डॉ. सुशील पांडेय। इस बार लोकसभा चुनाव के दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के घोषणा पत्र और चुनावी मुद्दों के केंद्र में जाति आधारित राजनीति ही हावी रही। देखा गया कि चुनाव के पूर्व सभी राजनीतिक दलों ने अलग-अलग क्षेत्रों में जातीय संरचना को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति बनाई। देश के कई हिस्सों में जातीय संगठनों ने भी अलग-अलग राजनीतिक दलों को समर्थन देने की घोषणा की।

कई जातीय संगठनों ने तो अपने जातिगत हितों के लिए दबाव समूह के रूप में कार्य किया और अपनी जातीय चेतना को प्रभावी बनाने के लिए जातीय आधार पर अनेक बैठकों का आयोजन भी किया। भारतीय लोकतंत्र के 75 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी आज यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि संवैधानिक और तार्किक रूप से जाति व्यवस्था अप्रासंगिक होने के बाद भी राजनीति में कैसे प्रभावशाली हो गई है।

इतिहास पर नजर डालें तो भारत की जटिल सामाजिक संरचना में जाति महत्वपूर्ण और केंद्रीय भूमिका में रही है। प्राचीन और मध्यकालीन समाज में तो जाति व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के निर्धारण का आधार थी। देश में अंग्रेजी शासन की शुरुआत होने के बाद से जाति व्यवस्था नए स्वरूप में सामने आई। राजनीतिक ढांचा बदल जाने और नई न्यायिक और आर्थिक व्यवस्था ने जाति के आधार को कमजोर कर दिया। इसके साथ ही सामाजिक आंदोलनों ने जाति के वैचारिक पक्ष को कमजोर कर दिया।

आजादी के लिए आरंभ हुए राष्ट्रीय आंदोलन के आधार पर एक नई सामाजिक संरचना का निर्माण हुआ, जिससे जाति पर आधारित सभी प्रकार की विसंगतियां समाप्त हो गईं। गांधीजी और डा. आंबेडकर के जाति व्यवस्था के उन्मूलन पर अलग-अलग दृष्टिकोण होने के बाद भी दोनों जननेता जातिगत असमानताओं को अस्वीकार करते थे और लोकतंत्र को जाति उन्मूलन का सशक्त आधार मानते थे। संविधान सभा के सदस्य भी जाति व्यवस्था तोड़कर समाज के वंचित वर्ग को मुख्यधारा में लाने के पक्षधर थे।

स्वतंत्रता के बाद जब देश ने चुनावी राजनीति में प्रवेश किया तो संख्या बल की महत्वपूर्ण भूमिका होने के कारण अलग-अलग जातियों ने इसे अपने लिए बड़े अवसर के रूप में देखा। प्राचीन और मध्यकालीन भारत में जाति व्यवस्था का स्थानीय स्वरूप था और जातियां अपने व्यवसाय के आधार पर संगठित थीं, लेकिन आजादी के बाद जातियों ने वर्ग के रूप में स्वयं को संगठित करना प्रारंभ कर दिया। एक समान व्यवसाय वाली जातियां पहले क्षेत्रीय और फिर राष्ट्रीय आधार पर स्वयं को संगठित करने लगीं।

जातियों के अखिल भारतीय संगठन बनने लगे। उत्तर भारत में प्रारंभ में सामाजिक रूप से प्रभावशाली जातियों का वर्चस्व रहा, लेकिन हरित क्रांति के प्रभाव के कारण जाट, यादव, कुर्मी, कुशवाहा जैसी जातियां धीरे-धीरे राजनीति में प्रभावी हो गईं। वहीं, दक्षिण भारत की राजनीति में कर्नाटक में लिंगायत, वोक्कालिगा, आंध्र प्रदेश में कापू, रेड्डी, कम्मा, तमिलनाडु में वेलालर, थेवर, वानियर, नाडर, महाराष्ट्र में मराठा, धनगर, माली, महार, राजस्थान में जाट, राजपूत, मीणा, गुर्जर जैसी जातियां राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगीं।

भारत में जाति व्यवस्था अपने सदस्यों के लिए कल्याणकारी राज्य जैसी भूमिका निभाती है जैसे अपने सदस्यों के लिए जातिगत आधार पर शिक्षण संस्थानों, धर्मशालाओं, धार्मिक संस्थाओं और सामूहिक विवाह, भोज समारोह का आयोजन करना। इन सभी कारणों से जातीय एकजुटता आती है। ऐसी स्थिति में जातियां मनोवैज्ञानिक रूप से संगठित होने लगती हैं और अन्य जातियों के प्रति आक्रामक और विरोधी भाव रखने लगती हैं।

प्रत्येक जाति संगठन स्वयं को किसी महापुरुष अथवा धार्मिक व्यक्तित्व से भी जोड़ता है और उन्हें महिमामंडित करते हुए जाति एकजुटता को सशक्त बनाता है। संचार माध्यमों के प्रभाव के कारण भी जातियों की एकता और संवाद में तेजी से वृद्धि हुई है। इससे देश के कई राज्यों में जाति आधारित राजनीतिक दल बनने लगे और जातियां चुनाव के अवसर पर दबाव समूह के रूप में राजनीतिक दलों के सामने अपनी मांगें रखने लगीं।

इस बार लोकसभा चुनाव प्रारंभ होने से पहले ही जातिगत जनगणना, महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण, राजनीतिक दलों द्वारा पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक मोर्चा बनाकर जातीय गोलबंदी की शुरुआत कर दी गई। सभी राजनीतिक दलों ने टिकट बंटवारे के लिए जातीय समीकरणों को देखते हुए उम्मीदवारों की जाति पर जोर दिया। चुनाव के अवसर पर संविधान खतरे में है-जैसा विमर्श स्थापित करके नकारात्मक प्रचार किया गया।

कई राज्यों में जातीय संगठनों ने खुलकर कुछ राजनीतिक दलों का विरोध किया। चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि सामाजिक, आर्थिक प्रगति और राष्ट्रवाद के साथ-साथ जातीय समीकरण चुनाव जीतने के लिए आवश्यक हैं। औपनिवेशिक विरासत को पीछे छोड़कर राष्ट्रीय मूल्यों के आधार पर नवनिर्माण का जो संकल्प प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रस्तुत किया था, उसे भी इन जातीय समीकरणों ने चुनौती दी है।

जाति के नकारात्मक विमर्श को समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया कि विकसित भारत का संकल्प नारी, युवा, किसान और गरीब के चार अमृत स्तंभों पर टिका है। देखा जाए तो ये चारों जातियां जब सारी समस्याओं से मुक्त और सशक्त होंगी तभी देश सशक्त होगा। यह जातीय घृणा और संघर्ष को समाप्त करके आदर्श लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करेगा। याद रखें कि जाति को राजनीतिक हथियार बनाकर सत्ता प्राप्त करना आसान है, लेकिन राष्ट्र निर्माण और लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए जाति की राजनीति नकारात्मक है।

(लेखक बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ में प्राध्यापक हैं)