भगवान कृष्ण ने कहा है कि शरीर का निर्माण पांच तत्वों-पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और तीन गुणों- सतो , रजो व तमो (तम) से हुआ है। इसके बाद ब्रह्म का अंश जीव के रूप में शरीर में प्रवेश करके उसे जीवात्मा बनाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृति के गुण जीव निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रकृति के गुणों के विद्यमान होने के अनुपात के अनुसार जीव की वृत्ति का निर्धारण होता है। जन्म-जनमांतर यह वृत्ति मन के रूप में जीव के साथ चलती रहती है। अष्टांग योग में साधक यम, नियम, आसन इत्यादि द्वारा मन के निग्रह का ध्येय लेकर चलता है। मन का पूर्ण निग्रह होते ही जीव परम ब्रह्म में विलीन होकर जीवन-मरण के चक्त्र से मुक्त हो जाता है, परंतु आज के समाज में मन के निग्रह की कल्पना कठिन नजर आती है। इसका प्रमुख कारण है अनियंत्रित भोग-विलास और यम के प्रमुख स्तंभ अस्तेय व अपरिग्रह का पालन न होना। अस्तेय का अर्थ है- चोरी न करना और अपरिग्रह का मतलब है जरूरत से ज्यादा संग्रह न करना। आज ज्यादातर मनुष्य किसी न किसी प्रकार की चोरी में लिप्त हैं। अपरिग्रह के बारे में तो कोई सोच ही नहीं रहा है। जीवनयापन से च्यादा धन यदि मनुष्य समाज की भलाई में लगा दे तो समाज का आर्थिक असंतुलन समाप्त हो सकता है और धन की चोरी रोकी जा सकती है।

अत्यधिक धन संग्रह की इच्छा रजोगुण में वृद्धि का मूल कारण है। जब च्यादा धन संग्रह हो जाता है, तब विलासिता, मोह व भय उत्पन्न होने लगते हैं और इनके द्वारा तमोगुण की प्रधानता होने लगती है। तमो गुण से ग्रस्त व्यक्ति निम्न योनियों जैसे-पशु, पक्षी आदि के रूप में जन्म लेता है क्योंकि अस्तेय व अपरिग्रह को जीवन में न अपनाकर वह निम्न योनियों को प्राप्त कर रहा है। जीव का अगला जन्म उसके अंदर विद्यमान गुणों पर निर्भर करता है। निम्न योनियां जैसे पशु-पक्षी आदि केवल अपना पेट भरने व अपनी सुरक्षा के बारे में ही सोचती हैं। इसलिए जो मनुष्य केवल इसी प्रकार सोचता है, वह भी पशु समान ही है। उसे पशु की योनि प्राप्त होती है।

[कर्नल शिवदान सिंह]