आदित्य सिन्हा। पहलगाम आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान के साथ बढ़े तनाव के बीच तमाम पहलुओं पर विचार किया जा रहा है। पाकिस्तान पर संभावित कार्रवाई के विकल्पों के बीच अतीत के पन्ने भी पलटे जा रहे हैं। ऐसा ही एक अध्याय नौसेना के आपरेशन ट्राइडेंट से जुड़ा है। भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान दिसंबर 1971 में भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर औचक हमला कर दुश्मन को चौंका दिया था। उस हमले में तीन पाकिस्तानी पोत डुबो दिए गए। फ्यूल टैंक्स ध्वस्त किए गए। इसे भारत के सबसे सफल एवं आक्रामक नौसैनिक अभियानों में से एक माना जाता है।

हालांकि इस सफलता से जुड़ी सुर्खियों में यह तथ्य कहीं दबकर रह गया कि उस कामयाबी में ओसा-क्लास मिसाइल नौकाओं और युद्धक सामग्री की अहम भूमिका रही, जो सोवियत मूल की थीं। भारत ने भले ही वह लड़ाई जीत ली हो, लेकिन उस युद्ध ने विदेशी नौसैन्य तकनीक पर हमारी निर्भरता को ही उजागर किया था। उसके दशकों बाद भी यह सामरिक नाजुक कड़ी कुछ वैसी ही बनी हुई है। इस बीच भारत के समक्ष सामुद्रिक मोर्चे पर चुनौतियां और बढ़ी हैं तब स्वदेशी स्तर पर शिपबिल्डिंग यानी पोत निर्माण की जरूरत कहीं ज्यादा बढ़ जाती है। यह केवल औद्योगिक आकांक्षाओं के दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा की अनिवार्यता है।

वैश्विक अनुभव देखें तो शिपबिल्डिंग में लाभ ही लाभ हैं। यह रोजगार सृजन और तकनीकी क्षमताएं बढ़ाने के साथ आर्थिक वृद्धि को गति देता है। कई आकलनों के अनुसार शिपबिल्डिंग में निवेश होने वाले 1,000 करोड़ रुपये से 6,000 प्रत्यक्ष और 15,000 अप्रत्यक्ष रोजगार सृजित हो सकते हैं। वैश्विक शिपबिल्डिंग बाजार का आकार करीब 145 अरब डालर है। इसमें 47 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ चीन, 29 प्रतिशत के साथ दक्षिण कोरिया और 15 प्रतिशत के साथ जापान का दबदबा है। इन तीनों देशों ने 2023 में विश्व की 90 प्रतिशत से अधिक मांग को पूरा किया। जबकि एक बड़ी तटरेखा वाले भारत की हिस्सेदारी एक प्रतिशत से भी कम रही।

एक सशक्त शिपबिल्डिंग क्षेत्र केवल बंदरगाहों और सामुद्रिक आवाजाही को ही बेहतर नहीं बनाता, बल्कि इसके जरिये स्टील, इलेक्ट्रानिक्स, आइटी और अन्य कौशलों वाले व्यापारों को भी आगे बढ़ाने में मदद मिलती है। दक्षिण कोरिया जैसे देश ने पिछली सदी के अंतिम पड़ाव पर अपनी औद्योगिक जड़ों को गहरा करने में शिपबिल्डिंग को आधार बनाया। आज भारत के सामने भी वही स्थिति एवं अवसर विद्यमान हैं। भारत सरकार इन संभावनाओं को भुनाने के पूरे प्रयासों में भी जुटी है। वर्ष 2016 से 2021 के दौरान शिपबिल्डिंग फाइनेंशियल असिस्टेंस पालिसी के तहत 4,500 करोड़ रुपये की शिपबिल्डिंग सब्सिडी के साथ ही सागरमाला जैसे अभियान को गति प्रदान की गई है। इस साल के बजट में भी कई प्रविधान किए गए हैं, जिनका दीर्घकालिक उद्देश्य वर्ष 2047 तक भारत को शिपबिल्डिंग क्षेत्र में वैश्विक महारथी बनाने का है।

मैरिटाइम डेवलपमेंट फंड यानी एमडीएफ जैसी पहल इन प्रयासों के केंद्र में है। सरकार जहां 25,000 करोड़ रुपये के इस कोष में 49 प्रतिशत का योगदान करेगी तो शेष राशि बंदरगाहों एवं निजी क्षेत्र के साझेदारों के जरिये आएगी। इस कोष के जरिये शिपबिल्डिंग और जहाजों की मरम्मत सुविधाएं विकसित करने के लिए दीर्घकालिक एवं किफायती पूंजी उपलब्ध होगी। इस पहल को नवगठित शिपबिल्डिंग फाइनेंशियल असिस्टेंस पालिसी से और मदद मिलेगी। इस योजना में 18,090 करोड़ रुपये के अंशदान से भारतीय शिपबिल्डिंग उद्योग को लागत प्रतिस्पर्धा की चुनौती से उबारने की तैयारी है। इसी कड़ी में एक निर्धारित सीमा से बड़े जहाजों को इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं का दर्जा दिया जाएगा। इससे उन्हें आसान वित्तीय संसाधन उपलब्ध होने के साथ उनकी अन्य बाधाएं दूर होंगी। सरकार ने घरेलू रिसाइक्लिंग उद्योग को बढ़ावा देने एवं देश में बने जहाजों की खरीद को बढ़ावा देने के लिए शिपब्रेकिंग क्रेडिट नोट स्कीम का एलान भी किया है। बजट में भी सार्वजनिक निजी भागीदारी-पीपीपी के तहत विशाल शिपबिल्डिंग क्लस्टर के निर्माण की राह तैयार की गई है।

इन नीतिगत प्रयासों के जमीनी स्तर पर परिणाम भी नजर आने लगे हैं। केरल सरकार ने विझिंजम पोर्ट के निकट पूवार में एक भीमकाय डीप-वाटर शिपबिल्डिंग एंड रिपेयर फैसिलिटी का विचार आगे बढ़ाया है। यह विशालकाय जहाजों को संभालने के साथ ही निकटवर्ती अंतरराष्ट्रीय शिपिंग लेंस का लाभ उठाने में भी मददगार होगा। इसी कड़ी में दुनिया की दिग्गज शिपबिल्डिंग निर्माता कंपनियों में से एक एचडी हुंडई हेवी इंडस्ट्रीज तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में नए शिपयार्ड की संभावनाएं तलाशने में लगी है। कंपनी का प्रतिनिधिमंडल एलएंडटी जैसी घरेलू दिग्गज के साथ निर्णायक बातचीत के दौर में है। इस मोर्चे पर बात बनते ही कंपनी अपनी महारत से भारत को लाभ पहुंचाएगी।

सामरिक मोर्चे पर भारत की बढ़ती चुनौतियों को देखते हुए भी शिपबिल्डिंग पर ध्यान देना आवश्यक हो गया है। चीनी नौसेना अब विश्व की सबसे बडी नौसेना बन गई है। वर्ष 2023 तक उसके बेड़े में 370 से अधिक युद्धपोत हो गए हैं। चीन अफ्रीकी तट पर जिबूती से लेकर एशिया में ग्वादर, श्रीलंका, म्यांमार और मालदीव तक एक व्यूह रचना के निर्माण में लगा है। चीन और पाकिस्तान के बीच निकट सहयोग भी अरब सागर में भारत की चुनौतियां बढ़ाने का काम करता है। इसे देखते हुए भारत ने भी अपनी सक्रियता बढ़ाई है।

भारतीय नौसेना का लक्ष्य वर्ष 2035 तक 200 युद्धपोतों का बेड़ा तैयार करने का है, लेकिन इस दिशा में प्रगति अभी बहुत धीमी है। इसे इससे भी समझा जा सकता है कि अभी 41 पोत और पनडुब्बियां निर्माणाधीन हैं और उनके निर्माण के लिए भी हमें विदेशी इंजन, रडार और इलेक्ट्रानिक्स उपकरणों की आवश्यकता होती है। यह निर्भरता नाजुक वैश्विक आपूर्ति शृंखला के दौर में और मुश्किलें पैदा कर सकती है। इसलिए भारत को प्रत्येक मोर्चे को साधकर पोत निर्माण में आत्मनिर्भरता हासिल करनी ही होगी।

(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)