राहुल वर्मा। राजनीति को भले ही कोई 'पेशा' नहीं समझा जाता हो, लेकिन अन्य पेशेवरों की तरह इसमें भी रिटायरमेंट यानी सेवानिवृत्ति का सवाल रह-रहकर सतह पर आता रहता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का बीते दिनों इस संबंध में एक बयान भी चर्चा में रहा था। भारत युवाओं की बड़ी आबादी वाला देश है। इस कारण स्वाभाविक रूप से राजनीति में भी युवाओं का व्यापक प्रतिनिधित्व अपेक्षित है।

हालांकि कई पहलुओं के चलते यह संभव नहीं हो पा रहा है। वैसे, राजनीति में युवाओं के पर्याप्त प्रतिनिधित्व का अभाव केवल भारत में ही देखने को नहीं मिलता, बल्कि दुनिया के अधिकांश देशों में यही रुझान नजर आता है। एक अध्ययन के अनुसार प्रमुख लोकतांत्रिक देशों में 10 प्रतिशत से कम ही नेता 35 साल से कम आयु के हैं। भारत में भी यही परिपाटी जारी है। 1952 से 2024 के बीच गठित हुई लोकसभा पर दृष्टि डालें तो उसकी औसत आयु लगातार बढ़ती जा रही है। इस क्रम में मौजूदा लोकसभा की औसत आयु सर्वाधिक है।

यह दर्शाता है कि राजनीतिक व्यवस्था में युवाओं का समायोजन उचित अनुपात में नहीं हो पा रहा है। इसके कारणों की पड़ताल में सबसे बड़ा पहलू यही सामने आता है कि राजनीति में प्रवेश ही अक्सर अधिक आयु में मिलता है। डाक्टर, इंजीनियर या अन्य सेवाओं में जहां व्यक्ति कम आयु में ही अपना कार्य शुरू कर देता है, वहीं राजनीति में यह सफर अपेक्षाकृत देर से शुरू होता है।

अक्सर 40 से 45 की आयु में व्यक्ति राजनीतिक जीवन की पहली सीढ़ी चढ़ता है। 45 से 50 की आयु में वह पार्षद, विधायक या सांसद बनता है। मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री जैसे शीर्ष पद तक पहुंचने में 60-65 साल की आयु हो जाना बहुत सामान्य बात है। यही कारण है कि राजनीति में ‘उम्रदराज’ लोगों को भी ‘युवा तुर्क’ की उपमा दी जाती है। एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो किसी अन्य पेशे में होते हैं और उसके साथ ही राजनीति में संलग्न रहते हैं।

यह सही है कि संविधान ने 25 वर्ष से अधिक आयु वाले किसी भी व्यक्ति को जनप्रतिनिधि चुने जाने की अर्हता निर्धारित की हुई है, पर वास्तविकता में यह संकल्पना व्यापक रूप से साकार नहीं हो सकी है। कुछ युवा नेता विधानसभा, लोकसभा और मंत्री पदों तक पहुंचे हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश या कहें कि 90 प्रतिशत ऐसे हैं जो किसी राजनीतिक परिवार से संबंध रखते हैं। ये अपनी पारिवारिक विरासत की पूंजी से ही स्वयं को स्थापित कर पाए हैं। देश में 35 साल से कम आयु के 90 प्रतिशत सांसद इसी श्रेणी में आते हैं।

चुनाव लड़ने में भी युवा नेताओं की भागीदारी बेहद सीमित है। उदाहरणस्वरूप 2024 के लोकसभा चुनाव में 8,000 से अधिक प्रत्याशियों में 30 साल से कम आयु के गंभीर उम्मीदवार सौ भी नहीं थे। पार्टी संगठन में भी युवाओं को उचित समय पर जगह नहीं मिल पाती। देश की सभी मुख्य पार्टियों की युवा इकाइयों के प्रमुखों पर दृष्टि डालें तो लगभग सभी की उम्र 40 के आसपास है। प्रतिनिधित्व से इतर प्रदर्शन की बात करें तो इसे लेकर भी बहस हो सकती है कि इसमें उम्रदराज अनुभवी नेता बेहतर होते हैं या युवा नेता। इस संदर्भ में अध्ययन कुछ रुझानों को दर्शाते हैं।

युवा नेताओं की कार्यशैली में नए सोच की झलक मिलती है। वे दीर्घकालिक एजेंडे पर काम करते हैं। जोखिम लेने से भी संकोच नहीं करते। कई बार इसके बहुत सकारात्मक परिणाम भी निकलते हैं। इसके उलट उम्रदराज नेता अपने अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ते हैं। किसी आपदा या संकट के समय उनका अनुभव बहुत काम आता है। किसी तनाव या टकराव की स्थिति में भी वे कहीं अधिक संयम से काम लेते हैं। बजट प्राथमिकताओं की बात की जाए तो जहां युवा नेता इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं, वहीं वरिष्ठ नेता कल्याणकारी योजनाओं को वरीयता देते हैं।

संसदीय उपस्थिति और सक्रियता को देखें तो इसमें युवा नेता पिछड़ जाते हैं। कार्यवाही में उनकी भागीदारी और उपस्थिति दोनों ही वरिष्ठ नेताओं से कम है। यह सही है कि कार्यवाही के मामले में राजनीतिक दल अनुभव को प्राथमिकता देते हुए वरिष्ठ नेताओं को आगे करते हैं, पर युवा सांसदों को संसद में उपस्थिति होने से भला कौन रोक रहा है? संसद में 60 वर्ष से अधिक आयु के सांसदों की उपस्थिति जहां 80 प्रतिशत के आसपास है, वहीं 40 साल से कम आयु वाले सांसदों की 75 प्रतिशत से थोड़ी कम।

राजनीतिक नेतृत्व के मामले में उम्र से अधिक यह मायने रखना चाहिए कि कोई नेता महत्वपूर्ण दायित्व संभालने के लिहाज से उपयुक्त है या नहीं। चूंकि ऐसे लोगों को अहम फैसले लेने होते हैं, इसलिए उनका शारीरिक एवं मानसिक तौर पर स्वस्थ होना बहुत जरूरी है। अमेरिका में जो बाइडन को दूसरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी इसी कारण वापस लेनी पड़ी कि उनकी सेहत को लेकर गंभीर सवाल उठने लगे थे। यही कारण है कि कुछ लोग यह सुझाव देते हैं कि जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं का नियमित अंतराल पर स्वास्थ्य बुलेटिन जारी किया जाना चाहिए।

इसके भी अपने जोखिम और सीमाएं हैं। एक तो नेता के स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी का असर राजनीतिक स्थिरता से लेकर आर्थिकी पर देखने को मिल सकता है। दूसरा, इसमें निजता का भी एक पेच है, क्योंकि किसी बीमारी की स्थिति में व्यक्तिगत गरिमा का भी ध्यान रखना पड़ता है। युवाओं को बेहतर प्रतिनिधित्व देने और राजनीति को समावेशी बनाने के लिए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री जैसे पदों पर अधिकतम बार चुने जाने की संख्या को नियत करने पर विचार हो सकता है।

हालांकि यह भी जनता के समक्ष विकल्पों को सीमित करने वाला होगा और यह कोई व्यापक समाधान भी नहीं करेगा। बेहतर यही होगा कि इस मोर्चे पर राजनीतिक दलों के भीतर और उम्रदराज नेताओं के बीच स्व-नियमन की कोई सर्वसम्मत राह तलाशी जाए, जिसमें पुराने नेताओं के अनुभव का लाभ मिलने के साथ ही युवाओं की ऊर्जा एवं नए सोच को भी राजनीति में सही जगह मिले।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)