हृदयनारायण दीक्षित। हम भारत के लोग अक्सर चुनावी तनाव में रहते हैं। लोकसभा चुनाव अभी-अभी संपन्न हुए हैं। कुछ दिन बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के बाद दिल्ली एवं बिहार आदि विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। नगरीय क्षेत्रों एवं पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव भी सामाजिक तनाव पैदा करते हैं। लगातार चुनावी व्यस्तता राष्ट्रीय विकास में बाधक है। चुनावों के दौरान प्रशासनिक तंत्र की अलग व्यस्तता बनी रहती है। चुनावी आचार संहिता के दौरान विकास कार्य भी रुक जाते हैं।

अलग-अलग चुनावों में अरबों रुपये का व्यय होता है। इसलिए सभी चुनावों को एक साथ कराने का विचार महत्वपूर्ण हो गया है। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में ‘एक देश-एक चुनाव’ का विचार व्यक्त किया था। इस संबंध में मंथन के लिए पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक समिति भी बनी थी। समिति ने 47 राजनीतिक दलों से सुझाव प्राप्त किए। 32 दलों ने एक साथ चुनाव का समर्थन किया।

समिति ने 18,626 पृष्ठों वाली रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को मार्च में प्रस्तुत की थी। समिति ने चार पूर्व मुख्य न्यायधीशों, उच्च न्यायालय के 12 मुख्य न्यायधीशों, चार पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों और आठ राज्य चुनाव आयुक्तों जैसे विशेषज्ञों से परामर्श मांगे थे। नागरिकों से 21,558 सुझाव प्राप्त हुए। विधि आयोग ने 2018 में एक प्रारूप रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। अब समिति ने इस प्रसंग से जुड़े सभी मसलों पर व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। नई सरकार में कमान संभालते ही केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने इस दिशा में आगे बढ़ने के संकेत भी दिए हैं।

कोविंद समिति ने महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। उसने लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव साथ कराने का प्रस्ताव किया है। इसके लिए संविधान में संशोधनों की रूपरेखा भी प्रस्तुत की है। एक साथ चुनाव के लिए नियत तारीख निर्दिष्ट करने के लिए संविधान के अनुच्छेद-82 में संशोधन का सुझाव दिया है। एक साथ चुनाव के लिए ‘नियत तारीख’ के बाद जहां राज्य विधानसभाओं के चुनाव होने हैं, वे एक साथ चुनाव कराने की सुविधा के लिए संसद के साथ समन्वय कर लेंगे।

समिति के अनुसार सब कुछ योजनाबद्ध होता है तो संभवतः पहला एक साथ चुनाव 2029 में हो सकता है। यदि 2034 के चुनावों को लक्षित किया जाता है तो वर्ष 2029 के लोकसभा चुनाव के बाद नियत तारीख की पहचान होगी। तब जिन राज्यों में जून 2024 और मई 2029 के मध्य चुनाव होने हैं, उनका कार्यकाल 18वीं लोकसभा के साथ समाप्त हो जाएगा। राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल का प्रभाव नहीं पड़ेगा। संसद या राज्य विधानसभा के समय से पहले भंग होने की स्थिति में समन्वय बनाए रखने के लिए समिति ने एक साथ चुनाव के अगले चक्र तक शेष कार्यकाल के लिए नए चुनाव कराने की सिफारिश की है। समिति का तर्क है कि त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव एक साथ चुनाव की समग्र समय सीमा को प्रभावित नहीं करता।

संसदीय चुनावों के साथ नगर पालिका और पंचायतों के चुनाव का समन्वय जरूरी है। लोकसभा, विधानसभा और नगरीय पंचायती क्षेत्रों की मतदाता सूची में भी अंतर होते हैं। समिति ने संविधान के अनुच्छेद-324 के अधीन कानून बनाने का परामर्श दिया है। यह कानून स्थानीय निकायों के चुनाव कार्यक्रम को राष्ट्रीय चुनाव समय सीमा के साथ जोड़ेगा। भारत निर्वाचन आयोग राज्य चुनाव आयोगों के परामर्श से सभी स्तरों पर एकल मतदाता सूची और मतदाता फोटो पहचान पत्र तैयार करने में सक्षम बनाएगा। अभी तक लोकसभा चुनाव के लिए मतदाता सूची तैयार करने की जिम्मेदारी भारत निर्वाचन आयोग पर है और स्थानीय निकायों के लिए मतदाता सूची राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा तैयार की जाती है। समिति ने दोनों की एक ही मतदाता सूची तैयार करने का सुझाव दिया है। कई बार इन सूचियों में विसंगतियां होती हैं तो सूची को प्रामाणिक बनाने का आग्रह है।

सभी संवैधानिक प्रतिनिधि संस्थाओं के चुनाव एक साथ कराने का विचार विशेष राजनीतिक सुधार है। भारत में राजनीतिक सुधारों विशेषत: चुनाव सुधार की गति बहुत धीमी है। यह एक प्रशंसनीय राजनीतिक सुधार है। कुछ लोगों का तर्क है कि इससे संघवाद को क्षति होगी। यह कहना गलत है। सभी राज्य एक साथ-एक चुनाव में राज्यों एवं केंद्र के मुद्दे एक साथ उठाएंगे। इससे राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों से जुड़ेंगे। क्षेत्रीय दलों की दृष्टि अखिल भारतीय होगी। एक साथ चुनाव के विरोधी अनावश्यक रूप से घबराए हुए हैं। साथ-साथ चुनाव से आम जनों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ेगी। वे राष्ट्रीय मुद्दों के साथ क्षेत्रीय मुद्दे भी देखेंगे। क्षेत्रीय दल स्थानीयता से ऊपर उठेंगे। राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय कठिनाइयों को समझने का प्रयास करेंगे। मतदान का प्रतिशत बढ़ने की भी भरी-पूरी संभावना है। एक साथ चुनाव से नुकसान की बात करने वाले भूल जाते हैं कि 1967 तक देश में एक साथ चुनाव का सिलसिला कायम रहा।

कुछ दल कोविंद समिति की रपट का अध्ययन किए बिना ही उसे खारिज करने पर तुले हैं। कांग्रेस ने कहा कि वन नेशन-वन इलेक्शन लागू करने से संविधान की बुनियादी संरचना में बदलाव होंगे। यह संघवाद के खिलाफ है। कांग्रेस यह न भूले कि भारतीय संघ अमेरिकी संघवाद नहीं है। यहां राज्य भारत के अभिन्न अंग हैं। संविधान सबको बांधकर रखता है। तृणमूल कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को असंवैधानिक बताते हुए आशंका जताई कि इससे राज्य के मुद्दों को दबाया जा सकता है। द्रमुक की दलील है कि इसके लिए राज्य विधानसभाओं को समय से पहले भंग करने की आवश्यकता होगी।

सपा ने कहा कि इससे राष्ट्रीय मुद्दे क्षेत्रीय मुद्दों पर प्रभावी होंगे। इनसे इतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि एक साथ चुनाव का विचार संकीर्ण राजनीतिक दृष्टि से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिए। भाजपा, एनपीपी, अन्नाद्रमुक, आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, अपना दल (सोनेलाल), असम गण परिषद, लोक जनशक्ति पार्टी एक साथ चुनाव का समर्थन कर रहे हैं। याद रहे कि कोई भी देश लगातार चुनावी मोड में नहीं रह सकता। चुनावी आरोप-प्रत्यारोप सामाजिक चेतना और तानेबाने को आहत करते हैं। एक साथ चुनाव असल में कई समस्याओं का समाधान है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)