता से भरी वास्तविकताओं से कटी हुई हैं। शहरों के बेहतर भविष्य के लिए इन खांचों को तोड़ना होगा और स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाने के साथ दीर्घकालिक नियोजन को शहरी नीति का केंद्र बनाना होगा।
हालांकि सरकार ने गुजरात में धोलेरा, गिफ्ट सिटी, औरंगाबाद औद्योगिक शहर और ग्रेटर नोएडा जैसे कुछ ग्रीनफील्ड पहलों को आगे बढ़ाया है। 2024 में राष्ट्रीय औद्योगिक कारिडोर विकास कार्यक्रम (एनआइसीडीपी) के तहत एक दर्जन नए औद्योगिक केंद्रों को भी मंजूरी दी गई। अच्छा हो कि इनमें समावेशी शहरी विकास की व्यापक चुनौतियों को भी ध्यान में रखा जाए।
भारत के शहरी विकास को सुंदरीकरण से हटकर नए ग्रीनफील्ड निर्माण की ओर बढ़ना होगा। जिस तरह चीन ने शेंजेन को एक मछली पकड़ने वाले गांव से प्रौद्योगिकी और वित्त के वैश्विक केंद्र में बदल दिया, उसी तरह भारत को भी नए शहरी केंद्र बनाने की इच्छाशक्ति दिखानी होगी, जो लोगों और निवेश, दोनों को आकर्षित कर सकें। शहरों के आकर्षण को केवल ऊंची इमारतों और राजमार्गों से नहीं, बल्कि बुनियादी सुविधाओं की सुगमता से मापा जाना चाहिए।
वित्तीय प्रोत्साहनों के माध्यम से ग्रीनफील्ड परियोजनाओं को धरातल पर लाया जा सकता है। भारत में संपत्ति कर अनुपालन बहुत कम है, जबकि स्टैंप शुल्क दुनिया में सबसे अधिक है, जो औपचारिक लेनदेन को हतोत्साहित करता है। नई स्मार्ट सिटीज को इन करों से बोझिल करने के बजाय सरकार पहले दशक के लिए कम संपत्ति कर, कम स्टैंप शुल्क और सुव्यवस्थित मंजूरी की पेशकश कर सकती है। सही प्रोत्साहन और नियोजन के साथ बड़े शहरों के पास उपनगरीय शहर नए अवसरों के केंद्रों के रूप में विकसित हो सकते हैं।
हाल के वर्षों में भारत के चमकदार महानगरों को डुबोने वाली बाढ़ को केवल मौसम की घटना के रूप में नहीं, बल्कि शहरों के त्रुटिपूर्ण विकास की देन के रूप में देखा जाना चाहिए। भारत के शहरीकरण की रफ्तार अपेक्षा से तेज है। हमारे सामने विकल्प स्पष्ट है। या तो हम तनावग्रस्त महानगरों में ऊपरी सतह पर कार्य करें या फिर साहस के साथ नए, अच्छी तरह से वित्तपोषित और वास्तव में रहने योग्य शहरों का निर्माण करें।
(लेखक कांग्रेस के अल्पसंख्यक विभाग के उपाध्यक्ष हैं)
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