राजीव सचान : संसद का जो मानसून सत्र 12 अगस्त तक चलना था, वह चार दिन पहले ही समाप्त हो गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। इसके पहले भी संसद के कई सत्रों का समय से पहले समापन हुआ है। आम तौर पर जब भी ऐसा हुआ, तो यही कहा गया कि आवश्यक विधायी कामकाज पूरे हो गए थे, लेकिन सच यह है कि संसद को सही तरह चलाना कठिन हो गया था। मानसून सत्र में भी यही हुआ। भले ही आधिकारिक रूप से यह कहा गया हो कि चार दिन पहले सत्र का समापन आने वाले त्योहारों के कारण किया जा रहा है, लेकिन सच यही है कि इस सत्र को इसलिए समय से पूर्व समाप्त करना पड़ा, क्योंकि हंगामे और हल्ले का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। नि:संदेह सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती थी कि 8 अगस्त के बाद कुछ त्योहार होंगे?

मानसून सत्र में संसद के दोनों सदनों में पहले दो हफ्ते तो कोई विशेष काम ही नहीं हुआ, क्योंकि पक्ष-विपक्ष में इस पर सहमति नहीं बन पाई कि महंगाई, बेरोजगारी और दूसरे अन्य विषयों पर कब एवं कैसे बहस हो? अंतत: दो सप्ताह बाद महंगाई पर बहस हुई, लेकिन जो कांग्रेस इस मसले पर चर्चा को लेकर सबसे अधिक बल दे रही थी, उसके सांसद उस समय सदन से बाहर निकल गए, जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपना जवाब देने के लिए खड़ी हुईं। स्पष्ट है कि कांग्रेस की रुचि इसमें थी ही नहीं कि संसद में महंगाई और दूसरे अन्य विषयों पर कोई सार्थक चर्चा हो। कुछ ऐसी ही भाव-भंगिमा से अन्य विपक्षी दल भी लैस थे। सत्तापक्ष भी ऐसी कोई पहल करते हुए नहीं दिखा कि पहले उन विषयों पर चर्चा पर हो जाए, जिन पर विपक्षी दल जोर दे रहे हैं। संभवत: इसका कारण यह आशंका रही हो कि ऐसा होने पर भी विपक्ष संसद नहीं चलने देगा। जो भी हो, तथ्य यही है कि संसदीय कामकाज की दृष्टि से संसद का यह सत्र सबसे खराब रहा। इस सत्र में लोकसभा से केवल छह विधयेक पास हुए और राज्यसभा से मात्र पांच।

संसद और विधानसभाओं के संचालन के मामले में इस उक्ति का खूब प्रयोग होता है कि सदन चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है। यह सही तो है, लेकिन एक हद तक ही। यदि विपक्षी दल यह ठान लें कि सदन नहीं चलने देना है तो फिर सत्तापक्ष की तमाम सकारात्मकता के बाद भी वह नहीं चल सकता। समस्या यह है कि अब विपक्षी दल अक्सर पहले ही तय कर लेते हैं कि सदन नहीं चलने देना है। संसद और विधानसभाओं के सत्र के पहले जो सर्वदलीय बैठकें बुलाई जाती हैं, वे न केवल निरर्थक साबित होती हैं, बल्कि समय और संसाधन की बर्बादी का कारण भी बनती हैं। आम तौर पर इन बैठकों में जहां सत्तापक्ष की ओर से यह कहा जाता है कि वह सभी विषयों पर चर्चा के लिए तैयार है, वहीं विपक्षी दलों की ओर से यह वादा किया जाता है कि वे रचनात्मक सहयोग देंगे।

सच्चाई यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं होता। करीब-करीब हर बार संसद और विधानसभाओं के सत्र की शुरुआत विपक्षी नेताओं की नारेबाजी के साथ होती है। वे बैनर और तख्तियां लेकर सदन में पहुंचते हैं और वहां इसके लिए हरसंभव कोशिश करते हैं कि वे टीवी के कैमरों में कैद हो जाएं। सदन में नारेबाजी करने और तख्तियां लहराने के लिए बाकायदा तैयारी भी होती है। नेतागण सदन में किस विषय पर क्या कहना है, इसकी तैयारी करने के बजाय इसके लिए परिश्रम करते हैं कि तख्तियों पर क्या नारे लिखे जाएं? जब सदस्य सदन में अपने असंसदीय-अभद्र आचरण के लिए निलंबित किए जाते हैं तो वे इसे भी एक मुद्दा बना लेते हैं और देश-प्रदेश में तानाशाही लागू हो जाने की घोषणा करने के साथ यह भी कहने लगते हैं कि उनकी आवाज को दबाया जा रहा है।

संसद के मानसून सत्र में लोकसभा के चार सदस्य निलंबित किए गए। इसके बाद राज्यसभा के एक के बाद एक कई सदस्य निलंबित किए गए। एक विपक्षी सांसद इससे खिन्न हो गए कि हंगामा खड़ा करने के बाद भी उन्हें क्यों नहीं निलंबित किया गया तो अगले दिन उन्होंने और ज्यादा हंगामा किया। आखिरकार वह निलंबित हो गए। वास्तव में वह यही चाहते थे। जब यह स्थिति हो, तब इस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि संसद और विधानसभाओं की प्रतिष्ठा और महत्ता लगातार कम क्यों होती जा रही है? सच तो यह है कि विधानसभाओं की स्थिति और भी दयनीय है। विधानसभाओं के चलने के दिन लगातार कम होते जा रहे हैं।

कई बार तो विधानसभाओं के सत्र दो-तीन दिन और यहां तक कि एक दिन के लिए भी बुलाए जाने लगे हैं। जब ऐसा होता है तो उस दौर की राशन की वे दुकानें याद आने लगती हैं, जो एकाध दिन के लिए ही खुलती थीं और फिर हड़बड़ी, अव्यवस्था और आपाधापी के बीच राशन बांटकर बंद हो जाती थीं। विधानसभाओं के सत्र एक-दो दिन के लिए बुलाकर जैसे-तैसे आवश्यक विधेयकों को पारित करा लिया जाता है और फिर यह कह दिया जाता है कि विधायी एजेंडा पूरा हो गया।

ऐसे भी अवसर आए हैं, जब विधानसभाओं के सत्र केवल इसलिए बुलाए गए, ताकि विपक्षी दलों अथवा केंद्र सरकार को खरी-खोटी सुनाई जा सके या फिर ऐसा कुछ कहा जा सके, जिसे सदन के बाहर कहना मुश्किल हो। ज्ञात हो कि संसद या विधानसभा के अंदर कही गई किसी बात के लिए संबंधित जनप्रतिनिधि के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती। यह एक विशेषाधिकार है और यह बना रहना चाहिए, लेकिन यह ठीक नहीं कि इसका इस्तेमाल जनता को बरगलाने-उकसाने के लिए हो। एक लंबे समय से संसद और विधानसभाओं की गरिमा में गिरावट को लेकर चिंता जताई जा रही है, लेकिन वैसे उपाय कहीं भी नहीं हो रहे कि उनकी प्रासंगिकता और महत्ता बढ़ सके।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)