विकास सारस्वत। लगातार तीसरी बार सरकार बनाने में सफलता के बावजूद बहुमत के आंकड़े से कुछ पीछे रह जाने की भाजपा को कुछ न कुछ टीस जरूर होगी। हालांकि पार्टी कुछ उपलब्धियों पर संतोष का अनुभव कर सकती है। कई इलाकों में जहां वह पहले हाशिए पर रहती आई, वहां भी उसे कुछ समर्थन मिलता दिखाई दिया। जैसे उसे तमिलनाडु में 11.1 प्रतिशत वोट मिले। इसी के साथ इस राज्य में 1971 के बाद दस प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त करने वाली वह पहली राष्ट्रीय पार्टी बनी।

पिछले आम चुनाव में भाजपा को यहां मात्र 3.6 प्रतिशत वोट मिला था। त्रिशुर सीट जीतकर भाजपा ने केरल में पहली बार अपना खाता खोला। पूर्वी तट वाले राज्यों में भी भाजपा का प्रदर्शन शानदार रहा है। ओडिशा में पार्टी ने न केवल 21 में से 19 लोकसभा सीटें जीतीं, बल्कि राज्य में पहली बार सत्ता प्राप्त भी की। दोनों तेलुगु भाषी राज्यों आंध्र और तेलंगाना में भी पार्टी का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा। इस विस्तार के बावजूद भाजपा को महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बंगाल में अपेक्षित सफलता नहीं मिली।

आशा अनुरूप सफलता न मिलने के अलग-अलग राज्यों में कारण भी अलग रहे। राजस्थान में बिगड़े जातीय समीकरण और हरियाणा में अग्निवीर योजना ने असर डाला। महाराष्ट्र में लगभग आधे विपक्ष को अपने साथ मिला लेने के कारण पक्ष-विपक्ष जैसी रेखा ही खत्म हो गई और मतदाता में इस विचारविहीन आवागमन के प्रति नाराजगी थी। हालांकि इन तीनों राज्यों में भाजपा को भी थोड़े बहुत नुकसान की आशंका थी। सबसे अधिक चौंकाने वाले नतीजे उत्तर प्रदेश से आए, जहां पार्टी सपा से भी पीछे रह गई।

उप्र के नतीजों की पड़ताल करें तो यहां 2022 विधानसभा चुनावों में बसपा को 13 प्रतिशत से कुछ कम वोट मिला था, जो इस बार 9.44 प्रतिशत रह गया। इसका लाभ आइएनडीआइए खेमे को मिला। दलित वोट में इस छितराव के अलावा कुछ पिछड़ी जातियों का झुकाव भी आइएनडीआइए की ओर दिखा। रुहेलखंड में सैनी, दोआब में निषाद और अवध में कुर्मी वोट भाजपा से छिटका। भाजपा और उसके समर्थक दलों के बयानों के खिलाफ राजपूतों की नाराजगी ने भी कहीं-कहीं पर प्रभाव डाला।

किसी बड़े राष्ट्रीय या राष्ट्रवादी मुद्दे के अभाव में यह चुनाव भारतीय राजनीति की मूल वृत्ति जातिवाद की ओर गया और अखिलेश का सामाजिक समीकरण निर्माण भाजपा की खराब उम्मीदवारी पर भारी पड़ा। सांसदों के खिलाफ प्रबल असंतोष को भाजपा और संघ कैडर की उदासीनता ने पार्टी के लिए और नुकसानदेह बनाया। हालांकि इनसे इतर ऐसे बड़े कारण भी रहे, जिन्होंने चुनाव को व्यापक रूप से प्रभावित किया। ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा अनुसूचित जाति और पिछड़ा बाहुल्य सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा।

इस रुझान को महज प्रत्याशी चयन या अखिलेश यादव की सोशल इंजीनियरिंग की सफलता मानकर देखना उचित नहीं होगा, क्योंकि प्रदेश में राजग का वोट घटा और विपक्षी मोर्चे का वोट बढ़ा। खराब उम्मीदवारी का आरोप कम से कम प्रधानमंत्री पर नहीं लग सकता, पर वाराणसी में उन्हें पिछली बार से 60,000 वोट कम मिले, जबकि अजय राय को पिछली बार सपा-बसपा गठबंधन और स्वयं को मिले वोट के योग से भी एक लाख सत्तर हजार वोट अधिक मिले।

प्रभावित सीटों की पड़ताल बताती है कि कांग्रेस का एक लाख रुपये देने का वादा और आरक्षण खत्म कर देने संबंधी नैरेटिव सफल हुआ। ईवीएम पर दुष्प्रचार भी सुर्खियों में रहा। एआइ द्वारा तैयार किया गया अमित शाह का आरक्षण समाप्त करने संबंधी फर्जी वीडियो जब तक पकड़ में आया, तब तक बहुत नुकसान हो चुका था। भाजपा कांग्रेसी दुष्प्रचार का समय से कारगर जवाब नहीं दे पाई। बिहार की तरह अति पिछड़ा एवं अनुसूचित जातियों के गठबंधन की कमी के कारण उत्तर प्रदेश में आरक्षण संबंधी दुष्प्रचार को हवा मिलती रही।

जहां बिहार में जीतनराम मांझी और चिराग पासवान जैसे नेताओं ने इस झूठ का छोटी-छोटी सभाओं में खंडन किया, वहीं उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ। एक विदेशी कंपनी द्वारा एआइ द्वारा हालिया चुनावों को प्रभावित करने की जो बात सामने आई, वह आने वाले चुनावों में तकनीकी हेराफेरी को एक खतरनाक चुनौती के रूप में दर्शाती है।

देश के आधारभूत ढांचे, मूलभूत सुविधाओं और सकल घरेलू उत्पाद में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और करीब 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं। इस बीच “विकसित भारत” और “विश्वगुरु” जैसे शब्दों ने एक वर्ग को अपनी खराब आर्थिक स्थिति का ध्यान दिलाया। निम्न आय वर्ग का मत परिवर्तन इसकी पुष्टि करता है कि ऐसे प्रचार के प्रति मतदाता में खीझ बनी रहेगी और उसे चुनावी मुद्दा बनाना तब तक जोखिम भरा है, जब तक बहुत बड़ा वर्ग आर्थिक रूप से सशक्त नहीं बन जाता। इस तरह देखें तो 2024 में 2004 जैसी ‘इंडिया शाइनिंग’ जैसी चूक की भी पुनरावृत्ति हुई।

प्रधानमंत्री मोदी का प्रशासनिक रेकॉर्ड अभूतपूर्व रहा है। यह उनकी लोकप्रियता का ही कमाल है कि भाजपा पिछले दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर तीसरी बार भी सत्ता विरोधी रुझान को धता बताते हुए सत्ता में लौटी। किसी दूसरे नेता के नेतृत्व में ऐसी उपलब्धि असंभव थी। यह भी सही है कि केंद्रीय नियंत्रण और दिल्ली द्वारा थोपे गए निर्णयों ने राज्य सरकारों की गतिशीलता को प्रभावित किया है।

खराब टिकट वितरण, बाहरी नेताओं का आयात, पुराने कैडर की उपेक्षा जैसी तमाम समस्याएं भी भाजपा में बढ़ती हाईकमान संस्कृति की देन हैं। ध्यान रहे कि कांग्रेस के पराभव का पहला महत्वपूर्ण कारण भी हाईकमान संस्कृति ही थी। उत्तर प्रदेश में अपेक्षाकृत खराब परिणाम के लिए राज्य सरकार की उस कार्यप्रणाली के विश्लेषण की भी आवश्यकता है, जिसमें बाबुओं पर अत्यधिक निर्भरता दिखाई देती है। मुख्यमंत्री योगी ने संगठित अपराध की कमर तोड़कर प्रदेश को भय मुक्त बनाया है, किंतु जनप्रतिनिधि एवं कार्यकर्ताओं की उपेक्षा संगठन की उदासीनता का कारण बनी है।

कुछ समस्याओं के बावजूद, जैसे केंद्र में मोदी जरूरी हैं, वैसे ही यूपी में योगी अपरिहार्य हैं। विपक्ष द्वारा योगी के भविष्य पर अनिश्चितता का जो माहौल बनाया गया, उसका शीर्ष स्तर से ससमय खंडन न होने से भी पार्टी समर्थकों में गलत संदेश गया। भाजपा के लिए अच्छी बात यह है कि उसे छोटा झटका सत्ता गंवाए बिना मिला। पिछला रिकार्ड इसका गवाह है कि पार्टी और उसका नेतृत्व अपने आपको आवश्यकता अनुरूप ढालता रहा है।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)