यह शुभ संकेत है कि एक देश-एक चुनाव संबंधी रिपोर्ट शीघ्र ही कैबिनेट के समक्ष रखी जा सकती है। इसका अर्थ है कि मोदी सरकार गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के बाद भी अपने अन्य एजेंडों के साथ एक साथ चुनाव कराने के अपने एजेंडे को लेकर भी गंभीर है। इस गंभीरता का पता इससे भी चलता है कि कानून मंत्रालय ने अपने लिए सौ दिन का जो एजेंडा तय किया है, उसमें लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराना भी है। कानून मंत्री ने अपने इस एजेंडे को पूरा करने की प्रतिबद्धता जताते हुए यह आशा व्यक्त की थी कि सहयोगी दल भी इस पहल का समर्थन करेंगे।

चूंकि आंध्र प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ ही होते चले आ रहे हैं, इसलिए तेलुगु देसम पार्टी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसी तरह अन्य सहयोगी दलों और विशेष रूप से जनता दल-यू से भी इस पहल को समर्थन मिलने की उम्मीद है। इसका कारण कुछ माह पहले जनता दल-यू के नेताओं की पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द से हुई मुलाकात है। इस मुलाकात में इस दल के नेताओं ने एक साथ चुनाव के विचार का समर्थन किया था। ज्ञात हो कि राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता वाली समिति ने एक साथ चुनाव के विषय पर विचार करने के उपरांत अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी है। एक तथ्य यह भी है कि विगत में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी एक साथ चुनाव की पहल का समर्थन कर चुके हैं।

यह सही है कि कई विपक्षी दल एक साथ चुनाव के विचार पर आपत्ति जताते चले आ रहे हैं, लेकिन उनकी यह आपत्ति विरोध के लिए विरोध वाली राजनीति से ही अधिक प्रेरित है। वे इस पर ध्यान देने के लिए जानबूझकर तैयार नहीं कि लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने से सभी दलों के राजनीतिक एवं आर्थिक हित सधेंगे और राष्ट्रीय संसाधनों पर बोझ भी कम होगा। इसके अतिरिक्त आम जनता की परेशानी भी कम होगी। यह ठीक है कि एक साथ चुनाव के विचार को अमल में लाने के लिए संविधान में कुछ संशोधन करने होंगे, लेकिन यह ऐसा कोई काम नहीं, जिसे न किया जा सके।

उचित यह होगा कि जो दल एक साथ चुनाव के विचार का विरोध कर रहे हैं, वे दलगत राजनीति से ऊपर उठें और राष्ट्रीय हितों की चिंता करें। उन्हें ऐसा इसलिए करना चाहिए, क्योंकि 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे। विपक्षी दलों की ओर से दिए जा रहे इन तर्कों का कोई मूल्य-महत्व नहीं कि एक साथ चुनाव कराना लोकतंत्र एवं संविधान की भावना के प्रतिकूल है और इससे राष्ट्रीय दलों को अधिक लाभ मिलेगा। हाल के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में तेलुगु देसम पार्टी को आंध्र प्रदेश में मिली सफलता यही बताती है कि यह एक थोथा तर्क है।