संतोष त्रिवेदी। चुनाव जा चुके हैं और उसमें जनता को दी गईं सारी गारंटियां भी। इस बार सरकार बनाने वाले न ठीक से जीते और न विपक्ष में बैठने वाले ठीक से हारे। इस तरह जनता के हाथ एक भी गारंटी नहीं लगी। इससे दोनों पक्षों को राहत मिली। लगता है, जनता पर गर्मी का असर कुछ ज्यादा ही चढ़ गया था, सो उसने किसी भी गारंटी पर एकतरफा यकीन नहीं किया। उसने कान दोनों पक्ष के खींचे, पर महसूस केवल एक को ही हुआ। इस चुनाव की सबसे मजेदार बात यह रही कि सरकार बनाने वाले नाखुश लग रहे, जबकि विपक्ष में बैठने वाले गदगद।

उनकी यह अप्रत्याशित खुशी सत्ता पाने वालों को हजम नहीं हो रही है। उन्हें इस बात पर शक होने लगा है कि वे वाकई में जीते भी हैं या नहीं! उन्हें इस पर सख्त आपत्ति है कि जो यकीनन हारे हैं, वे खुश कैसे हो सकते हैं? जश्न मनाने का अधिकार सिर्फ जीतने वालों का है, पर होनी को कौन टाल सकता था! जिन्हें हार का चिंतन करना चाहिए, वे जीत के भजन गा रहे हैं। इधर सरकार बनाकर भी कार्यकर्ता थके-हारे लग रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे दूसरे पक्ष वालों ने इनकी भैंस खोल ली हो, जबकि उनके हाथ केवल पगहा लगा है। फिर भी वे उछल रहे थे।

इससे जीतने वाले भ्रमित हो गए। वे बार-बार अपनी जीत को आलाकमान से सुनिश्चित कर रहे थे। आलाकमान पहले से ही असमंजस में था। अंतत: उसने बयान जारी कर कह दिया कि हमने अकेले जितनी जीत हासिल की है, सारे विरोधी मिलकर भी हमसे पीछे रहे। दरअसल हारे वे हैं, हम नहीं। हारने पर भी उनकी गर्मी कम नहीं हुई, जबकि हम जीतकर भी ठंडे पड़ गए हैं।

इस बयान के आते ही दूसरे पक्ष से बड़ी गर्म प्रतिक्रिया आई। जवाब था, ‘हम हारे कहां हैं! पहले से हम डबल हुए हैं, जबकि उनका नारा ‘बबल’ की तरह फूटा है। हमारी खिली हुई सूरतें देखकर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि अगर कोई जीता है तो वह हम हैं। हार में छिपी हुई जीत भी हम देख लेते हैं। वे हमें ‘घमंडिया’ कहते रहे, जबकि असली घमंड तो उन्हीं के पास था।

हमने उसे तोड़ा है। इसकी खुशी हमें है। सरकार हमारे खाते तो पहले ही सील कर चुकी थी, अब खुशी भी सील करना चाहती है। चाहे जो हो जाए, हम हर हाल में खुश रहेंगे, बल्कि सरकार न बनाकर हम ज्यादा खुश हैं। सोचिए, अगर सरकार बनाने की जिम्मेदारी हमारे पल्ले पड़ जाती तो कितनी मुसीबत होती। न सहयोगियों की मांग पूरी कर पाते, न ही जनता के लिए खटाखट-गारंटी। हम सामने वालों को चित भले न कर पाए हों, पर एक जोरदार चुटकी हमने जरूर काट ली है। एक और जरूरी बात। इस बार जनता के साथ-साथ मशीनों ने भी हमारा साथ दिया है। उनके साथ न जनता रही, न मशीनें। हमारे लिए यही जीत है।’

इसके बाद गर्म मौसम और धधकने लगा। सरकार बनाने वालों पर अपने भी टूट पड़े। जो उपदेश चुनाव से पहले देने चाहिए, वे नतीजों के बाद आने लगे। जिस प्रकार भीषण गर्मी के बाद बादल बरसते हैं, ऐसे ही चुनाव में झुलसने के बाद कुछ नेता बरसने लगे। इससे कार्यकर्ता फिर भ्रमित हुए कि सरकार उन्हीं की चल रही है कि विपक्ष की? आखिरकार इसकी आंच सहयोगियों को भी तपाने लगी। गर्मी में बड़े-बड़े हिमखंड पिघल जाते हैं, ये तो फिर भी छोटे-मोटे गठबंधन हैं। इनके जुड़ने और बिखरने की खबरें हवा में तैरने लगीं।

खबरों से ज्यादा दिन-रात अफवाहें दौड़ने लगीं। गर्मी है ही इतनी कि छोटी-मोटी अफवाह उड़ते ही गर्म हो उठती है। कोई नेता विरोधी गठबंधन के नेता की कुशल-क्षेम भी पूछ ले तो बनी-बनाई सरकार के गिरने की भविष्यवाणी हो जाती है। कइयों ने अपने चैनलों पर नियमित रूप से ज्योतिषी और तोते बैठा लिए हैं। वे दिन में तीन बार यह बता रहे हैं कि सरकार अब गिरी या तब। खबरें गर्म हैं कि फलां गठबंधन बस टूटने ही वाला है। इस तरह के कयास में ही उनकी आस है। पहली बार सरकार न बना पाने पर वे खुश हैं और सरकार में रहकर ये उदास। कोई बताए यह माजरा क्या है!