विचार: एक और दुष्प्रचार की हवा निकली, वक्फ संशोधन कानून पर भी विपक्ष के दावे औंधे मुंह गिरे
यदि ट्रिब्यूनल भी पीड़ित के प्रतिकूल फैसला दे दे तो उसके खिलाफ केवल रिट याचिका ही दायर हो सकती थी। रिट याचिका का प्रभाव सीमित ही होता है। वक्फ कानून को दमनकारी स्वरूप 1995 में मिला। शायद इसलिए मिला क्योंकि अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस के बाद मुस्लिम कांग्रेस से नाराज थे।
राजीव सचान। इसी वर्ष अप्रैल में जब वक्फ संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित हुआ था तो विपक्ष ने इसे घोर असंवैधानिक और मनमाना करार दिया था। कुछ विपक्षी नेताओं ने इसे मुसलमानों की मस्जिदें-कब्रिस्तान छीनने वाला कानून बता दिया था-ठीक वैसे ही जैसे नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को मुसलमानों की नागरिकता छीनने वाला बताकर उन्हें सड़क पर उतारा गया था और जिसके नतीजे में कई जगह हिंसा हुई थी।
संसद से वक्फ संशोधन विधेयक के पारित होने के बाद जैसे ही उसने कानून का रूप लिया, वैसे ही सुप्रीम कोर्ट उसकी वैधानिकता का परीक्षण करने के लिए तैयार मिला, क्योंकि इस कानून को चुनौती देने के लिए कई याचिकाएं दाखिल कर दी गई थीं। अब ऐसा संसद से बने-संशोधित हुए करीब-करीब प्रत्येक बड़े कानून के साथ होने लगा है। सुप्रीम कोर्ट लोकसभा, राज्यसभा के बाद एक तरह से तीसरे सर्वोच्च सदन की तरह काम करने लगा है।
इधर संसद से पारित होकर कोई विधेयक कानून का रूप लेता है, उधर विपक्षी दलों के कुछ नेता और याचिकाबाज वकील सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर उसे चुनौती देने के लिए खड़े मिलते हैं। निःसंदेह सुप्रीम कोर्ट को प्रत्येक कानून की संवैधानिकता परखने का अधिकार है, लेकिन क्या अब हर कानून अमल में आने के पहले सुप्रीम कोर्ट पहुंचेगा?
तीन कृषि कानूनों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक कदम आगे बढ़कर इन कानूनों की संवैधानिकता पर विचार किए बिना ही उनके अमल पर रोक लगा दी थी। यह सुप्रीम कोर्ट की ओर से अपने अधिकारों का किया जाने वाला खुला-नग्न अतिक्रमण था। इन कानूनों के अमल पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उनकी समीक्षा के लिए एक समिति गठित कर दी थी, लेकिन जब इस समिति ने अपनी रिपोर्ट दी तो उसने उसे देखने की भी जहमत नहीं उठाई।
वह कृषि कानून विरोधी आंदोलन के नेताओं की ओर से राजमार्ग रोकने के मामले में भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। अंततः दुष्प्रचार के चलते ऐसी परिस्थितियां बनीं कि मोदी सरकार कृषि कानूनों को वापस लेने पर बाध्य हुई। इससे किसानों का कितना भला हुआ, यह किसान नेता ही जानें। इन कानूनों को लेकर यह अफवाह फैलाई गई थी कि इनके जरिये किसानों के खेत छीने जाएंगे। चूंकि ये कानून अमल में ही नहीं आए, इसलिए कथित किसान नेता यह थोथा दावा कर सकते हैं कि अंततः किसानों के खेत छिनने से बच गए, लेकिन सीएए तो लागू हो चुका है। किसी को पता हो तो बताए कि कितने मुसलमानों की नागरिकता छिनी?
नागरिकता, खेत, कब्रिस्तान या फिर और कुछ छीने जाने का शोर मचाने के लिए किसी नए कानून का निर्माण या फिर उसमें संशोधन किया जाना ही आवश्यक नहीं। अभी हाल में जब चुनाव आयोग की ओर से बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन की प्रक्रिया शुरू की गई तो तत्काल यह शोर मचा कि इसका उद्देश्य दलितों, गरीबों, अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों के वोट छीनना है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया को जारी रखने की अनुमति देकर विपक्षी दलों और साथ ही लोकतंत्र के स्वयंभू चैंपियनों के इस दुष्प्रचार की हवा निकाल दी कि चुनाव आयोग बिहार के बेचारे लोगों के वोट छीनने का काम कर रहा है। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने बिहार के सभी मान्यता प्राप्त दलों को इस मामले में पक्षकार बनाया और उन्हें इसके लिए बाध्य किया कि वे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआइआर की प्रक्रिया में भाग लें। मरता क्या न करता, वे बेमन से ही सही, यह काम कर रहे हैं।
यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ संशोधन कानून पर पूरी तरह रोक लगाने से इन्कार कर दिया। उसने अपने अंतरिम फैसले में इसके चंद प्रविधानों पर ही रोक लगाई। यह उल्लेखनीय है कि उसने संशोधित कानून में वक्फ बाई यूजर के प्रविधान को खत्म करने को मनमाना नहीं माना। इसका मतलब है कि यह प्रविधान नहीं होगा। पुराने कानून के अनुसार यदि कोई संपत्ति लंबे समय से वक्फ द्वारा इस्तेमाल की जा रही है तो आवश्यक दस्तावेजों के अभाव में भी उसे वक्फ संपत्ति माना जाता था। अब ऐसा नहीं होगा। अब कागज दिखाने होंगे।
वक्फ संशोधन कानून के जरिये 14 बड़े बदलाव किए गए थे। सबसे बड़ा बदलाव वक्फ कानून की धारा 40 को खत्म करने का था। इस धारा के तहत वक्फ बोर्डों को किसी भी संपत्ति को अपना बताने का मनमाना अधिकार मिला था। यदि वक्फ बोर्ड ऐसा कर देते थे तो इसके खिलाफ सुनवाई केवल वक्फ ट्रिब्यूनल में ही हो सकती थी।
यदि ट्रिब्यूनल भी पीड़ित के प्रतिकूल फैसला दे दे तो उसके खिलाफ केवल रिट याचिका ही दायर हो सकती थी। रिट याचिका का प्रभाव सीमित ही होता है। वक्फ कानून को दमनकारी स्वरूप 1995 में मिला। शायद इसलिए मिला, क्योंकि अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस के बाद मुस्लिम कांग्रेस से नाराज थे। कांग्रेस उन्हें संतुष्ट करने के लिए कुछ भी करने को तैयार थी। इसका नतीजा यह हुआ कि वक्फ कानून में ऐसे संशोधन कर दिए गए, जिससे वक्फ बोर्डों को मनमाने अधिकार मिल गए।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)
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