हरेंद्र प्रताप। अठारहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजे विचारधारा वाले दो दलों-भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों के उत्कर्ष और पराभव की भी कहानी कहते हैं। राष्ट्रवादी विचार को लेकर चलने के कारण भाजपा जहां आज सत्ता के शीर्ष पर है, वहीं राष्ट्र विरोधी विचार के कारण देश में वामपंथ को नकारा जा रहा है। आज भारत में कम्युनिस्ट नामधारी कई पार्टिया हैं, जैसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआइ, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम, सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन, सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन रेड स्टार, सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन रेड फ्लैग, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (यूनाइटेड) और सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आफ इंडिया (कम्युनिस्ट)।

इसके अलावा रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) और फारवर्ड ब्लाक के नाम में भले कम्युनिस्ट या मार्क्स या लेनिन न जुड़ा हो, पर उनकी विचारधारा भी वामपंथी है और वे वाम गठबंधन में शामिल रहे हैं। सीपीआइ से टूट कर सीपीएम, सीपीएम से टूटकर सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन और लिबरेशन से टूट कर लिबरेशन रेड स्टार और लिबरेशन रेड फ्लैग जैसे दल बने। अलोकतांत्रिक, असहिष्णु एवं हिंसा के पक्षधर वामपंथ में संवाद-सहयोग और समन्वय का अभाव तथा विदेशपरस्त नीतियां उनके विभाजन के प्रमुख कारण बनते रहे।

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम तीन तो सीपीआइ दो सीटों पर जीती थी। इस बार लोकसभा चुनाव में सीपीएम केरल से एक, तमिलनाडु से एक तथा राजस्थान से एक यानी कुल तीन सीटें और सीपीआइ तमिलनाडु से दो सीटें जीती हैं। साथ ही सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन बिहार से दो तथा आरएसपी केरल से एक सीटें जीतने में सफल रही। बंगाल में लोकसभा की 42 सीटे हैं। कभी इस राज्य में 28 सीटें जीतने वाली सीपीएम विगत लोकसभा चुनाव में अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी। इस बार भी नहीं खोल पाई। इस बार के चुनाव में मात्र एक सीट पर ही वह दूसरे स्थान पर रही है। स्पष्ट है कि अब बंगाल उसके हाथ से पूरी तरह फिसल चुका है।

सीपीआइ का वर्ष 1964 में विभाजन हुआ। दूसरे धड़े ने अपना नाम सीपीएम रखा। 1967 के लोकसभा चुनाव में बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जहां कम्युनिस्ट पार्टी का खासा जनाधार था, वहां ये दोनों दल एक-दूसरे के खिलाफ लड़े। बंगाल में दोनों पांच-पांच सीटें जीते। धीरे-धीरे ये दोनों राज्य विशेष में अपना जनाधार बनाने लगे। त्रिपुरा, बंगाल और केरल में वामपंथी जनाधार पर सीपीएम का कब्जा तो बंगाल से सटे बिहार और उत्तर प्रदेश में सीपीआइ का असर हो गया। 1991 में सीपीआइ पूरे देश में 14 सीटें जीती थी, जिसमें बिहार की हिस्सेदारी आठ थी।

हालांकि 1996 के बाद से उत्तर प्रदेश तो 1998 के बाद से बिहार में सीपीआइ अपना खाता भी नहीं खोल पाई। अब बिहार के वामपंथी जनाधार पर सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन का कब्जा हो गया है। 2020 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन 19 सीटों पर लड़कर 12 सीटें जीतने में सफल रही। सीपीआइ तथा सीपीएम दोनों दो-दो सीटें ही जीत पाईं। इस बार लोकसभा चुनाव में बिहार में सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन भाजपा के आरके सिंह तथा राष्ट्रीय लोक मोर्चा के उपेंद्र कुशवाहा को हराने में सफल हुई। तीन सीटों पर लड़कर दो सीटों पर विजय प्राप्त होने से सीपीआइ (एमएल) लिबरेशन के समर्थक उत्साहित हैं।

कुछ वामपंथी विचारक इसे वामपंथ के पुनरुद्धार से जोड़कर नई-नई भविष्यवाणी कर रहे हैं। ध्यान रहे कि बिहार में वामपंथी दलों का गठबंधन जातिवादी राजनीति के वाहक राजद के साथ है। वर्ग की बात करने वाले जाति की राजनीति करने वाले से हाथ मिलाकर इतरा रहे हैं। इस गठबंधन में कांग्रेस भी है, जबकि 2008 में सीपीएम के तत्कालीन महासचिव प्रकाश करात ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी कि भविष्य में वह कांग्रेस से कोई गठबंधन नहीं करेंगे।

केरल में तो नहीं, पर बंगाल, त्रिपुरा और बिहार में वह कांग्रेस से गठबंधन कर लोकसभा चुनाव लड़े। बंगाल में कांग्रेस के साथ हुए गठबंधन में आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक भी शामिल थे, लेकिन कूचबिहार और पुरुलिया में कांग्रेस ने आरएसपी के उम्मीदवार के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया। अत: चुनाव परिणाम के अगले दिन ही आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने यह घोषणा कर दी कि भविष्य में वे कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं करेंगे।

बंगाल में जिस कांग्रेस का विरोध कर सीपीएम दशकों राज्य की सत्ता पर काबिज रही, उसी कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन करती है और उसकी करारी हार होती है तो यह मतदाता नहीं कम्युनिस्ट नेतृत्व का दोष है। बंगाल आज राजनीतिक हिंसा और वोटों के अपहरण का पर्याय बन गया है। यहां इस संस्कृति का बीजारोपण सीपीएम नेतृत्व वाली वामपंथी सरकार ने ही किया था। अब वामपंथी दल ममता बनर्जी पर लोकतंत्र के अपहरण का आरोप लगा रहे हैं। बंगाल में लगातार हो रही हार पर सीपीएम के राज्य सचिव मोहम्मद सलीम ने कहा कि अब हमें भी ‘आइपैक’ जैसी पेशेवर संस्था का सहारा लेना चाहिए, ताकि पार्टी को फिर पटरी पर लाया जा सके।

वैसे भी वर्तमान में चुनाव इंटरनेट मीडिया पर कुछ ज्यादा निर्भर होता जा रहा है। वाम दलों की पराजय और बिखराव पर वामपंथी विचारक भले सार्वजनिक रूप से अपनी कमी को स्वीकार न करें, पर उनके अवसान का कारण वे खुद हैं। चीन के विस्तारवाद पर चुप्पी, बांग्लादेश के निर्माण का विरोध तथा अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के विरोध की घोषणा से सीपीएम बेनकाब हो गई है। अगर वामपंथी भारत विरोधी विचार नहीं छोड़ेंगे तो उनका इतिहास के पन्नों में सिमटना तय है।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)