अंतिम रूसी कम्युनिस्ट नेता गोर्बाचौव, शीत-युद्ध की समाप्ति में उनका रहा बड़ा योगदान लेकिन...
गोर्बाचौव शुरू से ही सुधार और परिवर्तन को लेकर उत्साह में थे। वह सोवियत व्यवस्था में ठहराव दूर करने को अधीर दिख रहे थे। उनके तरीकों में लोकतांत्रिक झलक थी। यह सब कम्युनिस्ट समाज के लिए नई बात थी।
शंकर शरण : मिखाइल सर्गेइच गोर्बाचौव 1985 में पहली बार चर्चा में आए। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के नए महासचिव के रूप में उनका आकर्षक चेहरा विश्व के सभी प्रमुख अखबारों के मुखपृष्ठ पर छपा। उनके चेहरे में कुछ था, जिससे किसी बदलाव की झलक महसूस होती थी। सोवियत रूसी लोग भी खुश हुए थे, जो लंबे समय से बूढ़े कम्युनिस्ट नेताओं के भावहीन चेहरे देख-देखकर ऊब चुके थे। गोर्बाचौव तब मात्र 54 वर्ष के थे, सोवियत नेताओं के हिसाब से युवा। ऊर्जावान और भविष्य के प्रति आशान्वित।
गोर्बाचौव शुरू से ही सुधार और परिवर्तन को लेकर उत्साह में थे। वह सोवियत व्यवस्था में ठहराव दूर करने को अधीर दिख रहे थे। उनके तरीकों में लोकतांत्रिक झलक थी। यह सब कम्युनिस्ट समाज के लिए नई बात थी। गोर्बाचौव ने दशकों से जड़ हो रही सोवियत अर्थव्यवस्था में नए रक्त-संचार का यत्न किया, पर विफल रहे। 1989 में जैसे ही गोर्बाचेव ने पूर्वी यूरोप से सोवियत सेना हटाने की घोषणा की, वैसे ही पूर्वी यूरोप की तमाम समाजवादी व्यवस्थाएं भरभराकर गिर पड़ीं।
सोवियत साम्राज्य के पतन की दिशा में पहला बड़ा कारण था। सोवियत संघ के अंदर भी गोर्बाचौव ने ‘पेरेस्त्रोइका’ (पुनर्गठन) और ‘ग्लासनोस्त’ (खुलापन) के साथ नई संस्थाएं और कानून बनाए। सब कुछ आजमाया, पर अर्थव्यवस्था नहीं सुधरी। दुविधा बढ़ती गई। अगस्त 1991 में कुछ सहयोगियों ने गोर्बाचौव के तख्तापलट का भी प्रयत्न किया, किंतु उनमें वैकल्पिक योजना का अभाव था। सो तख्तापलट विफल हुआ। फिर भी गोर्बाचौव की आभा जाती रही। नए नेता बोरिस येल्तसिन की हवा बनने लगी, जो यूरोप जैसी मुक्त अर्थव्यवस्था बनाने को अधीर थे। अंततः उन्होंने दिसंबर 1991 में सोवियत व्यवस्था के विखंडन की घोषणा की।
गोर्बाचौव के सात साल का अंतिम रूसी कम्युनिस्ट दौर एक शिक्षाप्रद कथा है। एक निर्विवाद महाशक्ति यकायक अंदर से ध्वस्त हो गई। इसमें विवाद है कि यह सब कैसे हुआ? हालांकि भारत में इस पर नगण्य विचार हुआ, क्योंकि यहां बौद्धिक जगत में वामपंथियों का खासा प्रभाव था। दूसरी ओर चीनी कम्युनिस्ट नेताओं ने अपने यहां लोकतंत्र के पक्ष में आंदोलन को गोर्बाचौव की लोकप्रियता के दौर में कुचल डाला। मई 1989 में गोर्बाचौव चीन में थे। इसके चंद दिनों बाद थ्यानमेन चौक पर नरसंहार हुआ।
चीनी नेता अधिक प्रयोगधर्मी साबित हुए। देंग ने सोवियत नेताओं से पहले भांप लिया था कि लेनिनवाद-माओवाद में दम नहीं है। यह समझने में उन्हें पड़ोसी ताइवान और दक्षिण कोरिया से भी सहायता मिली, जो पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा तेजी से तरक्की कर रहे थे। चीनियों ने चुपचाप आधुनिकीकरण करके पश्चिमी पूंजीवादी तत्व अपनाए। यह काम उन्होंने दृढ़ता से किया। उन्होंने अमेरिका-यूरोप से भरपूर सहायता भी ली। देंग का नारा था, ‘जैसे चाहो, पहले धनी बनो।’
चीन की तुलना में रूसी नेतागण भोले साबित हुए। उन्हें देंग जैसा दूरदर्शी नेता न मिला, जो चालू समाजवाद और पूंजीवाद के सामाजिक-आर्थिक तंत्र और तुलनात्मक खूबियों, खामियों को ठीक-ठीक समझ सका हो। गोर्बाचौव ने बिना सच्चाई को देखे-समझे भारी भरकम सोवियत आर्थिक व्यवस्था को नई दिशा देने की कोशिश की। उन्होंने 52 वर्ष की आयु तक कोई पश्चिमी देश देखा तक नहीं था, न उनकी आर्थिक-तकनीकी क्षमताएं जानते थे।
सोवियत सेंसरशिप ने अपने नेताओं समेत संपूर्ण रूसी समाज को घोर अज्ञानियों में बदल डाला था। वे अपने समाजवाद और पश्चिमी पूंजीवाद के बारे में अपनी प्रोपेगंडा पुस्तिकाओं के सिवा लगभग कुछ नहीं जानते थे। इसलिए भी गोर्बाचौव केवल भावनात्मक अपीलों और तरह-तरह की संस्थागत कसरतों से अधिक कुछ सोच नहीं पाए। वह अपनी इच्छाओं को ही कार्ययोजना समझकर पेश करते जाते थे। गोर्बाचौव के विवरणों से भी दिखता है कि शीर्ष सोवियत नेता बन जाने पर भी उन्हें पश्चिमी समाजों की अर्थव्यवस्था, राजनीति और मीडिया आदि से जुड़ी कार्यसंस्कृति की समझ नहीं थी।
अतीत की समीक्षा करते हुए गोर्बाचौव खाली मुहावरों का ही इस्तेमाल करते रहे। जैसे, ‘हमें कम्युनिस्ट पार्टी में सुधार का काम और फुर्ती के साथ करना चाहिए था।’ मगर किस तरह का सुधार? इसका कोई उत्तर गोर्बाचौव के पास न था। हालांकि उन्होंने यह स्वीकार किया कि ‘कम्युनिज्म वैसा नहीं बन सका जैसा इसके संस्थापकों ने सोचा था-न तो सोवियत संघ में, न पूर्वी यूरोप में। सोवियत संघ में जो व्यवस्था बनी, उसका बुरी तरह अंत होना निश्चित था।’ शीत-युद्ध समाप्त करने में योगदान के लिए 1990 में गोर्बाचौव को नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया, किंतु अगले साल सत्ता से हट जाने के बाद उनकी छवि जल्द ही लुप्त हो गई। कुछ समय तक उन्होंने पश्चिमी देशों में व्याख्यान आदि दिए, पर उनमें कोई विशेष बात नहीं थी। उनके ‘गोर्बाचौव फाउंडेशन’ का भी कोई कार्य कभी सुनने में नहीं आया।
निःसंदेह सोवियत गुट और अमेरिकी गुटों के बीच शीत-युद्ध समाप्त होने में गोर्बाचौव का बड़ा योगदान था। जर्मनी का एकीकरण और कई पूर्वी यूरोपीय देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने में भी उनकी उदार नीतियों का अवदान था, किंतु सोवियत साम्राज्य का पतन हो जाने से गोर्बाचौव का वह योगदान पृष्ठभूमि में दब गया। आखिर सफलता और सत्ता का तर्क सबसे बड़ा होता है। गोर्बाचौव का नाम मुख्यतः सोवियत कम्युनिज्म के विघटन का निमित्त बनने से ही जुड़ा। उनका जीवन और कार्य मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत की विफलता का उदाहरण है। इस अर्थ में वह अंतिम रूसी कम्युनिस्ट के रूप में ही याद किए जाएंगे।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।