सुरेश पंत। पिछले कुछ वर्षों से अपने देश में यह चलन बन गया है कि कोई भी नेता भाषा के बारे में कोई ऐसा बयान उछाल देता है, जिससे हलचल हो जाती है। कुछ दिन मीडिया मंचों से शोरगुल होने के बाद बात थोड़ी सी शांत होती है तो किसी और कोने से कोई और इसे उछाल देता है। तो फिर वही हाय-हाय, वही शोरगुल।

सबसे प्रखर हिंदी विरोध के स्वर तमिलनाडु से उभरते हैं और इसकी अनुगूंज कभी ‘नम्मा कर्नाटका’ से, कभी ‘आमची मुंबई’ से तो कभी कहीं और से आती रहती है। विरोध के स्वर कहीं उग्र, कहीं तेज तो कहीं उपद्रवी भी होते हैं। पिछले दिनों कर्नाटक में स्टेट बैंक की एक शाखा की हिंदी बोलने वाली अधिकारी और कन्नड़ बोलने वाले ग्राहक के बीच भाषा को लेकर विवाद हो गया। यह मामला शांत होता कि अभिनेता कमल हासन ने तमिल-कन्नड़ विवाद खड़ा कर दिया। इस पर उन्हें हाई कोर्ट से फटकार पड़ी।

आमची मुंबई में भी दल विशेष के कार्यकर्ता दुकान पर जाकर धमकाते हैं कि महाराष्ट्र में रहना है तो हिंदी नहीं, मराठी बोलो। इसके पीछे मुख्य रूप से होती है ऐसी राजनीति, जो भाषा को परस्पर समानता अथवा एकता का नहीं, वरन आपसी लड़ाई का औजार बनाती है। तमिलनाडु का हिंदी विरोध सबसे पुराना है, लेकिन यह भी साफ है कि उसने कभी त्रिभाषा सूत्र स्वीकार नहीं किया और बिना लाग-लपेट कहता रहा कि उसे हिंदी स्वीकार्य नहीं।

इसके पीछे निहित अनेक कारणों में से एक है तमिल स्वाभिमान की अभिव्यक्ति और दूसरा हिंदी विरोध न करने पर राजनीतिक रूप से कमजोर पड़ने का भय, क्योंकि 1967 से हिंदी विरोध के कारण ही वहां क्षेत्रीय दल सत्ता पर बने हैं, वह चाहे डीएमके हो या एआइएडीएमके। हिंदी विरोध के बहाने तमिल अस्मिता को बचाए रखने की बात आम वोटर के भीतर इतनी पैठ गई है कि अब अगर ये दल हिंदी विरोध समाप्त कर लें तो अपने वोट नहीं बचा सकते। तब गद्दी किसी अखिल भारतीय दल के हाथों में जा सकती है।

भारत में सूचना क्रांति के पदार्पण के बाद कर्नाटक, विशेषकर बेंगलुरु इलेक्ट्रानिक सिटी के रूप में उभरा है। यहां देश-विदेश से ऐसे लोग भी हैं, जिनके लिए एक से अधिक भाषाओं में बातचीत या संप्रेषण की कुशलता प्राप्त करना व्यावसायिक अनिवार्यता भी है। उनके लिए एक ऐसी संपर्क भाषा जरूरी हो जाती है, जो अधिकतर के समझ में आए। इसलिए अंग्रेजी के साथ हिंदी जरूरी हो जाती है। यह रोजगार और व्यवसाय की मांग के कारण हो रहा है। किसी राजनीतिक दबाव के कारण नहीं। लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार हिंदी ही नहीं तमिल, तेलुगु, मलयालम, मराठी भी सीखते हैं। देश की भाषाओं को लेकर सरकार की नीति भी स्पष्ट कभी नहीं दिखाई पड़ी।

आधी सदी से अधिक हुआ, हम त्रिभाषा सूत्र के पीछे पड़े हुए हैं। यह जानते हुए भी कि इसके परिणाम कभी अनुकूल नहीं रहे। वस्तुत: ईमानदारी से त्रिभाषा सूत्र कभी लागू ही नहीं किया गया, इसलिए सफल नहीं हुआ। इससे हमने सबक नहीं सीखे। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत फिर से तीन भाषाओं को सीखने-सिखाने की संस्तुति की गई है। अर्थात फिर वही ढाक के तीन पात। पहले यह विवेचन किया जाता कि तीन भाषाएं पढ़ने के नाम पर जो कुछ किया गया है, उसके परिणाम क्या रहे हैं। अचानक त्रिभाषा सूत्र की याद दिला देने से शंकालु राज्य अधिक शंकालु हो जाते हैं और ऐसे नारे उभरने लगते हैं-हिंदी थोपी जा रही है, हिंदी का साम्राज्यवाद नहीं चलेगा इत्यादि-इत्यादि।

देश में लगभग 424 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से 22 भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची से विशेष मान्यता प्राप्त है। इस अनुसूची में स्थान पाने के लिए 30 से अधिक भाषाएं कतार में लगी हैं। इसमें भी राजनीति है। अनुसूची में आने का अर्थ है उस भाषा के लिए बजट अधिक हो जाना। अकादमियों, समितियों के अध्यक्ष के रूप में राजनीतिक नियुक्तियां और भी ऐसे ही प्रलोभन। चुनाव आने पर इसे ही भुनाया जाता है। इसी प्रकार शास्त्रीय भाषाओं के रूप में भी पहले चार भाषाएं स्वीकृत थीं। अब उनकी संख्या 11 पहुंच चुकी है। वहां भी ऐसे ही आकर्षण हैं। इसलिए अनेक भाषाएं शास्त्रीय भाषाएं बनने को आतुर हैं। शास्त्रीय भाषा कौन हो, इसकी पहचान के लिए भी नियमों में कम से कम तीन बार परिवर्तन किया जा चुका है और आश्चर्य नहीं कि आगे कोई भाषा शामिल करनी हो तो फिर परिवर्तन करें।

यह बात अनेक प्रकार से, अनेक मंचों से कही जाती रही है कि वेशभूषा, भाषा, रहन-सहन में बहुलता ही भारत की पहचान है। इसलिए हमें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना चाहिए। जब इसके अनुपालन की बात आती है तो हम प्रायः पिछड़ जाते हैं या भ्रम और अहंकार से ग्रस्त हो जाते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम हिंदी वाले समझते हैं हिंदी भाषी संख्या में अधिक हैं और संख्या बल के कारण हिंदी सबको स्वीकार्य होनी चाहिए, लेकिन लोकतंत्र में, विशेष कर भाषा के मामले में, आंकड़े ही नहीं, स्वीकार्यता और सहमति भी महत्वपूर्ण होती है। हम यह मानने को तैयार नहीं कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं और संविधान की दृष्टि में यह अंग्रेजी के साथ-साथ सह-राजभाषा है। यह हिंदी प्रेम हमारी अक्खड़ता को प्रदर्शित करता है।

(भाषाविद और अनेक पुस्तकों के लेखक सीबीएसई, एनसीईआरटी, केंद्रीय हिंदी निदेशालय आदि में सलाहकार रहे हैं)