हिंदी का बेजा विरोध
अनुभूति आसान है, लेकिन अभिव्यक्ति कठिन। समाज गठन और सभ्यता के विकास में संवाद की मुख्य भूमिका है। संवाद का मुख्य उपकरण है भाषा। हरेक देश की अपनी भाषा है और अपनी सभ्यता। भारत की प्रीति, रीति, प्रकृति संस्कृति और संवाद की भाषा हिंदी है। हिंदी राष्ट्र भाषा है और राजभाषा भी, लेकिन अंग्रेजी मोहित लोग हिंदी के प्रति हेय भाव रखते हैं। वे अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय भाषा बताते हैं। एशिया महाद्वीप के किसी भी देश की भाषा अंग्रेजी नहीं है। चीन ताईवान की भाषा मंदारिन है। ओमान, सऊदी अरब, इराक, सीरिया, जार्डन, कुवैत, कतर की भाषा अरबी है। इंडोनेशिया की डच व श्रीलंका की सिंहली व तमिल है। अजरबैजान की अजेरी, इसराइल की हिब्रू, ईरान की फारसी है। दक्षिण अमेरिका के नौ देशों की भाषा स्पेनी है। ब्राजील की पुर्तगाली। सूरीनाम व गुयाना में हिंदी भी बोली जाती है। 43 यूरोपीय देशों में से 40 की भाषा अंग्रेजी नहीं है। डेनमार्क की डेनिस, चेक गणराज्य की चेक, रूस की रूसी, आस्ट्रिया, जर्मनी की जर्मन, फ्रांस की फ्रेंच, स्वीडन की स्वीडिस, इटली की इटालियन, यूक्रेन की यूक्रेनियन, बुल्गारिया की वल्गेरियन, आयरलैंड की आयरिश और स्पेन की स्पेनिश है। केवल ब्रिटेन की भाषा ही अंग्रेजी है। अफ्रीका और आस्ट्रेलिया की भी मूल भाषा अंग्रेजी नहीं है। बावजूद इसके अंग्रेजीपसंद मुट्ठी भर लोग इसे अंतरराष्ट्रीय भाषा कहते हैं और राष्ट्रभाषा हिंदी से श्रेष्ठ बताते हैं।
हिंदी ने अपना क्षेत्र व्यापक किया है। भारत के प्रत्येक राज्य में हिंदी बोली और समझी जाती है। नरेंद्र मोदी की सरकार शपथ ग्रहण के दिन से ही राजभाषा की प्रतिष्ठा की ओर बढ़ी। प्रधानमंत्री ने विदेशी राष्ट्राध्यक्षों से हिंदी में बातें की। इसकी प्रशंसा हुई। गृह मंत्रालय ने सोशल नेटवर्किंग में हिंदी को प्राथमिकता देने की बात कही। हिंदी का प्रसार केंद्र का संवैधानिक कर्तव्य है, लेकिन इसे हिंदी थोपने की संज्ञा दी गई। करुणानिधि व जयललिता ने मामले का राजनीतिकरण किया। अंग्रेजी भक्त पी. चिदंबरम ने इसे संवेदनशील मसला बताया। अंग्रेजी समाचार माध्यम कई कदम आगे बढ़े। उन्होंने अंग्रेजी की औचित्यहीन तरफदारी की। चिदंबरम और समाचार माध्यमों के एक वर्ग ने राजभाषा के प्रश्न को संवेदनशील बनाने का गलत प्रयास किया। मूलभूत प्रश्न यह है कि राजभाषा हिंदी का प्रयोग और प्रसार केंद्र का संवैधानिक कर्तव्य होने के बावजूद संवेदनशील क्यों है? संवैधानिक कर्तव्य निर्वहन को भी हिंदी थोपने की संज्ञा क्यों दी जा रही है? हिंदी को राजभाषा घोषित करने का कार्य किसी शासनादेश या राजाज्ञा का परिणाम नहीं है। राजभाषा के प्रश्न पर संविधान सभा ने 12, 13 व 14 सितंबर, 1949 में लगातार तीन दिन बहस की थी।
हिंदी स्वाधीनता संग्राम की भाषा थी। भारत अंग्रेजों से हिंदी में ही लड़ा था। हिंदी का स्वाभाविक विकास और प्रसार हुआ। हिंदी सदा लोकभाषा रही, लेकिन राजप्रिय नहीं हो सकी। हिंदी पर फारसी थोपी इस्लामी शासकों ने। फारसी को राजाश्रय मिला, लेकिन हिंदी जीवंत रही। ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश सत्ता अंग्रेजी लाई। अंग्रेजी शासक वर्ग की भाषा बनी, लेकिन भारत का मन और सौंदर्य बोध हिंदी में ही खिलता रहा। उसने लोक की प्रीति पाई, संत कवियों का भक्तिरसपूर्ण हृदय पाया। सिद्धों की मुक्त दृष्टि पाई। ब्रिटिश सत्ता अंग्रेजी थोप रही थी। गांधी जी ने लखनऊ में अखिल भारतीय भाषा सम्मेलन में कहा था- मेरी हिंदी टूटी-फूटी है। मैं टूटी-फूटी हिंदी में ही बोलता हूं। अंग्रेजी बोलने में मुझे पाप लगता है। सत्ता दरबारियों की भाषा अंग्रेजी थी और हनक, ठसक की बोली थी। ब्रिटिशराज दीर्घकाल में भी हिंदी की ताकत नहीं रोक पाया, लेकिन स्वतंत्र भारत का प्रभु वर्ग अंग्रेजी के प्रेमपाश में है।
अंग्रेजी हटाना, राजभाषा हिंदी लाना और सभी भारतीय भाषाओं का विकास संविधान निर्माताओं का स्वप्न था। संविधान सभा में पंडित नेहरू ने अंग्रेजी को बर्दाश्त के बाहर बताया। कहा- एक हजार वर्ष के इतिहास में भारत ही नहीं सारे दक्षिण पूर्वी एशिया और केंद्रीय एशिया के कुछ भागों में भी विद्वानों की भाषा संस्कृत थी। अंग्रेजी कितनी ही महत्वपूर्ण हो, किंतु उसे हम सहन नहीं कर सकते। हमें अपनी ही भाषा को अपनाना चाहिए। सेठ गोविंद दास ने हिंदी की पैरोकारी की, कहा कि हजारों वर्ष से यहां एक संस्कृति है। यहां एक भाषा और एक लिपि रखना है। धुलेकर ने हिंदी को राष्ट्रभाषा कहा। आपत्तिहुई। उन्होंने कहा- मैं हिंदी राष्ट्र, हिंदुस्तानी राष्ट्र का हूं। हिंदी राष्ट्रभाषा है। पीडी टंडन ने यूरोपीय विद्वान पिटमैन का हवाला दिया कि दुनिया में हिंदी की ही सर्वसंपन्न वर्णमाला है। लंबी बहस के बाद हिंदी राजभाषा बनी। 15 वर्ष तक अंग्रेजी बनाए रखने का 'परंतु' जोड़ा गया। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा- अंग्रेजी हटाने के लिए 15 वर्ष हैं। वह किस प्रकार हटाई जाए? लेकिन केंद्रीय प्रशासन और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी ही जम गई।
भारत विशाल भौगोलिक इकाई है। यह एक प्राचीन सांस्कृतिक इकाई भी है। यहां 1652 भाषाएं/बोलियां है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं हैं। सभी भारतीय भाषाएं यहां की प्रकृति और जनगणमन की प्रीति में उगी। सबमें भारतीय संस्कृति का मधुरस है, लेकिन अंग्रेजी विदेशी है। विदेशी भाषाओं का ज्ञान बुरा नहीं है। भाषा ज्ञान अवांछनीय नहीं होता, लेकिन परंपरा, परिवार, समाज गठन और एक राष्ट्र के सूत्र स्वभाषा में ही सुदृढ़ होते हैं। कवि सुब्रमण्यम भारती ने तमिल में भारतीय संस्कृति का इंद्रधनुष रचा है। दक्षिण के अनेक कवियों ने भारतीय परंपरा पर लोकप्रिय ग्रंथ रचे हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में कोई द्वैत नहीं है। राजभाषा हिंदी की समृद्धि में सभी भारतीय भाषाओं की ऋद्धि-सिद्धि है। राजभाषा हिंदी को अंतर्राच्य संबंधों की भाषा बनाने और अंग्रेजी से पिंड छुड़ाने में ही भारतीय भाषाओं का भविष्य है। हिंदी की जगह अंग्रेजी चलेगी तो अन्य भाषाओं की जगह भी अंग्रेजी क्यों नहीं लेगी?
हिंदी बनाम अंग्रेजी की टक्कर दरअसल भारतीय संस्कृति बनाम विदेशी भोगवादी बाजारवादी सभ्यता की टक्कर है। भारतीय सभ्यता की अभिव्यक्ति हिंदी है। यहां संयम पर जोर है। लोकमंगल वरीयता है। अंग्रेजी सभ्यता में अधिकतम भोग की अपील है और बाजार का आधिपत्य है। हिंदी नागरिक बनाती है और अंग्रेजी उपभोक्ता। केंद्रीय प्रशासन की बात दीगर है। वैसे भारत के एक-डेढ़ प्रतिशत लोग भी अंग्रेजी नहीं जानते। अंग्रेजी सवरंगपूर्ण भाषा है भी नहीं। ब्रिटेन में कहावत है- जो राजा बोलता है, वही अंग्रेजी है। भारत में भी प्रशासक वर्ग की भाषा अंग्रेजी है, लेकिन लोकभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा हिंदी। हिंदी का पोषण, संवर्द्धन और प्रसार केंद्र की संवैधानिक जिम्मेदारी है। अंग्रेजी प्रिय लोग अनावश्यक ही विलाप कर रहे हैं। केंद्र को निर्भीक होकर हिंदी प्रसार के संवैधानिक कर्तव्य का पालन करना चाहिए। हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं के विकास में ही भारतीय संस्कृति का सनातन प्रवाह अक्षुण्ण होगा। अंग्रेजी को 'गुडबाई' कहने का यही शुभ अवसर है।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं]
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