विवेक काटजू। ईरान पर इजरायल के हमले और फिर ईरान की जवाबी कार्रवाई ने पश्चिम एशिया में तनाव को और भड़का दिया है। पहले इजरायल ने ईरान के परमाणु ठिकानों और विज्ञानियों को निशाना बनाया तो जवाब में ईरान ने तेल अवीव सहित कई बस्तियों पर खतरनाक हमले किए। यह हिंसक टकराव किस मोड़ पर और कब तक समाप्त होता है, उसे लेकर तो अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तय है कि इसने भारतीय विदेश नीति के समक्ष एक बड़ी दुविधा उत्पन्न कर दी है।

इजरायल के साथ भारत के रक्षा से लेकर तकनीक तक व्यापक हित जुड़े हुए हैं। वहीं, ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। भारत में करोड़ों शिया मुस्लिम रहते हैं और ईरान को शिया समुदाय का वैश्विक नेता माना जाता है। इसके अतिरिक्त, ईरान ऊर्जा संसाधनों से भी संपन्न है। चाबहार बंदरगाह की क्षमताओं को पूरी तरह भुनाए न जा सकने के बावजूद वह कनेक्टिविटी की एक अहम कड़ी है।

इस मामले से कई और महत्वपूर्ण पहलू भी जुड़े हुए हैं। खाड़ी देशों में भारत के सामरिक, आर्थिक एवं वाणिज्यिक हित जुड़े हुए हैं। इसी कड़ी में संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों में से एक के रूप में उभरा है। कुवैत, कतर और यूएई के अलावा सऊदी अरब तेल एवं गैस के प्रमुख आपूर्तिकर्ता हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि इन देशों में करीब 90 लाख भारतीय अपनी आजीविका के लिए बसे हुए हैं। रेमिटेंस के जरिये वे देश के प्रति अहम आर्थिक योगदान कर रहे हैं।

ऐसे में भारत के लिए यह महत्वपूर्ण होगा कि यह तनाव इन देशों तक नहीं फैले। किसी इलाके में अगर हिंसा भड़की हुई हो तो वहां से लाखों लोगों को निकालना एक कड़ी चुनौती बन जाती है। इसलिए इस हिंसक टकराव का जल्द से जल्द थमना ही उचित होगा। इस बीच ईरान ने धमकी दी है कि अगर अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस उसके हमलों से इजरायल को बचाने के लिए आगे आते हैं तो वह इस क्षेत्र में इन देशों के हितों को निशाना बना सकता है।

परिस्थितियों को भांपते हुए भारत ने हाल में एक विवेकसम्मत बयान जारी किया। विदेश मंत्रालय ने इस टकराव पर चिंता जताते हुए कहा कि भारत हालात पर नजर बनाए हुए है। दोनों पक्षों से संयम बरतने की सलाह देते हुए विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘दोनों पक्षों को टकराव बढ़ाने से परहेज करना चाहिए। मुद्दों को सुलझाने और स्थिति को शांत करने के लिए संवाद और कूटनीति के मौजूदा चैनलों का उपयोग किया जाना चाहिए। भारत के दोनों देशों से मित्रवत संबंध हैं और वह कोई भी सहायता करने के लिए तत्पर है।’ इजरायल ने जिस दिन हमला किया उसी दिन प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को फोन कर अपनी कार्रवाई से अवगत कराया। वहीं, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इजरायल और ईरान के विदेश मंत्रियों से बात की।

बहुस्तरीय मंचों पर भी भारत इस समय ईरान या इजरायल में से किसी एक पक्ष के पीछे नहीं खड़ा हुआ है। शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ द्वारा 14 जून को जारी बयान में भारत ने यही रुख अपनाया। एससीओ ने बहुत कड़े शब्दों में इजरायली हमले की निंदा की। ईरान भी एससीओ का एक सदस्य है। बयान में कहा गया कि ईरान का नागरिक बुनियादी ढांचा, जिसमें ऊर्जा एवं परिवहन सुविधाएं भी शामिल हैं, पर इजरायली हमले से कई नागरिकों की मौत हुई। यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों का घोर उल्लंघन एवं वैश्विक शांति एवं सुरक्षा को खतरे में डालने वाला कदम है। दिलचस्प बात यह रही कि एससीओ के बयान में ईरान के परमाणु कार्यक्रम का भी उल्लेख था।

इस संदर्भ में उसका यही कहना था कि ऐसे मामले शांतिपूर्ण कूटनीतिक एवं राजनीतिक माध्यमों के जरिये सुलझाए जाने चाहिए। इस समय चीन, रूस, भारत, पाकिस्तान, ईरान और मध्य एशियाई गणतंत्र (तुर्कमेनिस्तान को छोड़कर) एससीओ के सदस्य हैं। स्पष्ट है कि चीन और रूस ने मजबूती से ईरान का पक्ष लिया है, जबकि भारत उनके इस रुख से अपना कोई सरोकार नहीं रखना चाहता। इसीलिए विदेश मंत्रालय ने कहा कि विदेश मंत्री जयशंकर ने अपने ईरानी समकक्ष से कहा कि यह घटनाक्रम अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए घोर चिंता का विषय है। उन्होंने यह भी कहा कि तनाव को और भड़काने के बजाय जल्द से जल्द कूटनीतिक स्तर पर प्रयास किए जाएं। इस संदर्भ में विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि उसने एससीओ सदस्यों को अपने रुख से अवगत करा दिया है और एससीओ बयान पर चर्चा में भाग नहीं लिया।

एससीओ के बयान में चीन और रूस का ईरान के पक्ष में झुकना उन्हें अमेरिका से इतर पाले में रखता है, क्योंकि अमेरिका खुलकर इजरायल के समर्थन में है। वास्तव में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो ईरान को चेतावनी जारी की है कि या तो वह फिलहाल ठंडे बस्ते में पहुंची परमाणु मुद्दे की चर्चा से जुड़ी शर्तों को मान ले या फिर और तबाही झेलने के लिए तैयार रहे। अगर भारत की बात करें तो उसने एससीओ के बयान से तो अपना पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन उसे दोनों पक्षों के साथ संतुलन साधने की राह में बड़ी सतर्कता से कदम रखने होंगे। जी-7 बैठक के लिए कनाडा जा रहे प्रधानमंत्री मोदी के लिए वहां यह एक कूटनीतिक कसरत सी बन जाएगी। ऐसे में बेहतर यही होगा कि वह यही रुख कायम रखें कि यह न तो युद्ध का समय है और न ही आतंकवाद का।

वर्तमान परिस्थितियों को देखें तो यह पश्चिम एशिया से लेकर दक्षिण एशिया और समग्र वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक समय है। यदि अन्य देश भी इस संघर्ष में खेमेबाजी का शिकार होकर जुड़ते गए तो यह खतरा कई गुना बढ़ जाएगा। अच्छी बात यही है कि अभी तक तो ऐसा कुछ नहीं हुआ है। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि शांति एवं कूटनीतिक विकल्पों की वकालत करता रहे, लेकिन उसे खुद भी किसी भी प्रकार की स्थितियों के लिए तैयार रहना होगा।

(लेखक पूर्व राजनयिक हैं)