आचरण, विचार और सद्चरित्र ही धर्म है। जो व्यक्ति नैतिक है, जिसका आचरण पवित्र है एवं जो अपने कर्मों के प्रति निष्ठावान है और जो जीवन के अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता है वह व्यक्ति धार्मिक है। धर्म का पूजा-पाठ से कोई संबंध नहीं है। पूजा-पाठ किए बगैर भी कोई व्यक्ति धार्मिक हो सकता है। संत रविदास मंदिरों में बैठकर पूजा नहीं किया करते थे। वह दिन-रात जूते के व्यापार में लगे रहते थे। कबीरदास कभी किसी मंदिर में नहीं गए। तिलक-माला नहीं धारण की, लेकिन इन लोगों से बड़ा धार्मिक आदमी खोजना मुश्किल है। वे पूरी तरह धार्मिक हो गए थे। उनका चरित्र धार्मिक था। वे संपूर्ण रूप से धार्मिक व्यक्ति थे, लेकिन दुर्भाग्य से आज धर्म की गलत व्याख्या की जा रही है। धर्म को रिलीजन कहा गया। यह शब्द धर्म को सही तरह से व्याख्यायित नहीं करता। मूल रूप से धर्म का अर्थ होता है, जो धारण किया जाए। जो विचार, चरित्र और नैतिकता हम अपने जीवन में धारण करते हैं वहीं धर्म है। धर्म का अर्थ है कत्र्तव्य। इसलिए प्राय: लोग कहते हैं कि मैं पितृ धर्म का पालन कर रहा हूं। पुत्र धर्म, छात्र धर्म, पत्नी धर्म, सामाजिक दायित्व का धर्म और सबसे बड़ा राष्ट्र धर्म, इन शब्दों के साथ जो धर्म जुड़ा है वह मंदिरों में बैठकर गीता पढऩे वाला धर्म नहीं है। राष्ट्र धर्म का अर्थ है राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन। धर्मराज ने कहा है कि धर्म की व्याख्या अनेक लोगों ने की, लेकिन मूल रूप से धर्म वही है जिस पर महापुरुष चलते हैं और हम जिनका अनुकरण करते हैं। यहां भी धर्मराज ने किसी मंदिर में बैठकर पूजा करने की बात नहीं कही।

धर्म वह है जो जीवन को सुखी और नैतिक बनाए। श्रीकृष्ण ने गीता में लिखा है कि मनुष्य को अपने धर्म के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। अपने कर्तव्य के निर्वाह में मृत्यु भी हो जाए तो कोई बात नहीं, लेकिन दूसरों के कर्तव्य निर्वहन में विघ्न डालना उचित नहीं है। अपने धर्म का पालन ही अपने नैतिक कर्तव्यों का निर्वहन है। यहां भी धर्म का अर्थ पूजा-पाठ नहीं है। गीता में जहां कहीं भी धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है- उसका अर्थ है कत्र्तव्यों का निर्वाह करना। आज भी हम अपने मित्रों को परामर्श देते हैं कि आप अपने धर्म का पालन करें। मतलब अपने कत्र्तव्य का पालन करो।

[सुदर्शन जी]