जागरण संपादकीय: चुनावी दौर की खटपट, सीटों के बंटवारे को लेकर दिखने लगी खींचतान
हमारे राजनीतिक दल लोकतंत्र की चाहे जितनी दुहाई दें सच तो यह है कि प्रत्याशियों के चयन में आम जनता की बात तो दूर रही संबंधित दल के कार्यकर्ताओं की भी कोई भागीदारी मुश्किल से ही होती है। लोकतंत्र का तकाजा यह कहता है कि प्रत्याशियों के चयन में संबंधित राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं और साथ ही जनता की आकांक्षाओं को भी महत्व दिया जाए।
गठबंधन के घटकों के बीच खटपट होते रहना कोई नई-अनोखी बात नहीं। यह खटपट तब और अधिक बढ़ जाती है जब चुनाव आते हैं और यह प्रश्न खड़ा होता है कि कौन दल कितनी सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करेगा। इस पर हैरानी नहीं कि झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस की ओर से सीटों का जो बंटवारा किया गया, वह राष्ट्रीय जनता दल को पसंद नहीं आया। उसने अपनी नाराजगी भी जता दी है।
आश्चर्य नहीं कि वह इसका बदला बिहार के आगामी विधानसभा चुनावों में ले और कांग्रेस को वांछित सीटें न दे। जो भी हो, राजद को यह समझना होगा कि उसका प्रभाव बिहार में ही है और झारखंड में उसकी कोई विशेष राजनीतिक अहमियत नहीं है। यह बात जनता दल (यू) को भी समझनी होगी, जो झारखंड में दो सीटें मिलने से नाखुश दिख रही है।
चूंकि गठबंधन राजनीति के कोई नियम-कानून नहीं बने हैं, इसलिए महाराष्ट्र में भी महाविकास आघाड़ी के घटकों के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर खींचतान देखने को मिल रही है। फिलहाल सत्तारूढ़ महायुति में खटपट नहीं दिख रही, लेकिन इसके आसार कम ही हैं कि सब कुछ सुगम तरीके से हो जाएगा।
सीटों के बंटवारे के बाद जब विभिन्न दल अपने प्रत्याशियों की घोषणा करेंगे तब भी असंतोष और विद्रोह की खबरें आएंगी। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भाजपा की ओर से प्रत्याशियों की घोषणा होते ही असंतोष के स्वर सुनाई देने लगे हैं। कई बार असंतोष के ऐसे स्वर विद्रोह में बदल जाते हैं और चुनाव लड़ने के आकांक्षी उम्मीदवार या तो विद्रोही बन जाते हैं या पार्टी छोड़ देते हैं अथवा भितरघात में लग जाते हैं।
इस स्थिति से करीब-करीब सभी राजनीतिक दल दो चार होते हैं, लेकिन वे प्रत्याशी चयन की कोई तर्कसंगत और पारदर्शी व्यवस्था अपनाने से इनकार कर रहे हैं। आखिर कुछ विकसित देशों की तरह से भारत में भी आंतरिक चुनाव के जरिये प्रत्याशी चयन की कोई व्यवस्था क्यों नहीं बन सकती, जिससे सक्षम और योग्य नेताओं को ही चुनाव लड़ने का अवसर मिले।
हमारे राजनीतिक दल लोकतंत्र की चाहे जितनी दुहाई दें, सच तो यह है कि प्रत्याशियों के चयन में आम जनता की बात तो दूर रही, संबंधित दल के कार्यकर्ताओं की भी कोई भागीदारी मुश्किल से ही होती है। लोकतंत्र का तकाजा यह कहता है कि प्रत्याशियों के चयन में संबंधित राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं और साथ ही जनता की आकांक्षाओं को भी महत्व दिया जाए। यह कोई कठिन कार्य नहीं, लेकिन इसके लिए पश्चिमी देशों सरीखी जैसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए, उससे बचा जा रहा है।
इन स्थितियों में उचित यह होगा कि चुनाव आयोग ऐसी कोई पहल करे जिससे राजनीतिक दल प्रत्याशियों के चयन में मनमानी न कर सकें। अभी तो वे जनता पर प्रत्याशियों को थोपने का काम करते हैं। यह समझा जाना चाहिए कि प्रत्याशियों के चयन में आम जनता की भागीदारी एक ओर जहां योग्य जन प्रतिनिधियों को सामने लाने का काम करेगी, वहीं लोकतंत्र को भी सुदृढ़ करेगी।
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