आज़ादी की लड़ाई में मुस्लिम महिलाओं का योगदान शाजिया इल्मी का लेख
सोफिया कुरैशी हर उस लड़की के लिए रोल माडल हैं जो मजहब और जेंडर की बेड़ियों से निकलकर ‘मैं भी हिंदुस्तान हूं’ कहने की हिम्मत रखती है। जहां कट्टरपंथी ताकतें मुस्लिम महिलाओं को पर्दे और पाबंदियों में देखना चाहती हैं वहीं सोफिया कुरैशी उस हिंदुस्तानी मुसलमान स्त्री की तस्वीर हैं जो बखूबी वतन की सरहदें संभालने का काम करती है।
शाजिया इल्मी। सोफिया कुरैशी जैसी बहादुर मुसलमान महिला की पहचान के साथ आजादी की लड़ाई में मुस्लिम महिलाओं के भी योगदान और उनके संघर्षों के बारे में जानना-समझना चाहिए।
‘जब तक इस देश की बेटियां सीमाओं की रखवाली करेंगी, इस देश को कोई ताकत झुका नहीं सकती।’ 2022 में लाल किले से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब ऐसा कहा और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, रानी चेन्नम्मा, रानी गाइदिन्ल्यू, वेलु नचियार और बेगम हजरत महल जैसी वीर महिलाओं को याद किया, तो यह केवल श्रद्धांजलि नहीं थी। यह उस ऐतिहासिक सच्चाई की तस्दीक थी जिसे प्राय: इतिहास की किताबों ने हाशिए पर रखा। स्वतंत्रता की लड़ाई में महिलाएं केवल किरदार नहीं थीं, वे उसकी रीढ़ थीं। इन महिलाओं में वे मुस्लिम स्त्रियां भी शामिल थीं, जो न केवल पर्दा तोड़कर बाहर निकलीं, बल्कि मैदान-ए-जंग में लड़ीं, आंदोलन छेड़े, और जहनी कैद से मुक्ति का रास्ता दिखाया।
बेगम हजरत महल : वर्ष 1857 की पहली जंग-ए-आजादी में बेगम हजरत महल का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। लखनऊ की इस बहादुर बेगम ने अपने बेटे बिरजिस कद्र को अवध का वली (शासक) घोषित कर अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का परचम बुलंद किया, पर उनकी बगावत केवल ताज-ओ-तख्त की नहीं थी, उनका इंकलाब हमारी साझी तहजीब की हिफाजत के लिए था।
एक सरकारी ऐलान में उन्होंने अंग्रेजों पर मंदिरों और मस्जिदों को तोड़कर गिरजाघर बनाने का इल्जाम लगाया और सवाल उठाया: ‘जब सुअर के गोश्त, शराब को बढ़ावा दिया जा रहा और मंदिर-मस्जिद गिराए जा रहे हैं तब क्या इसे मजहबी आजादी कहा जाएगा?’ उनके लिए सेक्युलरिज्म कोई पश्चिमी नारा नहीं था, बल्कि हिंदुस्तानी अवाम की जमीनी तहजीब का एक हिस्सा था।
बी अम्मा : आबादी बानो बेगम उर्फ बी अम्मा भारत की पहली मुस्लिम महिला राजनीतिक कार्यकर्ताओं में से एक थीं। उन्होंने खिलाफत और असहयोग आंदोलन में न केवल चंदा इकट्ठा किया, बल्कि सार्वजनिक सभाओं में तकरीरें भी कीं। वे पर्दे में थीं, पर उनकी आवाज उस समय के सबसे बुलंद नेताओं मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली को राह दिखाती थी। बी अम्मा की उपस्थिति इसका प्रमाण थी कि स्त्रियों की सियासी समझ कोई आयातित वेस्टर्न आइडिया नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की तह में मौजूद एक जिंदा हकीकत थी।
अनीस किदवई : वर्ष 1947 के दंगों में जब अनीस किदवई के शौहर का कत्ल हुआ, तो उन्होंने अपने दुख को निजी शोक नहीं बनने दिया। उन्होंने गांधी जी के साथ मिलकर विस्थापित महिलाओं की मदद की, उन्हें इज्जत और जिंदगी दोबारा जीने की हिम्मत दी। बाद में वह राज्यसभा सदस्य बनीं और अपनी किताब ‘इन फ्रीडम्स शेड’ में लिखा, ‘जब एक स्त्री टूटती है, तो वह दूसरों को जोड़ने की कसम खाती है।’ बीबी अम्तुस सलाम गांधी जी की करीबी अनुयायियों में थीं। नोआखली हिंसा में उन्होंने गांधी जी के साथ गांव-गांव जाकर शांति का संदेश दिया।
हैदराबाद रियासत से कई शेरदिल मुस्लिम महिलाएं निकलीं- निशातुन्निसा मोहानी, बाजी जमालुन्निसा, हाजरा बीबी इस्माईल और सैयदा फक्रुल हाजिया हसन। इन महिलाओं ने केवल अंग्रेजों से ही नहीं, बल्कि अपने ही पुरुषवादी समाज से भी जद्दोजहद की। उनकी लड़ाई दोहरे जुल्म के विरुद्ध थी। विदेशी हुकूमत और घरेलू कैद, दोनों से आजादी। बाजी जमालुन्निसा समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी, थीं जिन्हें आधुनिक और उदार परवरिश के चलते राष्ट्रवादी विचारों से गहरा लगाव था। उन्होंने एक प्रतिबंधित पत्रिका ‘निगार’ भी पढ़ी और युवा उम्र में ही अंग्रेजी-उर्दू साहित्य से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गईं।
निजाम-तंत्र और रूढ़िवादी समाज के विरोध के बावजूद उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों को आश्रय दिया और ‘बज्मे एहाबाद’ नामक प्रगतिशील साहित्यिक संस्था की स्थापना की, जहां सोशलिज्म, कम्युनिज्म और राष्ट्रीय विचारों पर चर्चा होती थी। सैयदा फक्रुल हाजिया हसन (फक्रुल हाजिया बेगम), एक ऐसी शख्सियत थीं जिन्होंने अपने बच्चों को आजादी के संघर्ष में भागीदार बनाया। वे अंग्रेजों के विरुद्ध खादी और खलीफत आंदोलन में शामिल रहीं। उन्होंने हैदराबाद में विदेशी कपड़े जलाकर अंग्रेजी शासन का प्रतिकार किया, आजाद हिंद फौज के बहादुरों की रिहाई के लिए संघर्ष किया। वे ‘अम्मा जान’ के नाम से सम्मानित की गईं।
आज के दौर में लेफ्टिनेंट कर्नल सोफिया कुरैशी उसी जज्बे, हिम्मत और बेबाकी की मूरत हैं, जो बीते समय की बहादुर मुसलमान महिलाओं की पहचान थी। सोफिया केवल एक फौजी अफसर नहीं, बल्कि एक पैगाम हैं कि तालीम, हिम्मत और राष्ट्र से प्रेम मिल जाए तो कोई भी स्त्री किसी भी सरहद को लांघ सकती है। चाहे वह जंग-ए-मैदान हो, समाज का सोच हो या पहचान की लड़ाई।
सोफिया कुरैशी हर उस लड़की के लिए रोल माडल हैं, जो मजहब और जेंडर की बेड़ियों से निकलकर ‘मैं भी हिंदुस्तान हूं’ कहने की हिम्मत रखती है। जहां कट्टरपंथी ताकतें मुस्लिम महिलाओं को पर्दे और पाबंदियों में देखना चाहती हैं, वहीं सोफिया कुरैशी उस हिंदुस्तानी मुसलमान स्त्री की तस्वीर हैं, जो बखूबी वतन की सरहदें संभालने का काम करती है। समय है कि हम इतिहास की खिड़कियों को खोलें, जहां केवल बंदूकों से नहीं, बल्कि कलम, करुणा और कुर्बानी से मिली आजादी की दास्तानें हैं।
(लेखिका- सामाजिक एवं मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता और भाजपा प्रवक्ता हैं)
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