इन दिनों एक बार फिर से बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अरुंधति राय चर्चा में हैं। वर्ष 2011 में दिए गए उनके एक भाषण के अंश को पाकिस्तानी मीडिया ने भारत को बदनाम करने की नीयत से छाप दिया। पाकिस्तान के हुक्मरानों ने भी उसकी आड़ में भारत को घेरने की कोशिश की। अरुंधति के उस बयान के सामने आते ही सोशल मीडिया पर एक बवंडर सा उठा, जमकर इस विषय पर चर्चा शुरू हो गई।

भारत और बांग्लादेश के ट्वीटर उपयोगकर्ताओं ने उनकी लानत-मलामत शुरू की और ‘डबल स्टैंडर्ड’ हैशटैग के साथ यह मसला ट्वीटर पर ट्रेंड करने लगा। दरअसल वर्ष 2011 में अरुंधति राय ने एक चर्चा के दौरान घोर आपत्तिजनक बातें कही थीं। ये ऐसी बातें हैं जो सीधे सीधे राष्ट्र के खिलाफ हैं। उनका अंदाज ही भारत को अपमानित करने जैसा था और कहीं से भी यह नहीं लग रहा था कि एक भारतीय बोल रहा हो।

भारत के बारे में अरुंधति ने कही ये बात 

भारत के बारे में अरुंधति ने कहा कि वो भारत जैसी जगह के बारे में बात कर रही हैं जहां कश्मीर, मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम में तब से युद्ध हो रहे हैं जब से भारत एक संप्रभु राष्ट्र बना। भारत जब गुलामी की बेड़ियों से आजाद हुआ तब से ही वह एक औपनिवेशिक राष्ट्र बन गया। तमाम झंझावातों के बीच हिंदुस्तान का लोकतंत्र मजबूत और परिपक्व हुआ, ये अरुंधति को ना तो दिखा और ना ही वो समझ पाईं। अपने जहर बुङो बयान में अरुंधति ने कहा कि भारत में 1947 से ही कश्मीर, मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम, पंजाब, तेलंगाना, गोवा, हैदराबाद में निरंतर युद्ध जारी है और भारत ने अपनी ही जनता के खिलाफ सेना की तैनाती की और युद्ध किया।

झलक उठा अरुंधति का पाकिस्तान प्रेम

अरुंधति का पाकिस्तान प्रेम तब झलक उठा जब वो बोलीं कि पाकिस्तान ने अपनी सेना को उस तरह से अपने देश की जनता के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जिस तरह से लोकतांत्रिक भारत ने किया। उनका ये वीडियो सामने आते ही भारत और बांग्लादेश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। बांग्लादेश के लोगों ने अरुंधति को 1971 में पाकिस्तानी सेना के पूर्वी बंगाल (जो बांग्लादेश बना) में किए कुकृत्यों की याद दिलानी शुरू कर दी। एक के बाद एक अत्याचार की फेहरिश्त सामने आने लगी। दरअसल अरुंधति जैसे लोग भारत के खिलाफ बोल अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोरते हैं।

अरुंधति की इस चर्चा को सुनते हुए मुङो 24 फरवरी 2016 को तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का लोकसभा में दिया भाषण याद आ गया। स्मृति ईरानी के भाषण के पहले तृणमूल कांग्रेस के सांसद डॉ. सुगतो बोस ने भाषण दिया था और उनके भाषण पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी मुग्ध थे, तालियां बजा रहे थे। जब स्मृति ईरानी के बोलने की बारी आई तो उन्होंने भी सुगतो बोस के भाषण की सराहना की, लेकिन सोनिया और राहुल गांधी के सामने बोस की बहन शर्मिला बोस की किताब के कुछ पन्ने खोल दिए। जिस सुगतो बोस के भाषण पर कांग्रेसी लहालोट हो रहे थे, उन्हीं की बहन इतिहासकार शर्मिला बोस ने एक किताब लिखी थी- द डेड रेकनिंग। किताब में शर्मिला बोस ने लिखा है- ‘बांग्लादेश मुक्ति संग्राम एक भ्रांति है, मिथ्या है, पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी बंगाल के लोगों पर किसी तरह का अत्याचार किया ही नहीं था जिसे बचाने के लिए इंदिरा गांधी गई थीं।’

नहीं छेड़ा कोई नया राग

अरुंधति ने कोई नया राग नहीं छेड़ा है, बल्कि इस तरह के जहर बुङो बयान या लेखन लंबे समय से होते रहे हैं। बहुधा पाकिस्तान के पक्ष में। अरुंधति ने तो भारत की इस तरह की तस्वीर पेश की जैसे यहां दलितों, अल्पसंख्यकों को सेना की मदद से कुचला जा रहा हो। अरुंधति अपने भाषण में प्रश्न उठाती हैं कि ये कौन लोग हैं जिनके खिलाफ भारत ने युद्ध छेड़ रखा है या युद्ध करना तय किया है। फिर खुद ही उसका उत्तर देती हैं कि पूवरेत्तर में आदिवासियों, कश्मीर और हैदराबाद में मुसलमानों, तेलंगाना में आदिवासियों, गोवा में ईसाइयों और पंजाब में सिखों के खिलाफ। इतना बोलते बोलते वो यह भी कह जाती हैं कि ये सब ‘अपर कास्ट हिंदू स्टेट’ की तरफ से किया जा रहा है। 

अब इस अंतिम वाक्य से ही उनका एजेंडा साफ हो जाता है। ये सीधे-सीधे समाज को बांटनेवाला बयान है, देश के खिलाफ वहां की जनता को उकसानेवाला बयान है। जब वो ये बात कह रही थीं तब वो भूल गई थीं कि उस वक्त देश को तीन अल्पसंख्यक समुदाय के लोग ही चला रहे थे, मनमोहन सिंह उस वक्त देश के प्रधानमंत्री थे जो सिख समुदाय से आते हैं, सत्ताधारी दल कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ईसाई और उनके राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल मुसलमान। क्या तब किसी कोने से ये आवाज आई थी कि बहुसंख्यक हिंदुओं के देश में तीन सबसे ताकतवर शख्सियत जो सत्ता चला रहे थे वो अल्पसंख्यक समुदाय के थे। नहीं।

अरुंधति के बयान से अपने हक में प्रचार कर रहा पाकिस्तान 

आज भी इस तथ्य को रेखांकित करना इस वजह से आवश्यक हो गया, क्योंकि अरुंधति के बयान को पाकिस्तान अपने हक में प्रचारित करने में लगा है। अरुंधति जिन माओवादियों और अलगाववादियों को भारत का नागरिक मान रही हैं उनकी आस्था भारत में कभी नहीं रही। वो भारत को तोड़ने का सपना देखते रहे और किसी भी संप्रभु राष्ट्र को अपने देश की संप्रभुता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने का अधिकार है। अब भी अरुंधति के पक्ष में लेख लिखे जा रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक ये भूल गए हैं कि भारत में कभी भी माओवादियों या नक्सलियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल नहीं किया गया।

फिक्शन की चाश्नी में लपेटकर कर रहीं पेश  

दरअसल अरुंधति जैसे लोगों की, उन जैसे लेखकों की बुनियाद ही भारत बोध पर टिकी है। वो वैश्विक मंचों पर जाकर भारत में हो रहे कथित अत्याचारों पर, कथित मानवाधिकार हनन पर भाषण देती रही हैं। उनके समर्थन में लिखनेवाले कुछ लोग अभी हाल में प्रकाशित उनकी किताब ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ से उदाहरण देकर उनका बचाव करने की कोशिश में लगे हैं।

जब ये पुस्तक प्रकाशित हुई थी तो इसको फिक्शन कहकर प्रचारित किया गया था, बुकर प्राइज के लिए उसको फिक्शन कैटेगरी में ही नामित किया गया था। अब उनके समर्थक उस उपन्यास को ही तथ्य के तौर पर पेश कर रहे हैं। अगर हम अरुंधति के समर्थकों के तर्को को मान भी लें तो उस किताब में और भी बहुत कुछ लिखा गया है। अरुंधति का उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ एक लड़के की कहानी से शुरू होता है। 

घटनाओं के बाद जैसे ही पात्रों के बीच संवाद शुरू होता है वैसे ही लेखक पर एक्टिविस्ट हावी हो जाता है और वो अपनी वैचारिकी का बोझ पाठकों पर लादने लग जाती है। फिक्शन की आड़ लेकर जब अरुंधति कश्मीर के परिवेश में घुसती हैं तो अपने पूर्वाग्रहयुक्त नजरिये को सामने रखती नजर आती हैं। कश्मीर के परिवेश का वर्णन करते हुए वो लिखती हैं- ‘मौत हर जगह है, मौत ही सबकुछ है, करियर, इच्छा, कविता, प्यार मोहब्बत सब मौत है। मौत ही जीने की नई राह है। जैसे जैसे कश्मीर में जंग बढ़ रही है, कब्रगाह भी उसी तरह से बढ़ रहे हैं, जैसे महानगरों में मल्टी लेवल पार्किग बढ़ते जा रहे हैं।

कश्मीर समस्या में उनको जंग नजर आ रहा था। अपनी सैद्धांतिकी को वे फिक्शन की चाशनी में लपेटकर पेश कर रही हैं, ताकि निकल गया तो ठीक है पाठकों के दिमाग में बात घर कर जाएगी और अगर ज्यादा आलोचना हुई तो उसको फिक्शन कहकर पल्ला झाड़ लिया जाएगा। उपन्यास का एक पात्र बिप्लब दासगुप्ता एक सरकारी मुलाजिम है, जो खूब शराब पीता है व कश्मीर में पदस्थापित है। उसकी हरकतों को भी अरुंधति ने विषय बनाया है। संकेत ये कि सरकारी मुलाजिम ठीक व्यवहार नहीं करते।

उस उपन्यास में अरुंधति ने बताया है कि किस तरह की परिस्थितियों के चलते कश्मीरी युवक आतंकवादी बन जाता है, कहीं भी आतंक की असली वजह पर, उसकी जमीन तैयार करने में पाकिस्तान की भूमिका पर जोर डाला है, ऐसा याद नहीं पड़ता। अब भले ही अरुंधति ने भारतीय सेना की तैनाती को लेकर दिए अपने बयान पर माफी मांग ली है, लेकिन जो जहरीली सोच अंदर तक घुसी है, उसका क्या किया जा सकता है, इस पर विचार करना चाहिए।

मशहूर रूसी लेखक सोल्ङोनित्सिन ने लिखा था- ‘कम्युनिस्ट विचारधारा एक ऐसा पाखंड है जिससे सब परिचित हैं, नाटक के उपकरणों की तरह उसका इस्तेमाल भाषण के मंचों पर होता है।’ तो क्या ये माना जाए कि अरुंधति वो पाखंड रच रही थीं और भाषण के मंच का इस्तेमाल कर रही थीं।

अनंत विजय, (लेखक जागरण में एसोशिएट एडिटर के पद पर कार्यरत हैं)

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