ब्रजबिहारी। इजरायल में 13वें प्रधानमंत्री नाफ्ताली बेनेट के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हो चुका है। लेकिन 120 सीटों वाली संसद में केवल एक वोट से विश्वासमत हासिल करने वाली इस सरकार की स्थिरता को लेकर आशंकाओं के बादल मंडरा रहे हैं, क्योंकि इसमें शामिल आठों राजनीतिक पार्टियां सिर्फ बेंजामिन नेतन्याहू को सत्ता से बाहर करने के नाम पर एकजुट हुई हैं। इनमें दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी और वामपंथी पार्टियों के अलावा पहली बार अरब मुसलमानों की एक पार्टी भी शामिल है।

यही वजह है कि नई सरकार बनने के बाद से ही पूर्व प्रधानमंत्री नेतन्याहू इसे गिराने को लेकर काफी आश्वस्त दिख रहे हैं, लेकिन वहां के राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर भारत को बहुत चिंतित होने की जरूरत नहीं है। दोनों देशों के संबंध ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके हैं, जहां ऐसी घटनाएं उसे प्रभावित नहीं कर सकती हैं।

अटूट हैं भारत और इजरायल के रिश्ते: इजरायल ने भारत के साथ गर्मजोशी भरा रिश्ता बनाए रखने की इच्छा जताते हुए इसे नई ऊंचाई देने का संकल्प व्यक्त किया है। दोनों देशों के रिश्तों में स्थिरता की ठोस वजहें हैं। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। पाकिस्तान और चीन हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं। खासकर पाकिस्तान का रवैया काबिलेगौर है। बदले हुए अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम में मुस्लिम देशों का नेतृत्व करने वाले सऊदी अरब और खाड़ी के दूसरे ताकतवर देश संयुक्त अरब अमीरात ने इजरायल की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, पर इजरायल को लेकर पाकिस्तान के कट्टर दृष्टिकोण में बदलाव नहीं आया है। वह अब भी फलस्तीन के समर्थन में खड़ा है, क्योंकि वह उसे कश्मीर के साथ जोड़कर देखता है।

नाफ्ताली का सफरनामा: इजरायली कानून के मुताबिक 18 साल की उम्र में सेना की कमांडो यूनिट में भर्ती होने वाले नाफ्ताली बेनेट छह साल तक स्पेशल फोर्सेस में अफसर रहे। अनिवार्य सैन्य सेवा के बाद उन्होंने एक साइबर सिक्योरिटी कंपनी की स्थापना की और न्यूयार्क चले गए। बहुत कम समय में उन्होंने अपनी कंपनी को एक मुकाम पर पहुंचाया और 33 साल की उम्र में उसे 14.5 करोड़ डालर में बेचकर इजरायल लौटे। वर्ष 2006 में नेतन्याहू की लिकुड पार्टी के साथ जुड़कर उन्होंने राजनीति में कदम रखा। जब नेतन्याहू प्रधानमंत्री बने तो बेनेट को अपना चीफ आफ स्टाफ नियुक्त किया, लेकिन यह रिश्ता बहुत दिन तक नहीं चला।

इसके बाद वे दक्षिणपंथी होम पार्टी में शामिल हुए और जल्दी ही शीर्ष तक का सफर तय किया। वर्ष 2013 में उनकी पार्टी को 13 सीटें मिली थीं। नापसंदगी के बावजूद नेतन्याहू ने उन्हें अपनी कैबिनेट में शामिल किया। अब वह 49 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बन चुके हैं। धुर दक्षिणपंथी होने के साथ ही उन्हें व्यावहारिक राजनेता माना जाता है। वे फलस्तीन को स्वतंत्रता दिए जाने के खिलाफ हैं। बेनेट अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिए नए हैं। इसलिए उन्हें भारत सहित अन्य देशों के नेताओं के साथ रिश्ते कायम करने में समय लगेगा। भारत और इजरायल हाल के वर्षो में काफी करीब आए: बहरहाल, तुर्की की विदेशी नीति में बदलाव के कारण भी भारत और इजरायल हाल के वर्षो में काफी करीब आए हैं। नाटो का सदस्य होने के कारण तुर्की के अमेरिका और उसके फलस्वरूप इजरायल के साथ बहुत अच्छे रिश्ते थे। उसे अमेरिका से उन्नत सैन्य साजो-सामान भी मिले, लेकिन हाल के वर्षो में तुर्की के राष्ट्रपति तैयप आदरेगान के रुख में नाटकीय बदलाव आया है और वह अब सऊदी अरब की जगह मुस्लिम देशों का नेतृत्व करने का सपना पाल रहे हैं। इस अभियान में पाकिस्तान उसके साथ है। भारत विरोध पर टिके पाकिस्तान को सऊदी अरब से झटके पर झटका लगने के बाद अब तुर्की में एकमात्र उम्मीद नजर आ रही है।

खाड़ी देश इस समय बदलाव के दौर से गुजर रहे: इजरायल के नजरिए से देखा जाए तो सऊदी अरब सहित खाड़ी देशों के साथ संबंध सामान्य बनाने के उसके अभियान में भारत अहम कड़ी साबित हो सकता है। परंपरागत रूप से भारत और खाड़ी देशों के रिश्ते बहुत अच्छे रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल में तो यह नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर है। खाड़ी के देशों को भी इजरायल से रिश्ते सामान्य करने के लिए भारत की जरूरत है। खाड़ी देश इस समय बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। कट्टर छवि से बाहर निकलकर उदारवादी व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। साथ ही, अपनी सुरक्षा को लेकर भी आत्मनिर्भर होना चाहते हैं, लेकिन इस काम में इजरायल सबसे बड़ा रोड़ा है।

इजरायल को मिली सामारिक बढ़त पर असर: संयुक्त अरब अमीरात अमेरिका से एफ-35 लड़ाकू विमान खरीदना चाहता है, लेकिन एक संधि से बंधे होने के कारण इजरायल की सहमति के बिना यह संभव नहीं है। दरअसल, 1973 में अमेरिका ने इजरायल को मध्यपूर्व के बाकी देशों के मुकाबले सबसे उन्नत रक्षा साजोसामान देने का समझौता किया था, जिसे वह आज तक निभा रहा है। अगर वह संयुक्त अरब अमीरात को एफ-35 की बिक्री करता है तो इजरायल को मिली सामारिक बढ़त पर असर पड़ेगा। वह कभी नहीं चाहेगा कि किसी और मुस्लिम देश की सामरिक ताकत में इजाफा हो। वह भली-भांति जानता है कि दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे ये मुस्लिम देश कब दुश्मन खेमे में चले जाएंगे, कोई नहीं जानता। इतिहास गवाह है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों की गतिशीलता अजीबोगरीब मोड़ लेती रही है। तुर्की इसका सबसे ताजा उदाहरण है।

जरूरत के सीमेंट से बंधे भारत और इजरायल के संबंध पूर्व प्रधानमंत्री नेतन्याहू के दौर में खूब परवान चढ़े। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों नेताओं की केमिस्ट्री अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में चर्चा का विषय रही। खासकर संयुक्त राष्ट्र में यरुशलम और गाजा पट्टी को लेकर हुए वोटिंग के दौरान भारत ने गैरहाजिर रहकर इजरायल के साथ रिश्तों को नई मजबूती दी। भारत ने पूर्वी यरुशलम को फलस्तीन की राजधानी की मान्यता देने से भी इन्कार किया है।

दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध 29 जनवरी, 1992 को स्थापित हुए: यूं तो भारत ने वर्ष 1950 में ही इजरायल को मान्यता दे दी थी, लेकिन दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध 29 जनवरी, 1992 को स्थापित हुए। सही मायने में दोनों देशों के रिश्तों को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान गति मिली। पिछले तीन दशकों में दोनों देशों के बीच रक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में संबंध काफी प्रगाढ़ हो चुके हैं। आज हम इजरायल से रक्षा खरीद करने वाले देशों में पहले नंबर पर हैं, जबकि रूस के बाद इजरायल हमारा सबसे बड़ा रक्षा आपूíतकर्ता है। वर्ष 1992 में दोनों देशों के बीच सिर्फ 20 करोड़ डालर का व्यापार हुआ था। उसमें भी सबसे ज्यादा हिस्सेदारी हीरे की होती थी। परंतु अब यह आंकड़ा पांच अरब डालर को भी पार कर चुका है।