प्रणय कुमार। पिछले 10 वर्षों में देश ने लगभग हर क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, परंतु शिक्षा का क्षेत्र कमोबेश उपेक्षित ही रहा। नई सरकार में फिर से शिक्षा मंत्री बने धर्मेंद्र प्रधान ने कहा है कि वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति को तेजी से लागू करेंगे। इसका अर्थ है कि अभी तक तेजी नहीं दिखाई गई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रचार-प्रसार तो खूब हुआ, परंतु धरातल पर उसका क्रियान्वयन, प्रभाव और परिणाम दिखाई नहीं देता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भावी पीढ़ी के भविष्य और निर्माण से जुड़ा विषय समाज और सरकार की प्राथमिकता-सूची में निचले क्रम पर दिखता है। राजनीतिक दलों के लिए जब सत्ता-प्राप्ति का सीमित और तात्कालिक लक्ष्य सर्वोपरि हो जाता है, तब विचारों के गठन और व्यक्ति-निर्माण का प्रश्न पीछे छूट जाता है।

निःसंदेह मोदी सरकार ने पिछली सरकारों की तुलना में अधिक आइआइटी, आइआइएम, मेडिकल कालेज एवं केंद्रीय विश्वविद्यालय खोले हैं, परंतु क्या हमारे विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा की स्थिति, शिक्षण का स्तर, पाठ्यक्रम की गुणवत्ता, विश्व में उसकी साख एवं विश्वसनीयता, वर्षों से लंबित एवं रिक्त पदों पर नई नियुक्ति, मौलिक शोध एवं नवोन्मेष, कौशल एवं तकनीक की दक्षता, अध्यापकों का प्रशिक्षण, नियमित सत्र, अनुशासित शैक्षिक परिवेश, रोजगारपरक शिक्षा, पारदर्शी एवं कदाचारमुक्त परीक्षा तथा भारी धन खर्च कर भी विदेशी विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने की बढ़ती लालसा आदि पर समाधानपरक काम नहीं किया जाना चाहिए? उम्मीद थी कि बीते दस वर्षों की पूर्ण बहुमत वाली सरकार में पाठ्यक्रम में सुधार की दृष्टि से निर्णायक पहल की जाएगी, परंतु इस दिशा में अभी तक खानापूर्ति ही अधिक हुई है। जहां बुनियाद बदलने की शर्त हो, क्या वहां केवल साज-सज्जा से काम चलाया जा सकता है? आवश्यकता संशोधन-संक्षिप्तीकरण की नहीं, अपितु राष्ट्र की आकांक्षा के अनुरूप पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन से जुड़ी है।

नि:संदेह भाषा, साहित्य, इतिहास, राजनीतिशास्त्र और दर्शन जैसे मानविकी के विभिन्न विषयों के माध्यम से सांस्कृतिक एकता एवं अखंडता को मजबूती मिलनी चाहिए। इसी तरह भारतीय ज्ञान-परंपरा को पोषण मिलना चाहिए, अस्तित्ववादी विमर्श एवं विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर विराम लगना चाहिए। सहयोग, संतुलन, सामाजिकता, संवेदनशीलता एवं देशभक्ति जैसे मूल्यों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। भारतीय संस्कृति में व्याप्त बहुलता, शांति एवं सह-अस्तित्व के मूल स्रोत की पहचान की जानी चाहिए।

यह कैसी विडंबना है कि हमारे बौद्धिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श में ‘भारतवर्ष में व्याप्त विविधता में एकता’ का उल्लेख तो भरपूर किया जाता है, परंतु उसे पोषण देने वाले मूल्यों, मान्यताओं, परंपराओं, प्रमुख घटकों, मंदिरों, मठों, तीर्थों और त्योहारों आदि की कोई चर्चा नहीं होती? क्या पाठ्यक्रम में इन्हें यथोचित स्थान नहीं मिलना चाहिए? इतिहास की हमारी पाठ्यपुस्तकों में विदेशी आक्रांताओं की अतिरंजित विवेचना की गई है और भारतीयों के साहस, संघर्ष एवं प्रतिरोध को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया गया है। देश के वैशिष्ट्य एवं गौरवशाली अध्यायों की अपेक्षा केवल दिल्ली-केंद्रित इतिहास को केंद्र में रखा गया है तथा देश के अमर सपूतों, बलिदानी धर्मरक्षकों, महान संतों, समन्वयवादी समाज-सुधारकों, क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों को नेपथ्य में रख, दो-चार का महिमामंडन किया गया है!

क्या यह सत्य नहीं कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था और पाठ्य-सामग्रियों में आस्था एवं विश्वास पर संदेह, अनास्था एवं अविश्वास को वरीयता दी गई है? उसमें अधिकार भाव की प्रबलता है, कर्तव्य-भावना गौण है। वर्गीय चेतना के नाम पर अलगाववादी वृत्तियों तथा पारस्परिक मतभेद एवं संघर्ष को शिक्षा के माध्यम से पाला-पोसा-बढ़ाया गया है। मूल बनाम बाहरी, उत्तर बनाम दक्षिण, राष्ट्रभाषा बनाम क्षेत्रीय भाषा जैसी कृत्रिम लड़ाइयां शिक्षा, साहित्य, कला एवं संस्कृति के माध्यम से खड़ी की गई हैं। परिवार, समाज एवं राष्ट्र की विभिन्न इकाइयों को परस्पर विरोधी मानने वाली खंडित एवं विभेदकारी दृष्टि के स्थान पर क्या शिक्षा-व्यवस्था में समन्वय और समग्रता पर आधारित सनातन दृष्टि को स्थान नहीं मिलना चाहिए?

स्वतंत्र भारत की अनेक गौरवशाली उपलब्धियां पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए जाने की बाट जोह रही हैं। क्या भारत की सफल लोकतांत्रिक यात्रा के क्रमिक सोपानों का उल्लेख पाठ्यक्रम में नहीं होना चाहिए? क्या आपातकाल के दौरान किए गए संघर्ष और यातनाओं की व्यथा-कथा पढ़कर लोकतंत्र के प्रति भावी पीढ़ी की आस्था मजबूत नहीं होगी? क्या चंद्रयान, मंगलयान की सफलता की गाथा नहीं पढ़ाई जानी चाहिए? दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रयोग, अनुसंधान और व्यवहार की कसौटी पर कसे जाने वाले गणित और विज्ञान जैसे विषयों में भी बीते कई दशकों से परिवर्तन नहीं किए गए हैं।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अध्ययन-अध्यापन की भाषा के रूप में मातृभाषा एवं भारतीय भाषाओं की पैरवी की गई है, परंतु अभी तक इस दिशा में अपेक्षित काम नहीं हुआ है। विभिन्न स्तरों की परीक्षा-पद्धति, प्रश्नपत्र के प्रारूप, मूल्यांकन की प्रक्रिया आदि में सुधार आवश्यक हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक होने की समस्या विकराल होती जा रही है। अभी नीट का मामला सुर्खियों में है। यह दर्शाता है कि शिक्षा के साथ परीक्षा व्यवस्था में जरूरी सुधार नहीं हो सके हैं। यह समय की मांग है कि मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में शिक्षा-क्षेत्र में सुधारों को गति एवं दिशा मिले तथा पाठ्यक्रम में अविलंब व्यापक परिवर्तन हो।

(लेखक शिक्षाविद् एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं)