डॉ. एके वर्म। आपरेशन सिंदूर न केवल पहलगाम आतंकी हमले पर पाकिस्तान को करारा जवाब है, वरन भारत की सैन्य क्षमता का साहसिक प्रदर्शन भी है। भारत ने सामरिक घात-प्रतिघात रोकना अपनी शर्तों पर स्वीकार किया, जिसमें सिंधु जल संधि के स्थगन पर फैसला कायम रखना और आतंकी गतिविधियों को युद्ध की संज्ञा देना शामिल है। कई लोग चाहते थे कि भारत कुछ ऐसा करता, जिससे समस्या का स्थायी समाधान होता, पर आखिर भारत ऐसा करता क्या?

आपरेशन सिंदूर का लक्ष्य था-आतंकियों और उनके अड्डों को चिह्नित कर उन्हें नष्ट करना और उन्हें प्रश्रय देने वालों को दंडित करना। इस लक्ष्य की बड़े हद तक पूर्ति हुई। आपरेशन सिंदूर से ‘मोदी सिद्धांत’ का उद्भव हुआ, जो अब भारत की आतंक विरोधी नीति का स्थायी तत्व है। इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध आतंकवाद से बाज नहीं आता, पर मोदी सिद्धांत उसके सैन्य समाधान हेतु तैयार है। इसे पाकिस्तान को समझना होगा, क्योंकि उसकी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति बदहाल है।

पाकिस्तान में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत हैं। संघ शासित क्षेत्र गिलगित-बाल्टिस्तान एवं पाकिस्तान के कब्जे वाला जम्मू-कश्मीर है। विभाजन के समय इसमें पूर्वी पाकिस्तान भी था, जो 1971 में बांग्लादेश बना। पाकिस्तान में अनेक विभाजनकारी कारक हैं। पाकिस्तानी लोकतंत्र में क्षेत्रीयता, जातीयता और भाषाई अस्मिताओं को समुचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिला। पाकिस्तान में पंजाबी 42.15 प्रतिशत, सिंधी 14.1 प्रतिशत, पश्तून या पठान-पख्तून 17.42 प्रतिशत, बलूच 3.57 प्रतिशत और मुहाजिर (भारत से गए मुस्लिम) 7.57 प्रतिशत हैं। ये जातीय अस्मिताएं अलग-अलग प्रांतों में सिमटी हैं।

पंजाब में पंजाबी बोली जाती है, सिंध में मुहाजिर उर्दू पसंद करते हैं और सिंधी को राजभाषा बनाने से पंजाबियों, सिंधियों और पठानों से नाराज हैं। बलूचिस्तान में बलूची और पश्तो बोली जाती है, खैबर-पख्तूनख्वा में पख्तून पश्तो बोलते हैं। इस कारण सिंधी, बलूच, पख्तून केवल अपने ही लोगों को वोट देते हैं, जिसका अलग-अलग दल लाभ उठाते हैं। वैसे तो सामाजिक विविधताएं बगिया के फूल की भांति होती हैं, लेकिन जब उन्हें राजनीतिक शक्ति संस्थाओं में समुचित स्थान नहीं मिलता, तो वे विभाजनकारी हो जाती हैं।

पाकिस्तान ने 1971 के विभाजन से कुछ सीखा नहीं। बांग्ला भाषाई अस्मिता के कारण उसे पूर्वी पाकिस्तान खोना पड़ा। आज वही स्थिति बलूचिस्तान में है, जिसके पास पाकिस्तान का 43.6 प्रतिशत भू-भाग है। उसके पास सोना, तांबा, कोयला, गैस आदि का विशाल भंडार है, पर उसकी राजनीतिक हिस्सेदारी नगण्य है। कई बलूच गुट दशकों से संघर्षरत हैं। बलूचिस्तान के लिए आवंटित पाकिस्तानी बजट का 70 प्रतिशत हिस्सा वहां के कबाइली बलूच सरदारों को देना पड़ता है और केवल 30 प्रतिशत ही प्रांतीय सरकार को खर्च हेतु मिलता है। बलूची स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को आमंत्रित किया है। विगत 75 वर्षों से पाकिस्तानी सेना और सरकार बलूचों पर अत्याचार कर रहे हैं। बलूचों की तरह पख्तून भी पाकिस्तान से खार खाए बैठे हैं।

पाकिस्तान में राजनीतिक संस्थाओं पर एक प्रांत, एक जातीयता और एक भाषा वाले लोगों का वर्चस्व है, जो दूसरा बड़ा विभाजनकारी तत्व है। वहां पंजाबी सबसे बड़ा समूह है। संख्या, शिक्षा और संपन्नता के कारण सेना और राजनीति पर उसका एकाधिकार है। पाकिस्तानी संसद (नेशनल असेंबली) में सिंध, बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा आदि के मुकाबले पंजाब के पास कहीं अधिक सीटें हैं। इसी कारण पूरे पाकिस्तान पर पंजाब हावी रहता है। बलूचों और अन्य की नीति-निर्माण में भूमिका नगण्य है।

पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद 2 के अनुसार पाकिस्तान में इस्लाम ही राजकीय रिलीजन है, लेकिन शिया, सुन्नी, बरेलवी, देवबंदी, खारजी समेत दर्जनों अन्य फिरके मुस्लिम समाज के विभाजनकारी सीमांकनों के संकेतक हैं। अहमदिया तो इस्लाम से खारिज ही हैं। पाकिस्तान इन विभाजनकारी कारकों पर इस्लामिक-विचारधारा का ब्रेक लगाने की कोशिश करता है, पर इन वर्गों को सत्ता में न्यायपूर्ण हिस्सेदारी न देने से पाकिस्तान इसमें सफल नहीं है। तीसरा विभाजनकारी कारक पाकिस्तान में संवैधानिक और गैर-संवैधानिक संस्थाओं की पारस्परिक अस्मिता स्पर्धा और शक्ति संघर्ष है।

पाकिस्तान की लाहौर यूनिवर्सिटी आफ मैनेजमेंट साइंस में मोदी की चुनावी विजय के कारणों पर व्याख्यान देने का अवसर मिला था। वहां लोगों से बातचीत में अनुभव हुआ कि पाकिस्तान के अंदर तो कई पाकिस्तान हैं, जिसमें एक वहां की जनता का है, जिसकी परवाह सरकार, सेना, आइएसआइ और मीडिया किसी को नहीं। शासन-प्रशासन के सैन्यीकरण से जनता अपने मनोभावों को व्यक्त नहीं कर पाती, इसलिए मीडिया में वहां की सही तस्वीर नहीं आ पाती।

विगत 75 वर्षों में पाकिस्तान के मदरसों और स्कूलों में भारत और हिंदुओं के विरुद्ध इतना विष भरा गया है कि कई पीढ़ियां उससे उबर न पाएंगी। वहां के मुल्ला-मौलवी खुले आम गजवा-ए-हिंद और जिहाद की बातें करते हैं। इसी के चलते अलकायदा, लश्कर, जैश, हिजबुल जैसे न जाने कितने आतंकी संगठनों ने पाकिस्तान को आतंक की फैक्ट्री बना दिया है, जिसे सेना और आइएसआइ का खुला संरक्षण प्राप्त है। यह भारत के हमले में मारे गए आतंकियों के जनाजे में सेना के अफसरों के शामित होने से साबित भी हुआ। इस जनाजे में एक घोषित आतंकी भी था, जिसे पाकिस्तानी सेना ने स्थानीय मौलाना बताने की नाकाम कोशिश की।

अब भारत का दूरगामी लक्ष्य न केवल सिंध, पंजाब और पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर के ‘टेरर-इकोसिस्टम’ को छिन्न-भिन्न करना, वरन बलूचिस्तान और खैबर-पख्तूनख्वा में अन्याय, अत्याचार और मानवाधिकार-उल्लंघन के खिलाफ आवाज उठानाडॉ. एके वर्म। आपरेशन सिंदूर न केवल पहलगाम आतंकी हमले पर पाकिस्तान को करारा जवाब है, वरन भारत की सैन्य क्षमता का साहसिक प्रदर्शन भी है। भारत ने सामरिक घात-प्रतिघात रोकना अपनी शर्तों पर स्वीकार किया, जिसमें सिंधु जल संधि के स्थगन पर फैसला कायम रखना और आतंकी गतिविधियों को युद्ध की संज्ञा देना शामिल है। कई लोग चाहते थे कि भारत कुछ ऐसा करता, जिससे समस्या का स्थायी समाधान होता, पर आखिर भारत ऐसा करता क्या?

आपरेशन सिंदूर का लक्ष्य था-आतंकियों और उनके अड्डों को चिह्नित कर उन्हें नष्ट करना और उन्हें प्रश्रय देने वालों को दंडित करना। इस लक्ष्य की बड़े हद तक पूर्ति हुई। आपरेशन सिंदूर से ‘मोदी सिद्धांत’ का उद्भव हुआ, जो अब भारत की आतंक विरोधी नीति का स्थायी तत्व है। इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध आतंकवाद से बाज नहीं आता, पर मोदी सिद्धांत उसके सैन्य समाधान हेतु तैयार है। इसे पाकिस्तान को समझना होगा, क्योंकि उसकी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति बदहाल है।

पाकिस्तान में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत हैं। संघ शासित क्षेत्र गिलगित-बाल्टिस्तान एवं पाकिस्तान के कब्जे वाला जम्मू-कश्मीर है। विभाजन के समय इसमें पूर्वी पाकिस्तान भी था, जो 1971 में बांग्लादेश बना। पाकिस्तान में अनेक विभाजनकारी कारक हैं। पाकिस्तानी लोकतंत्र में क्षेत्रीयता, जातीयता और भाषाई अस्मिताओं को समुचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिला। पाकिस्तान में पंजाबी 42.15 प्रतिशत, सिंधी 14.1 प्रतिशत, पश्तून या पठान-पख्तून 17.42 प्रतिशत, बलूच 3.57 प्रतिशत और मुहाजिर (भारत से गए मुस्लिम) 7.57 प्रतिशत हैं। ये जातीय अस्मिताएं अलग-अलग प्रांतों में सिमटी हैं।

पंजाब में पंजाबी बोली जाती है, सिंध में मुहाजिर उर्दू पसंद करते हैं और सिंधी को राजभाषा बनाने से पंजाबियों, सिंधियों और पठानों से नाराज हैं। बलूचिस्तान में बलूची और पश्तो बोली जाती है, खैबर-पख्तूनख्वा में पख्तून पश्तो बोलते हैं। इस कारण सिंधी, बलूच, पख्तून केवल अपने ही लोगों को वोट देते हैं, जिसका अलग-अलग दल लाभ उठाते हैं। वैसे तो सामाजिक विविधताएं बगिया के फूल की भांति होती हैं, लेकिन जब उन्हें राजनीतिक शक्ति संस्थाओं में समुचित स्थान नहीं मिलता, तो वे विभाजनकारी हो जाती हैं।

पाकिस्तान ने 1971 के विभाजन से कुछ सीखा नहीं। बांग्ला भाषाई अस्मिता के कारण उसे पूर्वी पाकिस्तान खोना पड़ा। आज वही स्थिति बलूचिस्तान में है, जिसके पास पाकिस्तान का 43.6 प्रतिशत भू-भाग है। उसके पास सोना, तांबा, कोयला, गैस आदि का विशाल भंडार है, पर उसकी राजनीतिक हिस्सेदारी नगण्य है। कई बलूच गुट दशकों से संघर्षरत हैं। बलूचिस्तान के लिए आवंटित पाकिस्तानी बजट का 70 प्रतिशत हिस्सा वहां के कबाइली बलूच सरदारों को देना पड़ता है और केवल 30 प्रतिशत ही प्रांतीय सरकार को खर्च हेतु मिलता है। बलूची स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को आमंत्रित किया है। विगत 75 वर्षों से पाकिस्तानी सेना और सरकार बलूचों पर अत्याचार कर रहे हैं। बलूचों की तरह पख्तून भी पाकिस्तान से खार खाए बैठे हैं।

पाकिस्तान में राजनीतिक संस्थाओं पर एक प्रांत, एक जातीयता और एक भाषा वाले लोगों का वर्चस्व है, जो दूसरा बड़ा विभाजनकारी तत्व है। वहां पंजाबी सबसे बड़ा समूह है। संख्या, शिक्षा और संपन्नता के कारण सेना और राजनीति पर उसका एकाधिकार है। पाकिस्तानी संसद (नेशनल असेंबली) में सिंध, बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा आदि के मुकाबले पंजाब के पास कहीं अधिक सीटें हैं। इसी कारण पूरे पाकिस्तान पर पंजाब हावी रहता है। बलूचों और अन्य की नीति-निर्माण में भूमिका नगण्य है।

पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद 2 के अनुसार पाकिस्तान में इस्लाम ही राजकीय रिलीजन है, लेकिन शिया, सुन्नी, बरेलवी, देवबंदी, खारजी समेत दर्जनों अन्य फिरके मुस्लिम समाज के विभाजनकारी सीमांकनों के संकेतक हैं। अहमदिया तो इस्लाम से खारिज ही हैं। पाकिस्तान इन विभाजनकारी कारकों पर इस्लामिक-विचारधारा का ब्रेक लगाने की कोशिश करता है, पर इन वर्गों को सत्ता में न्यायपूर्ण हिस्सेदारी न देने से पाकिस्तान इसमें सफल नहीं है। तीसरा विभाजनकारी कारक पाकिस्तान में संवैधानिक और गैर-संवैधानिक संस्थाओं की पारस्परिक अस्मिता स्पर्धा और शक्ति संघर्ष है।

पाकिस्तान की लाहौर यूनिवर्सिटी आफ मैनेजमेंट साइंस में मोदी की चुनावी विजय के कारणों पर व्याख्यान देने का अवसर मिला था। वहां लोगों से बातचीत में अनुभव हुआ कि पाकिस्तान के अंदर तो कई पाकिस्तान हैं, जिसमें एक वहां की जनता का है, जिसकी परवाह सरकार, सेना, आइएसआइ और मीडिया किसी को नहीं। शासन-प्रशासन के सैन्यीकरण से जनता अपने मनोभावों को व्यक्त नहीं कर पाती, इसलिए मीडिया में वहां की सही तस्वीर नहीं आ पाती।

विगत 75 वर्षों में पाकिस्तान के मदरसों और स्कूलों में भारत और हिंदुओं के विरुद्ध इतना विष भरा गया है कि कई पीढ़ियां उससे उबर न पाएंगी। वहां के मुल्ला-मौलवी खुले आम गजवा-ए-हिंद और जिहाद की बातें करते हैं। इसी के चलते अलकायदा, लश्कर, जैश, हिजबुल जैसे न जाने कितने आतंकी संगठनों ने पाकिस्तान को आतंक की फैक्ट्री बना दिया है, जिसे सेना और आइएसआइ का खुला संरक्षण प्राप्त है। यह भारत के हमले में मारे गए आतंकियों के जनाजे में सेना के अफसरों के शामित होने से साबित भी हुआ। इस जनाजे में एक घोषित आतंकी भी था, जिसे पाकिस्तानी सेना ने स्थानीय मौलाना बताने की नाकाम कोशिश की।

अब भारत का दूरगामी लक्ष्य न केवल सिंध, पंजाब और पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर के ‘टेरर-इकोसिस्टम’ को छिन्न-भिन्न करना, वरन बलूचिस्तान और खैबर-पख्तूनख्वा में अन्याय, अत्याचार और मानवाधिकार-उल्लंघन के खिलाफ आवाज उठाना भी होना चाहिए। इससे अंदर ही अंदर दरक रहे पाकिस्तान पर और दबाव बनेगा।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं)