आलोक पुराणिक

किसी भी सरकारी दफ्तर में काम कराना हो तो सबसे पहले चाहिए एफिडेविट। इसे शुद्ध हिंदी में शपथपत्र तो उर्दू जुबान में हलफनामा कहते हैं। बहरहाल इससे जुड़े तमाम पहलू भी कम दिलचस्प नहीं हैं और इनमें से तमाम हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हैं। मसलन एफिडेविट-शपथपत्र, लाइसेंस खो गया है नया बनवाना है तो शपथ दीजिए, एफिडेविट दीजिए। विकराल सा दफ्तर, खुद को अफसर समझते दलाल और दलाली खाते अफसर, हाथ बांधकर सिर्फ आम आदमी ही नहीं, खास आदमी भी खड़ा हो जाता है। सिर्फ सरकारी आदमी को ही पता होता है कि इस विकराल किले की चाबियां हैं कहां। शपथपत्र दो-मैं अलां पुत्र फलां का निवासी...........। सरकारी अफसरों की अकड़फूं देखकर सरकारी दफ्तर में तो अपने इंसान होने तक पर शक होने लगता है, बाकी की शपथ क्या लें। उस दिन उस सरकारी दफ्तर में वह क्लर्क इस अंदाज में मुझसे बात कर रहा था कि कुछ देर के लिए तो मुझे अपने इंसान होने पर शक होने लगा। बाद में मुझे पता लगा कि वह क्लर्क हर बंदे को मुर्गी या बकरा समझता है कि जिसे आखिर में कटना ही है।
अकड़फूं अफसर सीधे बात करने को तैयार नहीं, दलाल को इतने या उतने हजार चाहिए। जेब में उतने हजार न हो, तो इंसानी तो क्या कुत्ते जैसा सुलूक भी न मिले। वहां जाइए। वहां जाकर पता लगता है कि- नहीं जी यहां नहीं आना था, आप को तो वहां जाना था। जी वहां जाकर पता लगता है कि भाई साहब आप तो पढ़े लिखे होकर कैसी बातें कर रहे हैं? वहां, वहां, वहां जाना था। वहां, वहां, वहां जाकर पता लगता है कि वहां वाले तो आए ही नहीं हैं। कब आएंगे, जी पता नहीं। कब आएंगे, यह आपको बताकर जाएंगे क्या? क्या अफसर आपको बताने के लिए बने हैं? जी तो हम कब आएं अपने काम के लिए? जब मन करे तब आइए, सरकार का दफ्तर है। कोई मनाही थोड़े ही आने की। चाहे जब आइए, दफ्तर के बाहर समोसे की दुकानों से समोसे खाकर चले जाइए। क्या कहा काम के लिए आना है, समोसे खाने नहीं। तो रोज आकर पूछ लीजिए कि वह कब आएंगे जिनसे आपका काम पड़ता है।
सरकारी दफ्तर में मान लीजिए ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी का दफ्तर, लाइसेंस वगैरह यहीं से मिलने हैं। एक नौजवान बोला-जी मुझे सिर्फ बाइक चलाने का लाइसेंस चाहिए। दलाल बोला-देख भाई इत्ते दे दे, कार चलाने का भी उसी में जुड़ जाएगा, पर मेरे पास कार है कहां, उसका लाइसेंस नहीं चाहिए। मेरे पास भी ट्रक कहां है, पर मेरे पास ट्रक चलाने का लाइसेंस है-दलाल ने स्पष्टीकरण दिया।
ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी के दफ्तर जाकर मेरा यकीन लाइसेंसिंग सिस्टम से ही उठ गया है। अब जब कोई हवाई दुर्घटना होती है, मुझे शक होने लगता है कि दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज का लाइसेंस भी उसी ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी के दफ्तर से गया होगा जो बाइक के साथ कार चलाने का लाइसेंस यूं ही नहीं, कुछेक हजार में दे देती है। अथॉरिटी से बना पायलट भी क्या करे, कुछेक हजार में पायलेट का लाइसेंस ले आएगा तो फिर जहाज तो उड़ाना पड़ेगा।
एक हवाई यात्रा के दौरान मैंने एक पायलेट से यूं ही पूछ लिया कि भाई आपके पास हवाई जहाज चलाने का पक्का लाइसेंस है न। पायलट ने उलटे पूछ लिया-यह सवाल आप देश चलाने वालों से तो कभी नहीं पूछते कि क्या उनके पास देश चलाने का पक्का लाइसेंस, सच्ची काबिलियत है। सारी अफसरी हम पर ही दिखा रहे हैं आप। बात में बहुत दम है। हरेक से तो हम नहीं पूछते कि तेरे पास लाइसेंस है क्या? पायलेट के हादसे के बाद मैंने लाइसेंस का सवाल, काबिलियत का सवाल किसी से भी पूछना बंद कर दिया। अभी एक डॉक्टर के यहां जाना हुआ, शक हुआ पर पूछने की हिम्मत नहीं हुई, वरना वही जवाब सुनना होता-देश चलाने वालों से तो कभी न पूछते, क्लीनिक चलाने वालों से पूछ रहे हैं।
दिल्ली के करीब एक निजी अस्पताल ने सोलह लाख रुपये का बिल दिखाया एक मौत का। सोलह लाख में मौत, बड़े निजी अस्पताल की काबिलियत है। बिना कोई टीका-इंजेक्शन लगाए हुए मारना सरकारी अस्पतालों की काबिलियत है। हाल में एक सरकारी अस्पताल में नकली दवाओं की शिकायत आई तो इसकी जांच में पता चला कि सरकारी अस्पतालों की खरीदी गई दवाएं कभी भी अस्पताल पहुंचती ही नहींं-क्या असली क्या नकली। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरी लापरवाही से ही बंदा मर सकता है, दवाओं पर इसका इल्जाम न लगाया जाए।
खैर, अभी एक सरकारी दफ्तर में एफिडेविट दाखिल करना पड़ा जिसमें लिखना था-मैं सच्चरित्र और सच्चा नागरिक हूं। मेरी मां ही मुझे कभी सच्चा न मानती, मां तो मान भी ले, बीवी न मानती और मैं जमाने भर के सामने घोषणा करूं कि मैं सच्चा हूं। मैंने आपत्ति की-भाई दुश्चरित्र और झूठे को भी जीने दो, यह लाइन हटा दो।
बाबू ने बहुत ही फिलासफाना अंदाज में कहा-जीवन ही यूं पूरा झूठ चला जा रहा है जैसे कोई सरकारी एफिडेविट।
मैंने कहा-भाई आपने तो कविता कर दी। क्लर्क ने बताया कि वह मूल रूप से कवि ही है, बतौर रिश्वत मुझे उसके दो काव्य संग्रह पूरे सुनने पड़ेंगे।

[ हास्य व्यंग्य ]