संजय गुप्त। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार का गठन होने के बाद यह आवश्यक है कि जिन कारणों से भाजपा को बहुमत से कम सीटें हासिल हुईं, उन पर गंभीरता से विचार किया जाए और भविष्य की नीतियां तय की जाएं। प्रधानमंत्री मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में तेलुगु देसम पार्टी और जनता दल-यू के सहयोग से गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। फिलहाल सरकार के स्थायित्व को लेकर कोई खतरा नहीं है और आशा है कि यह सरकार पहले की तरह मजबूती के साथ काम करती रहेगी और सहयोगी दल दलगत हितों अथवा अपने-अपने राज्य के हितों के बजाय राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देंगे।

चूंकि मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में कोविड महामारी का सामना करने के बाद भी अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की और इसके चलते भारत सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिकी वाला देश बना रहा, इसलिए उम्मीद है कि आने वाले पांच साल में अर्थव्यवस्था को और अधिक बल मिलेगा। मोदी सरकार को एक ओर जहां देश की आर्थिक प्रगति को बनाए रखना होगा, वहीं भाजपा को अपनी कम हो गई राजनीतिक ताकत को फिर से पाने के प्रयत्न भी करने होंगे। चुनाव नतीजों के विश्लेषण से यह बात प्रमुखता से सामने आई है कि चार सौ पार का नारा भाजपा के लिए मददगार नहीं साबित हुआ, क्योंकि विपक्ष ने यह झूठा प्रचार किया कि भाजपा इतनी अधिक सीटें पाकर संविधान बदल देगी और आरक्षण भी खत्म कर देगी।

हालांकि, मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में आरक्षण के दायरे को और बढ़ाया ही है, लेकिन विपक्ष के दुष्प्रचार के चलते आरक्षित वर्ग में यह भय पैदा हो गया कि कहीं चार सौ सीटें पाने के बाद मोदी सरकार आरक्षण खत्म न कर दे। चूंकि आरक्षित वर्ग आरक्षण के लाभ हासिल करते रहना चाहता है और वह उसके लिए एक बड़ा संबल है, इसलिए उसने उसके खिलाफ वोट दिया। अब भाजपा के सामने यह चुनौती है कि आरक्षित तबके के जो लोग उसके प्रति आशंकित हो उठे और जिन्होंने उसके खिलाफ मतदान किया, उनका भरोसा फिर से कैसे हासिल करे।

मोदी सरकार को इस कार्यकाल में रोजगार के मोर्चे पर भी चुनौतियों का सामना करना होगा।

अपने देश में रोजगार का मतलब सरकारी नौकरियां अधिक है। औसत भारतीय यह मानकर चलता है कि सबसे अच्छी नौकरी सरकारी नौकरी होती है और यदि एक बार वह मिल जाए तो जीवन निश्चिंत हो जाता है। घर-परिवार के लोग और समाज भी सरकारी नौकरियों को सुरक्षित जीवन की गारंटी मानता है। सरकारी नौकरियों को लेकर यह जो धारणा व्याप्त है, उसे बदलने की जरूरत है। इसलिए और भी, क्योंकि सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की कार्यशैली में अंतर है।

सरकारी कर्मचारियों को नौकरी जाने का कोई भय नहीं होता, लेकिन निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के ऊपर हमेशा तलवार लटकती रहती है। इसलिए उन्हें अपनी कार्यकुशलता बेहतर करनी होती है, जबकि सरकारी कर्मचारी कार्यकुशल बनने का जतन नहीं करते। अपने देश में यदि किसी की सरकारी नौकरी लग जाए तो वह मुश्किल से ही जाती है, भले ही कोई कितनी ही लापरवाही से कार्य करे। नौकरी की गारंटी के चलते सरकारी नौकरियों के प्रति चाहत तो प्रबल है, लेकिन जवाबदेही का अभाव है। सरकारी कामकाज में कोई सुधार इसीलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि सरकारी कर्मचारी जवाबदेही से मुक्त हैं।

चूंकि विपक्षी दल सरकारी नौकरियों का मुद्दा लगातार उठाते रहते हैं, इसलिए सरकार सरकारी नौकरियों को लेकर दबाव में रहती है। पिछली सरकार ने विपक्षी दलों के दबाव में एक वर्ष में दस लाख नौकरियां देने की घोषणा करके एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की थी। नि:संदेह रिक्त सरकारी पदों को भरा जाना चाहिए, लेकिन यदि अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है तो सरकारी कामकाज की कुशलता को नई धार देनी होगी। ऐसी भी कोई व्यवस्था बनानी होगी, जिससे अपना काम ढंग से न करने वाले सरकारी कर्मचारियों को नौकरी खोने का भय हो। यदि सरकारी कामकाज की गुणवत्ता सुधरे तो वह निजी क्षेत्र के लिए एक उदाहरण बन सकती है। आज जरूरत है कि सरकारी और निजी क्षेत्र में कार्यकुशलता के मामले में प्रतिस्पर्धा कायम हो।

सरकारी नौकरियों पर दबाव कम करने के लिए ऐसे भी प्रयत्न करने होंगे कि निजी क्षेत्र में नौकरियां बढ़ें। इसके लिए लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्योगों का विस्तार करना होगा। यदि मोदी सरकार तीसरे कार्यकाल में सरकारी कामकाज के स्तर में सुधार ला सके तो इससे जनता को भी लाभ मिलेगा और अर्थव्यवस्था को भी। प्रशासनिक सुधार एक लंबे समय से लंबित हैं। मोदी सरकार को चाहिए कि प्रशासनिक सुधारों के जरिये सरकारी नौकरियों को जवाबदेही और जिम्मेदारी का पर्याय बना दे। जब सरकारी नौकरियां आरामतलबी का जरिया नहीं रह जाएंगी और कर्मचारियों को उनकी ढिलाई के लिए दंडित करने की व्यवस्था होगी तो सरकारी नौकरियों का आकर्षण स्वतः कम हो जाएगा।

वैसे तो मोदी सरकार ने पहले से ही सौ दिन का अपना एजेंडा तय कर रखा है और वह उसे पूरा करने को लेकर प्रतिबद्ध भी है, लेकिन उसे इस एजेंडे को पूरा करने के साथ कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार पर विशेष ध्यान देना होगा। कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं आ सका है। ऐसा करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि आबादी का एक बड़ा वर्ग कृषि पर निर्भर है, जबकि उसकी उत्पादकता कम है। किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारना अभी भी एक चुनौती है। कृषि केंद्र और राज्यों, दोनों का विषय है, लेकिन संकीर्ण राजनीति के चलते उसमें आवश्यक सुधार नहीं हो पा रहे हैं।

कृषि क्षेत्र में सुधार की किसी अच्छी पहल का भी किस तरह बेजा विरोध होता है, इसे किसानों के भले के लिए बनाए गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में छेड़े गए आंदोलन से देखा जा सकता है। हालांकि कुछ किसान संगठनों और राजनीतिक दलों के अड़ियल रवैये के कारण इन कानूनों को वापस लेना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए ठोस कदम उठाने जरूरी हैं। मोदी सरकार को अपने एजेंडे को पूरा करने के साथ ही भाजपा को अपनी खोई हुई राजनीतिक ताकत फिर से हासिल करने के जतन करने होंगे। उसे यह ध्यान रखना होगा कि यह काम आसान नहीं।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]