जागरण संपादकीय: स्कूली शिक्षा का हिस्सा बने नाट्यशास्त्र, पाठ्यक्रम में शामिल करना जरूरी
कला शास्त्र में जो महत्व ‘नाट्यशास्त्र’ का है वही वेदांत में बादरायण के ‘ब्रह्म सूत्र’ न्याय में गौतम के ‘न्याय सूत्र’ और योग शास्त्र में पतंजलि के ‘योग सूत्र’ खगोल विज्ञान एवं गणित में आर्यभट्ट के ‘आर्यभटीय’ और राजनीति विज्ञान में कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ का है। ‘ब्रह्मसूत्र’ के रचयिता बादरायण की यह स्थापना है कि आत्मा ही स्वयं परमात्मा है।
कृपाशंकर चौबे। यूनेस्को के विश्व स्मृतिकोष में ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ और ‘नाट्यशास्त्र’ की पांडुलिपियों का दर्ज होना भारत की महान ज्ञान संपदा की अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति का प्रमाण है। यह विचार करने योग्य है कि भारत के शास्त्रीय ग्रंथ विश्व के स्मृतिकोष में तो संरक्षित हैं, किंतु स्वयं अपने देश में क्या स्थिति है? तथ्य है कि ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ औसत भारतीयों के स्मृतिकोष में दर्ज है, किंतु ‘नाट्यशास्त्र’ नहीं। औसत भारतीयों ने ‘नाट्यशास्त्र’ का नाम जरूर सुना है, किंतु उन्हें नहीं पता कि इस महान ग्रंथ में है क्या?
संस्कृत आलोचना शास्त्र का पहला ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ है, जिसके प्रणेता भरतमुनि हैं। नाट्यशास्त्र का संपूर्ण हिंदी अनुवाद राधावल्लभ त्रिपाठी ने किया है। बाबू लाल शुक्ल शास्त्री ने भी नाट्यशास्त्र का अनुवाद किया है। इस महान ग्रंथ में ज्ञान का खजाना है। कोई ऐसा ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग या कर्म नहीं है, जो नाट्यशास्त्र में नहीं पाया जाता हो। तभी तो ‘नाट्यशास्त्र’ को पांचवां वेद माना गया है। ‘नाट्यशास्त्र’ में 15 बार नाट्यवेद शब्द का उपयोग नाट्य के पर्याय के लिए किया गया है।
‘नाट्यशास्त्र’ में 37 अध्याय हैं। पहले अध्याय में बताया गया है कि इस नाट्यवेद की रचना ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर की गई। बाद के अध्यायों में यह वर्णन है कि नाट्यमंडप कैसे बनाया जाना चाहिए? नेपथ्य यानी मंच पार्श्व की विधि क्या है? पात्रों की वस्त्र सज्जा कैसी होनी चाहिए? अभिनय का क्रम कितने प्रकार का होता है?
अभिनय किस प्रकार किया जाता है? किस पात्र के लिए किस तरह की भूमिका होनी चाहिए? नाटक के नायक और नायिका के गुण क्या हैं? संगीत का विधान कैसे किया जाए? आदि इत्यादि। भरतमुनि के अनुसार नाटक के चार प्रमुख अवयव हैं-कथावस्तु, नायक और पात्र, रस तथा अभिनय। उनके अनुसार नाटक का प्रमुख उद्देश्य कथावस्तु का संगठन है। भरतमुनि रस सिद्धांत के प्रवर्तक हैं।
उन्होंने ‘नाट्यशास्त्र’ के छठे अध्याय में रसों की संख्या आठ बताई है-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत। जबकि 24वें अध्याय में शांत रस का उल्लेख है। इस तरह नौ रसों का उल्लेख मिलता है। भरतमुनि ने कहा है कि जैसे अनेक व्यंजनों और द्रव्यों से युक्त होने पर भोजन करने वाला अपने भोजन में एक विशेष स्वाद का अनुभव करता है, उसी प्रकार रसिक जन अनेक भावों के अभिनय से युक्त स्थायी भावों का आस्वादन करते हैं। यही नाटक की रसानुभूति है।
‘नाट्यशास्त्र’ में चूंकि सौंदर्यशास्त्र, कविता तथा व्याकरण की भी शिक्षा दी गई है इसलिए यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि ‘नाट्यशास्त्र’ केवल नाट्य के लिए है। फिलवक्त अपने देश में स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर ‘नाट्यशास्त्र’ पढ़ाया जाता है, किंतु उसका अकादमिक अध्ययन साहित्य और कला की उच्च शिक्षा तक सीमित है। नाट्यशास्त्र को स्कूली शिक्षा का विषय नहीं बनाया जा सका है। यही बात संस्कृत के कई अन्य महान ग्रंथों के लिए भी सही है। पाणिनि कृत ‘अष्टाध्यायी’ इसका उदाहरण है। पाणिनि संस्कृत के पहले वैयाकरण थे।
उन्होंने ढाई हजार वर्ष पहले ‘अष्टाध्यायी’ ग्रंथ की रचना कर संस्कृत को व्याकरणसम्मत बनाया। ‘अष्टाध्यायी’ महज व्याकरण ग्रंथ नहीं है। आठ अध्यायों में विभक्त इस ग्रंथ के 3,995 सूत्रों में भारत के तत्कालीन भूगोल, सामाजिक जीवन, खानपान, वेश-भूषा, आवास, आर्थिक दशा, वनस्पति, पशु-पक्षी, शिल्प, वाणिज्य-व्यवसाय, नाप-तौल, मुद्रा, ऋणदान, शिक्षा, साहित्य, यज्ञीय कर्मकांड, देवपूजा, राजतंत्र और शासन का विश्वसनीय इतिहास दर्ज हुआ है। उन्होंने भारतवर्ष के लोकजीवन में प्रचलित अनेक अर्थों वाली वृत्तियों का अध्ययन कर व्याकरण रचा। इसी कारण उनके शास्त्र में उस समय के भारतीय लोक जीवन का प्रामाणिक परिचय मिल जाता है।
कला शास्त्र में जो महत्व ‘नाट्यशास्त्र’ का है, वही वेदांत में बादरायण के ‘ब्रह्म सूत्र’, न्याय में गौतम के ‘न्याय सूत्र’ और योग शास्त्र में पतंजलि के ‘योग सूत्र’, खगोल विज्ञान एवं गणित में आर्यभट्ट के ‘आर्यभटीय’ और राजनीति विज्ञान में कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ का है। ‘ब्रह्मसूत्र’ के रचयिता बादरायण की यह स्थापना है कि आत्मा ही स्वयं परमात्मा है और ब्रह्मांड उसी पदार्थ से उत्पन्न हुआ है जिससे ब्रह्म। ब्रह्म ही परम तत्व है और प्रकृति में गति का वही आदि कारण है। गौतम ने ‘न्याय सूत्र’ में ब्रह्मांड की उत्पत्ति में ईश्वर या अलौकिक सत्ता की भूमिका को सिरे से खारिज किया और कहा कि किसी चीज की सत्यता के लिए उसका तर्क सिद्ध होना जरूरी है।
पतंजलि ने योग को दर्शन के रूप में स्थापित करने के लिए ‘योग सूत्र’ लिखा और चित्तवृत्तियों के निषेध को योग कहा। ‘आर्यभटीय’ में खगोल विज्ञान और गणित की कई मौलिक स्थापनाएं हैं। आर्यभट्ट ने पाई का शुद्ध मान निकाला था। उन्होंने ही सबसे पहले सिद्ध किया था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। ईसा से तीन सौ साल पहले कौटिल्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ ग्रंथ में राज्य संचालन की विधियों, युद्ध एवं वैदेशिक मामलों का विशद वर्णन है। संस्कृत के इन महान ग्रंथों का अनुवाद हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है। फिर भी वे स्कूली स्तर पर पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। अब कुछ ऐसा किया जाना चाहिए, ताकि संस्कृत के महान ग्रंथों को औसत भारतीय हृदयंगम कर सकें।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)
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